बिहार में वोटिंग प्रतिशत जब-जब गया 60 के पार, बनी RJD-कांग्रेस की सरकार, क्या तेजस्वी के लिए पहला चरण बना शुभ संकेत?

बिहार में पहले चरण की वोटिंग हो चुकी है. इस बार की वोटिंग पिछले कई चुनावों से काफी अलग रही. राज्य के चुनावी इतिहास में सबसे अधिक वोटिंग का रिकॉर्ड भी बना. हालांकि अभी एक ही चरण की वोटिंग पूरी हुई है, लेकिन वोटर्स ने उम्मीद से कहीं ज्यादा उत्साह दिखाया. वोटर्स के उत्साह से चुनाव आयोग भी गदगद है. उसे दूसरे चरण में भी यही फ्लो बने रहने की उम्मीद है. पहले चरण में 18 जिलों की 121 सीटों पर करीब 65 फीसदी वोट ने सियासी हलचल तेज कर दी है. सभी दल इसे अपने-अपने लिए वरदान बता रहे हैं. लेकिन इतिहास बताता है कि 60 फीसदी से अधिक की वोटिंग राष्ट्रीय जनता दल के लिए मुफीद रही है.
राज्य में बंपर वोटिंग ऐसे समय हुई जब पिछले महीने विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) कराया गया जिसको लेकर विपक्षी दलों ने लगातार विरोध जताया. विपक्ष एसआईआर को लेकर चुनाव आयोग पर धांधली और वोटर लिस्ट में गड़बड़ी के आरोप भी लगाता रहा है.
अभी 122 सीटों पर वोटिंग बाकी
पहले चरण में 121 सीटों पर वोटिंग के बाद अब दूसरे चरण में शेष 122 सीटों पर वोट डाले जाने हैं. इसके लिए राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी अभियान को और तेज कर दिए हैं. पहले चरण में महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव के अलावा दोनों उपमुख्यमंत्रियों सम्राट चौधरी और विजय कुमार सिन्हा समेत कई मंत्रियों की किस्मत ईवीएम में कैद हो गई. पहले चरण में कुल 1,314 उम्मीदवार मैदान में उतरे.
बिहार में पिछले 40 सालों में यह चौथी बार है जब राज्य में वोटिंग प्रतिशत 60 फीसदी से अधिक जाने की उम्मीद लग रही है. इन 4 दशकों में राज्य के लोग वोटिंग को लेकर अलग-अलग वजहों से ज्यादा उत्साहित नहीं रहे हैं. यही वजह है कि इस दौरान सिर्फ 3 बार ही 60 से अधिक की वोटिंग दर्ज थी, और अब 2025 के चुनाव में यह रिकॉर्ड बनाने जा रहा है. साल 2000 में आखिरी बार 60 फीसदी से अधिक वोट डाले गए थे.
60% वोटिंग मतलब RJD की वापसी
लेकिन बिहार में वोटिंग के पिछले 4 दशकों के पैटर्न को देखें तो 60 फीसदी से अधिक की वोटिंग का मतलब है कि राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की सत्ता में वापसी. लालू प्रसाद यादव ने जनता दल से अलग होकर साल 1997 में आरजेडी का गठन किया था. पहले लालू ने जनता दल की ओर से राज्य में सरकार चलाई फिर वह आरजेडी के दम पर सत्ता में लौटे. भ्रष्टाचार के मामले में सजायाफ्ता होने के बाद सत्ता की बागडोर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सौंप दी.
गुजरे 40 सालों में 1985 के चुनाव में राज्य में 324 सीटों वाली विधानसभा के लिए 56.27 फीसदी वोट डाले गए. तब कांग्रेस ने बंपर जीत हासिल की और अपने दम पर आखिरी बार राज्य में सरकार बनाई. 1985 में कांग्रेस ने 196 सीटों पर जीत हासिल की जबकि दूसरे नंबर पर रहे लोकदल के खाते में 46 सीटें आईं. इस चुनाव में 234 सीटों पर लड़ने वाले भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) 16 सीटें जीतकर तीसरे स्थान पर रही.
