छोटे दलों का बिखराव, बड़े जमाते हैं पांव
क्षेत्रीय पार्टियों के उभार से बड़े दलों का खिसकता है आधार
- 2019 में 37.8 प्रतिशत वोट लेकर भी नहीं मिली सत्ता
- 37.36 प्रतिशत मत से हुई थी भाजपा की वापसी
- कांग्रेस की मजबूती, अन्य दलों की एकजुटता से 24 में दिखेगा नया रंग
4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। 2019 में बिखरी छोटी पार्टियों का पूरा लाभ भाजपा ने उठाया था। उस समय उनके पास कुल 37.8 प्रतिशत वोट थे पर बीजेपी 37.36 प्रतिशत वोट लेकर सत्ता में वापसी कर गई थी। इसबार जिस तरह से विपक्ष एकजुट होने की कोशिश कर रहा है अगर वह एकजुट हो गया तो 2024 की राह मोदी के लिए आसान नहीं होगी। पिछले चुनाव में कांग्रेस भी कमजोर थी पर भारत जोड़ों यात्रा व पिछले कु छ महीनों में राहुल गांधी की मेहनत की वजह से वह धीरे-धीरे मजबूत हो रही है। कर्नाटक चुनाव से पहले क्षेत्रीय पार्टियों की ताकत ऐसी थी कि बड़े-बड़े राजनीतिक दल उनसे घबराते थे। पर चुनाव के परिणाम आने के बाद से जैसे ही वहां की सत्ता जैसे ही कांग्रेस के हाथ में आई इन क्षेत्रीय दलों के सुर बदल गए।
वे अब खुलकर कांग्रेस व राहुल की तारीफ कसीदे पढ़ रहै। ज्ञात हो 2024 का लोकसभा चुनाव जहां बड़े दलों के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है, वहीं कई छोटी पार्टियों के लिए यह आस्तित्व बचाने की लड़ाई है, क्षेत्रीयता की जंग में उपजी छोटी पार्टियां 90 के दशक में सरकार गिराने और बनाने में बड़ी भूमिका निभाती थी। राष्ट्रपति के चुनाव में भी इन्हीं दलों का दबदबा होता था। 2014 के बाद केंद्र समेत कई राज्यों से छोटी पार्टियों का दखल खत्म होता गया। 90 के दशक में छोटी पार्टियां करीब 20 राज्यों की राजनीति को प्रभावित करती थी। इनमें उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे बड़े राज्य शामिल थे।
कर्नाटक में जेडीएस को भारी नुकसान
बीजेपी-कांग्रेस का चुनावी स्ट्राइक रेट और आमने-सामने की लड़ाई ने छोटी पार्टियों को काफी नुकसान पहुंचाया। हाल ही में कर्नाटक में कांग्रेस और बीजेपी की सीधी लड़ाई में जेडीएस को भारी नुकसान हुआ। जेडीएस ही नहीं, कांग्रेस और बीजेपी के चुनावी स्ट्राइक रेट बढऩे से कई छोटी पार्टियों का सियासी रसूख खत्म होने की कगार पर है। चुनाव आयोग के मुताबिक वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर की 6 और करीब राज्य स्तर की 55 पार्टियां प्रभाव में है।
मंडल-कमंडल और क्षेत्रीय दलों का उभार
भारत में आजादी से पहले भी कई छोटी पार्टियों का गठन हो चुका था, लेकिन 70 के आसपास इसमें बड़े स्तर पर बढ़ोतरी हुई, तमिलनाडु में द्रविड़ की लड़ाई में पहले डीएमके और फिर एआईएडीमके का गठन हुआ, इसी तरह आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने तेलगु देशम नामक पार्टी बनाई। 1977 में इंदिरा के आपातकाल के खिलाफ कई पार्टियों का गठजोड़ भी हुआ और यह सफल भी रहा। 90 के उतरा में मंडल-कमंडल की लड़ाई के दौरान कई पार्टियां पनपी। कांग्रेस से भी टूटकर उत्कल कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एआईएनआर कांग्रेस और वाईएसआर कांग्रेस जैसी छोटी पार्टियां बनी। अलग राज्यों की मांग को लेकर तेलंगाना राष्ट्रसमिति (अब भारत राष्टï्र) और झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियों का भी गठन हुआ।
कई राज्यों में पावरफुल हैं छोटी पार्टियां
कांग्रेस और बीजेपी की सीधी लड़ाई के बावजूद अभी भी देश में छोटी पार्टियों का कई जगहों पर दबदबा है। देश के 5 राज्यों में छोटी पार्टियों की सरकार है, जबकि 4 राज्यों में छोटी पार्टियां गठबंधन के साथ किंग या किंगमेकर की भूमिका में है। महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड में राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों की तुलना में छोटी पार्टियां सरकार के ड्राइविंग सीट पर काबिज है, जबकि हरियाणा में बीजेपी के साथ जेजेपी सहयोगी की भूमिका में है।
