योगी की सभाओं पर केशव की कैंची

  • बिहार के मैदान में भाजपा की अंदरूनी खींचतान आलाकमान हलकान
  • यूपी की राजनीति की परछाइयों से एनडीए गठबंधन में बेचैनी

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
लखनऊ। बिहार की चुनावी जमीन पर इस बार कुछ अलग पक रहा है। मंच वही हैं, झंडे भी वहीं है और नारे भी वही लेकिन सियासी तालियां कही गायब सी हो गयी हैं। इसकी वजह भी दिलचस्प है भाजपा के सबसे चमकदार चेहरों में गिने जाने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सभाएं अचानक ठंडी पड़ गई हैं। स्टार प्रचारक होने के बावजूद भी बिहार में उनकी सभाएं या तो टाल दी गयी हैं या फिर सीमित कर दी गई हैं। और अब सवाल उठने लगा है कि यह रणनीति है या राजनीतिक सर्जरी? क्योंकि यह सवाल कोई आम सवाल नहीं है और सूत्रों की माने तो इस पूरे घटनाक्रम में केशव प्रसाद मौर्या का नाम सामने आ रहा है। क्योंकि केशव बिहार विधानसभा चुनाव में सह-प्रभारी की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। बताया तो यहां तक जा रहा है कि दिल्ली मीटिंग के दौरान सीएम योगी आदित्यनाथ ने अपना यह दर्द आलाकमान के साथ भी शेयर किया है।

जोश-सन्नाटा और सवाल

बीजेपी के अंदर सत्ता और संगठन की जो खींचतान है उसमें केशव प्रसाद मौर्य लंबे वक्त से अपने को अनदेखा चेहरा मानते हैं। हाल ही में उन्होंने कई बार इशारों में कहा कि पार्टी में सबको बराबरी का हक मिलना चाहिए। अगर सूत्रों पर भरोसा करें तो योगी के 12 तय कार्यक्रमों में से सिर्फ दो कार्यक्रम अब तक हुए हैं वह भी सीमावर्ती इलाकों में। बाकी कार्यक्रम या तो लॉजिस्टिक कारणों से टाल दिए गए या फिर समीकरणों को देखते हुए स्थगित कर दिए गए। यह वही शब्दावली है जो आम तौर पर तब इस्तेमाल होती है जब किसी को शालीनता से साइडलाइन करना हो।

दोस्ती की परत में छिपा द्वंद्व

केशव प्रसाद मौर्य और योगी आदित्यनाथ की जोड़ी कभी राम/लक्ष्मण की जोड़ी मानी जाती थी। लेकिन 2017 के बाद यह संतुलन धीरे-धीरे प्रतिस्पर्धा में बदल गया। केशव प्रसाद मौर्य खुद को भाजपा के ओबीसी चेहरा मानते हैं जबकि योगी हिंदुत्व के फ्रंटलाइन कमांडर। दोनों की छवि अलग-अलग वोट बैंक पर टिकी है और यही वजह है कि जब भी चुनावी मैदान में एक आगे बढ़ता है दूसरा अपने तरीके से बैलेंस करने लगता है। इस बार बिहार के मंच पर यह बैलेंस और साफ दिखाई दे रहा हैं, जहां योगी के नाम की घोषणा तो हुई लेकिन लेकिन मंच नहीं सज सका। जानकारी के मुताबिक उनकी अबतक बिहार में दो जनसभाएं हुई हैं।

बिहार में योगी की रैलियों पर लगाम

पार्टी सूत्रों से खबर है कि एनडीए के सहयोगी दल जदयू ने आपत्ति जताई है कि योगी आदित्यनाथ की भाषण शैली में हिंदू-मुस्लिम रंग ज्यादा होता है। उनका कहना है कि बिहार की सामाजिक बनावट में यह फॉर्मूला उल्टा असर कर सकता है। जदयू को डर है कि अगर योगी की सभाएं ज्यादा हुयी तो मुस्लिम वोट जो नाराज कांग्रेस-राजद से निकलकर एनडीए की ओर झुक सकते हैं वह भी भाग जाएंगे। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह आपत्ति जदयू की है या जदयू के नाम पर किसी और ने उठवाई? भाजपा के अंदरखाने से जो आवाजें आ रही हैं वह कम दिलचस्प नहीं हैं। कुछ लोग खुलकर कह रहे हैं कि जदयू तो बहाना है असली खेल यूपी के भीतर से खेला गया है।