1990 में पहली बार 60 फीसदी वोटिंग
साल 1990 में राज्य ने 60 फीसदी वोटिंग का आंकड़े को पार किया. इस चुनाव में 62.04 फीसदी वोट पड़े. यह वह दौर था जब देश में मंडल कमीशन की लहर चल रही थी. 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को हार मिली और पिछड़े वर्ग की अगुवाई करने वाली जनता दल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने तो बिहार में लालू प्रसाद यादव के हाथ में कमान आई. कांग्रेस 196 से गिरते हुए महज 71 सीट पर सिमट गई थी. बीजेपी 16 से 39 सीट तक पहुंच गई. 122 सीटे जीतने वाली जनता दल ने वामदलों के समर्थन से बहुमत हासिल किया और सरकार बनाई.
राज्य में लालू यादव का जलवा बना हुआ था, वह केंद्र में भी छाए हुए थे. इसका फायदा उनकी पार्टी को 1995 के चुनाव में भी मिला. तब यहां पर 61.79 फीसदी मतदान हुआ था और लालू ने सत्ता में वापसी भी की. इस चुनाव में भी जनता दल लोगों के दिलों पर राज करती दिखी. 324 सीटों वाले विधानसभा में जनता दल ने 264 सीटों पर प्रत्याशी उतारे और उसे 167 सीटों पर जीत हासिल हुई. कांग्रेस अब 29 पर आ गई थी. लालू फिर से राज्य के मुख्यमंत्री बने.
भ्रष्टाचार में फंसे लालू, राबड़ी का उदय
बिहार में अगले चुनाव तक जनता दल में भ्रष्टाचार को लेकर विवाद बढ़ता चला गया. लालू पर चारा घोटाला करने का आरोप लगा और पार्टी में इस वजह से दरार पड़ गई. लिहाजा पार्टी में दो फाड़ हो गया. उन्होंने जनता दल से अलग होकर 1997 में राष्ट्रीय जनता दल पार्टी बनाई. साथ ही अदालती आदेश की वजह से लालू को पद छोड़ना पड़ा और उन्होंने सत्ता पत्नी राबड़ी देवी को सौंप दी. 1997 में राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं.
फरवरी 2000 के चुनाव में राज्य में 62.57 फीसदी वोट पड़े. इस चुनाव में लालू की जगह राबड़ी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनता दल चुनाव मैदान में उतरी. हालांकि इस बार चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. नीतीश कुमार की अगुवाई में एनडीए को सरकार बनाने का मौका मिला, लेकिन महज 7 दिन रहने के बाद उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ गया. फिर राष्ट्रीय जनता दल की नेता राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और राज्य सरकार ने बिहार के बंटवारे और झारखंड के नए राज्य के रूप में अपनी रजामंदी जता दी.
2005 में गिर गया वोटिंग का प्रतिशत
इस तरह से बिहार का बंटवारा होने पर राज्य में विधानसभा की सीटें कम हो गईं और इस वजह से राबड़ी सरकार के लिए जरूरी बहुमत जुटाने में कामयाब हो गईं. खराब कानून-व्यवस्था के साथ-साथ जोड़-तोड़ और भ्रष्टाचार का मामला ऐसा बढ़ा कि बड़ी संख्या में लोग बिहार से पलायन करने लगे.
इसका असर फरवरी 2005 के चुनाव में दिखा. जब यहां पर 3 चरणों में चुनाव कराए गए तो वोटिंग प्रतिशत 60 से एकदम नीचे आते हुए 46.50% तक आ गया. साल 2000 में बिहार के बंटवारे की वजह से यहां पर विधानसभा सीट घटकर 243 तक आ गई. हालांकि कम मतदान होने से लालू की पार्टी को झटका लगा और उसे करारी हार का सामना करना पड़ा. किसी भी दल या गठबंधन को बहुमत हासिल नहीं हुआ. लोक जनशक्ति और कांग्रेस की आरजेडी से बात नहीं बनी. सरकार नहीं बनने पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ गया. यहीं से लालू-राबड़ी का दौर के खत्म होने की शुरुआत हो गई.