छोटी पार्टियों का 37.8 प्रतिशत वोट पर है कब्जा
2019 की आंकड़ों को देखे तो वर्तमान में छोटी पार्टियों के पास 37.8 प्रतिशत वोट है, जो बीजेपी के 37.36 प्रतिशत से अधिक है। 2019 के चुनाव में ग्रामीण इलाकों की 353 सीटों में से छोटी पार्टियों ने 120 सीटों पर जीत हासिल की थी। शहरी और अद्र्धशहरी सीटों पर भी छोटी पार्टियों का परफॉर्मेंस कई राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले शानदार रहा। वोट प्रतिशत के मामले में भी डीएमके, तृणमूल और वाईएसआर कांग्रेस जैसी पार्टियां काफी आगे रही।
महाराष्ट्र में बीजेपी ने बढ़ाया शिवसेना के भीतर संकट
कभी मराठा पॉलिटिक्स में बीजेपी के पांव जमाने में मदद करने वाली शिवसेना अब उसी की वजह से संकट में है। 2014 के बाद महाराष्टï्र में बीजेपी का दायरा लगातार बढ़ता गया। 2014 के चुनाव में बीजेपी और शिवसेना अलग-अलग चुनाव लड़ी। हालांकि, रिजल्ट में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। शिवसेना को बीजेपी ने जूनियर पार्टनर बना लिया, लेकिन 2019 के बाद शिवसेना ने समझौता करने से इनकार कर दिया। बीजेपी के पास इस बार भी जादुई आंकड़ा नहीं था। शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली, लेकिन आंतरिक बगावत की वजह से 2 साल में ही सरकार गिर गई। इतना ही नहीं शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के हाथ से पार्टी की कमान भी फिसल गई।
असम में खत्म हुआ गण परिषद का वजूद
असम में कभी अकेले दम पर सत्ता में आने वाली असम गण परिषद पार्टी अब बीजेपी के साथ गठबंधन में छोटे भाई की भूमिका में है, इसकी वजह भी बीजेपी और कांग्रेस का चुनावी स्ट्राइक रेट है। 1996 में प्रफुल कुमार महंत के नेतृत्व में असम गण परिषद ने राज्य में सरकार बनाई। यह सरकार पूरे 5 साल तक चली। पहली बार राज्य में गैरकांग्रेसी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया था। 2001 में तरुण गोगोई के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने एजीपी को बुरी तरह हरा दिया, इसके बाद गोगोई लगातार 3 बार राज्य के मुख्यमंत्री बने, कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव ने एजीपी में उथल-पुथल मचा दी। एजीपी से बड़े नेता बीजेपी में पलायन करने लगे, कांग्रेस के मुकाबले असम में बीजेपी ने जनाधार बढ़ाना शुरू कर दिया, असम की लड़ाई बीजेपी और कांग्रेस के बीच की हो गई। इस लड़ाई की वजह से एजीपी का दायरा सिकुड़ता गया। वर्तमान में बीजेपी के साथ जूनियर पार्टी के रूप में एजीपी सरकार में शामिल है।
कांग्रेस की मजबूती मतलब छोटे दलों का नुकसान
कांग्रेस या बीजेपी जिन-जिन राज्यों में मजबूत हुई, वहां सबसे अधिक नुकसान छोटी पार्टियों को ही उठाना पड़ा है। इसका उदाहरण असम, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र है। यूपी की सियासत में पिछले 30 साल से बीएसपी और सपा सत्ता की धुरी बनी रही, लेकिन 2017 के बाद बीएसपी का पतन शुरू हो गया, वजह था- बीजेपी का सियासी उभार, 2007 के मुकाबले 2022 में समाजवादी पार्टी की सीटों में ज्यादा बदलाव नहीं आया, लेकिन 15 साल में बीएसपी एक पर पहुंच गई। 2007 में बीएसपी को 206 सीटें जीतकर अकेले दम पर यूपी में सरकार बनाने में सफल हुई थी। इसके बाद 2012 में उसे सपा ने हरा दिया। 2017 के चुनाव में बीजेपी की लहर में सपा के साथ बीएसपी का भी कमजोर हो गई। हालांकि, 2022 में सपा ने वापसी कर ली और 111 सीटें जीतने में कामयाब रही। सपा के मुकाबले बीएसपी इसमें पिछड़ गई। 2022 में बीएसपी को सिर्फ एक सीटों पर जीत मिली। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक पश्चिमी यूपी में बीएसपी का वोटबैंक बीजेपी में शिफ्ट कर गया।