आजम की रिहाई मुस्लिम राजनीति का बिखरा किला या नया मोर्चा ?

  • सलाखों से बाहर लेकिन सियासत के शिकंजे में आजम खान
  • सपा से दूरी, बसपा से नजदीकी या फिर भाजपा से कोई सौदा ?
  • 23 महीनों की लंबी कैद के बाद पूर्व समाजवादी सांसद जेल से बाहर
  • आजम रामपुर का शेर या सियासत का शिकार

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
लखनऊ। 23 महीनों की लंबी कैद के बाद आजम खान जेल से बाहर आ गए हैं। रामपुर का यह नेता कभी यूपी की राजनीति का धुरी माना जाता था। लेकिन सवाल यह है कि बाहर आने के बाद वह कहाँ खड़े हैं? सपा में उनका क्या रोल होगा? क्या बसपा उनके लिए नया आशियाना है? या फिर यह रिहाई महज किसी अदृश्य समझौते का नतीजा है? कुल मिलाकर सियासत के इस गर्म बाजार में आजम खान आजाद हैं मगर उनकी राजनीति कैद में है। सपा उनसे दूरी बनाए हुए है जबकि बसपा उन्हें गले लगाने से पहले नाप तौल रही है बात अगर बीजेपी की करें तो बीजेपी उन्हें अपनी रणनीति का हिस्सा बना चुकी है। मुस्लिम समाज अब भी सवाल पूछ रहा है कि हमारा नेतृत्व कौन करेगा? आजम का किला ढह चुका है लेकिन उनकी परछाईं अब भी सपा और यूपी की राजनीति पर मंडरा रही है।

बीजेपी मौन, नहीं दी कोई तीखी प्रतिक्रिया

आजम की रिहाई पर भाजपा ने कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी। इससे यह शक मजबूत होता है कि कहीं उनकी रिहाई शर्तों पर तो नहीं हुई? क्या आजम से यह वादा लिया गया है कि वह सपा को कमजोर करेंगे? क्या भाजपा चाहती है कि मुस्लिम राजनीति नेतृत्वहीन और बिखरी हुई रहे? क्या आजम की रिहाई यूपी विधान सभा के वर्ष 2027 के चुनाव की बड़ी रणनीति का हिस्सा है?

सपा व आजम मोहब्बत या मजबूरी?

आजम का पूरा राजनीतिक करियर सपा से जुड़ा रहा। लेकिन उनकी छवि हमेशा विवादों से घिरी रही। आजम ने पार्टी के भीतर कभी किसी और मुस्लिम नेता को उभरने नहीं दिया। एक तरफ आजम खां और दूसरी तरफ पार्टी के दूसरे मुस्लिम नेता। आजम का संघर्ष और मुलायम सिंह यादव से नजदीकियों के चलते आजम का हमेशा पार्टी के भीतर अपरहैंड रहा और उन्होंने जा चहा वह किया। शाहिद मंजूर, महबूब अली, हाजी रियाज अहमद, शफीकुर्ररहमान बर्क, एसटी हसन जैसे नेताओं की लंबी फौज है जो आजम के सताये हुए बताये जाते हैं। आजम की रिहाई के बाद तो पूव सासंद एसटी हसन ने यहां तक कह दिया कि उनसे मिलने का मन नहीं करता हां अगर वह बुलाएंगे तो जरूर जाऊंंगा। पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव अब एक ऐसे नेतृत्व की तलाश में हैं जो भाजपा के धु्रवीकरण का जवाब दे सके। इसलिए सपा के भीतर आजम अब अनचाहे मेहमान जैसे हैं।

वक्त के शिंकजे में आजम

आजम खान जेल से बाहर जरूर आ गए हैं लेकिन राजनीति में उनकी हालत ठीक नहीं है। सपा उन्हें बोझ समझ रही है। बसपा उन्हें औजार बना सकती है। और भाजपा उनकी चुप्पी से खुश है। लेकिन मुस्लिम समाज अब भी भटक रहा है। सवाल वही है कि क्या आजम अब भी नुकसान पहुंचा सकते हैं या फिर उनकी राजनीति का आखिरी पन्ना लिखा जा चुका है?

बसपा-आजम : क्या बन सकता है नया मोर्चा?

बसपा लंबे समय से मुस्लिम वोटरों की तलाश में है। अगर आजम बसपा का दामन थामते हैं तो तस्वीर बदल सकती है। और ताजा दलित-मुस्लिम गठजोड़ भाजपा के लिए चुनौती बन सकता है। मायावती के लिए यह एक नई प्रासंगिकता की शुरुआत भी मानी जा सकती है लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या ऐसा होगा? क्या आजम मायावती के सामने चप्पल उतार कर पेश होने की कूवत पैदा कर लेंगे। उनके सामाने बेटे अबदुल्ला आजम के भविष्य का सवाल भी है और मुकदमों की लंबी कतार भी ऐसे में आजम अगर मायावती के साथ जाते हैं तो पश्चिम यूपी में बसपा को दोबारा जमीन मिल सकती है। लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या मायावती आजम को उतनी आजादी देंगी जितनी सपा में मिली थी? सपा से छिटकने के आजम के? लिए कई कारण हो सकते हैं इनमें उनका उम्रदराज होना, कानूनी मामलों का दबाव होना और पार्टी के भीतर भरोसे की कमी सबसे उपर मानी जा रही है।

पश्चिम यूपी का बदलता नक्शा, सपा का गढ़ टूटा

पिछले दो सालों में भाजपा ने पश्चिम यूपी में सपा को गहरे झटके दिए है। बीजेपी रामपुर उपचुनाव 2022 को जीत चुकी है। रामपुर आजम की जन्म भूमि भी है और कर्म भूमि कोई सोच भी नहीं सकता था कि आजम की जिंदगी में वहां कमल खिल सकता है। लेकिन ऐसा हो चुका है। वहीं कुंदरकी विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी भाजपा ने यहां से सपा को मात दे। यही नहीं नगर निकाय चुनाव में भी रामपुर और मुरादाबाद जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा ने अप्रत्याशित बढ़त हासिल की। मौजूदा आंकड़े बताने के लिए काफी है कि आजम की गैरमौजूदगी ने सपा का मुस्लिम वोट बैंक कमजोर कर दिया।

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