हुआ यह कि विधानसभा भंग करनी पड़ गई और करीब 6 महीने के बाद राज्य में फिर से चुनाव कराया गया. इस चुनाव में भी राज्य में बहुत कम वोटिंग हुई. फरवरी की तरह अक्टूबर-नवंबर में भी 45 फीसदी से थोड़ा अधिक मतदान हुआ. हालांकि एनडीए इस बार बहुमत हासिल करने में कामयाब रहा. नीतीश की जेडीयू को 88 सीटें मिलीं तो बीजेपी को 55 सीटें. ऐसे में नीतीश कुमार राज्य के मुख्यमंत्री बने.
नीतीश के दौर में 60 फीसदी वोटिंग नहीं
राज्य में अब नीतीश कुमार के रूप में नए युग की शुरुआत हो गई थी. नीतीश के इस पहले पूर्ण कार्यकाल में सरकार ने काफी काम किया और मुख्यमंत्री सुशासन बाबू के नाम से चर्चित भी हुए. लेकिन वोटर्स की बेरुखी चुनाव को लेकर बनी रही और यही वजह है कि 5 साल बाद जब अक्टूबर-नवंबर 2010 में राज्य में चुनाव कराए गए तो वोटिंग का आंकड़ा 50 के पार जरूर गया, लेकिन अब भी काफी कम वोट पड़े. चुनाव में 52.73% ही वोट डाले गए. नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बने.
एक दशक तक मुख्यमंत्री के रूप में गुजारने के बाद नीतीश कुमार के बिहार में काफी बदलाव आ गए थे. 2015 के चुनाव से पहले केंद्र की सियासत में नरेंद्र मोदी का दौर शुरू हो गया था, जिस वजह से नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो गए. वह महागठबंधन में आरजेडी के साथ मैदान में उतरे. इस विधानसभा चुनाव में तो वोटिंग का ग्राफ जरूर बढ़ा लेकिन 60 के आंकड़े से दूर ही रहा. पिछले चुनाव से 4.18 की वृद्धि के साथ 56.91% वोट पड़े. आरजेडी भले ही राज्य में सबसे बड़ी सिंगल पार्टी बनी, लेकिन 71 सीट पाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश ही बने. नीतीश ने गठबंधन बदलते हुए अपने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया.
तो क्या तेजस्वी के लिए ये शुभ संकेत!
साल 2020 के चुनाव में नीतीश कुमार फिर से एनडीए के साथ चुनाव लड़ने मैदान में उतरे. इस बार के चुनाव में 0.38% वृद्धि के साथ 57.29 वोटिंग हुई. बहुमत एनडीए के खाते में आया. आरजेडी 75 सीट लेकर सिंगल पार्टी बनी. जबकि नीतीश की पार्टी को चुनाव में झटका लगा और 28 सीटों के नुकसान के साथ वह तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. बीजेपी को 74 सीटें आईं. लेकिन उतार-चढ़ाव के साथ नीतीश ने यह कार्यकाल पूरा किया.
इस तरह से देखा जाए तो राज्य में पिछले 40 सालों में जब-जब 60 फीसदी से अधिक वोट पड़े तब-तब आरजेडी (पहले जनता दल) सत्ता में आने में कामयाब रही. अब इस बार भी अगर यही ट्रेंड रहा तो तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा हो जाएगा. और नीतीश का 2 दशक पुराना दौर इतिहास बन जाएगा. हालांकि अभी एक दौर की वोटिंग और फिर मतगणना होना बाकी है.