हिंदुत्व पॉलिटिक्स और बिहार की सामाजिक गणित

बिहार में जाति ही सबसे बड़ा धर्म है। यहां हिंदू-मुस्लिम की जगह कुर्मी-यादव-मुस्लिम-दलित का समीकरण आदि चलता है। योगी का भाषण उत्तर प्रदेश में तो भीड़ खींचता है पर बिहार में वही बात वोट खिसका सकती है। यही वजह बताई जा रही है कि जदयू ने ऐतराज जताया लेकिन सियासी जानकार कहते हैं यह ऐतराज तो बस बहाना है असली डर पार्टी के अंदर है। दरअसल योगी जिस तरह हर मंच पर अपने राजनीतिक कद को प्रधानमंत्री मोदी के बाद दूसरा बताने की कोशिश करते हैं उससे कई पुराने खिलाड़ी बेचैन हैं। उनमें मौर्य, राजनाथ, गडकरी जैसे नाम अक्सर बंद दरवाजों में चर्चाओं का हिस्सा रहते हैं।

अंदरूनी खेमेबंदी साथ या संघर्ष?

भाजपा की राजनीतिक रसोई में कई बर्तन एक साथ खदबदा रहे हैं। दिल्ली में मोदी-शाह की जोड़ी, लखनऊ में योगी-मौर्य की जोड़ी, और नागपुर में गडकरी-राजनाथ जैसे सीनियर चेहरे यह सब अलग-अलग तापमान पर पक रहे हैं। भले ही बाहर से पार्टी एकजुट दिखाने की कोशिश करे लेकिन अंदर की हलचल अब कोई रहस्य नहीं रही। राजनीतिक विशेषज्ञ के मुताबिक भाजपा अब वैचारिक परिवार से ज्यादा एक सत्ता-केंद्रित क्लब बन चुकी है जहां हर कोई अपनी जगह बचाने की लड़ाई लड़ रहा है।

बिहार चुनाव गुटबाजी का शिकार

बिहार में पार्टी की स्थानीय यूनिट पहले ही कमजोर है। जदयू का वोट बैंक सीमित है और लोजपा (पासवान) के अंदर भी बगावत चल रही है। ऐसे में अगर दिल्ली और लखनऊ की रस्साकशी जारी रही तो इसका सीधा फायदा राजद और कांग्रेस गठबंधन को मिलेगा। भाजपा के कुछ वरिष्ठ कार्यकर्ता ऑफ रिकॉर्ड कह चुके हैं कि हम लोग बिहार में विपक्ष नहीं अपने ही अंदरूनी विपक्ष से लड़ रहे हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की आवाज भी अब धीरे-धीरे स्लो हो रही है। नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह जैसी हस्तियां सार्वजनिक मंचों से न के बराबर दिखती हैं। कहा जाता है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने पार्टी को एक सेंट्रलाइज्ड मशीन में बदल दिया है जहां राज्य के नेता सिर्फ ऑपरेटर की भूमिका में होते हैं। पर योगी आदित्यनाथ इस मशीन के अंदर एक सेल्फ ब्रांड बन चुके हैं, यही बात केंद्रीय नेतृत्व को खटकती भी ज्यादा है। इसलिए, बिहार में उनके प्रचार को सीमित करना दरअसल एक पॉलिटिकल मैसेज है कि पार्टी में सबसे बड़ा ब्रांड सिर्फ मोदी है कोई और नहीं।

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