प्रकृति संरक्षण एवं राष्ट्र संवर्धन का महापर्व दीपावली
१ डा. विवेकानंद तिवारी
हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मां स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। हिन्दू धर्म का प्रकृति के साथ कितना गहरा रिश्ता है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही अग्नि की स्तुति में रचा गया है। वैदिक वाङमय में प्रकृति के प्रत्येक अवयव के संरक्षण और संवर्धन के निर्देश मिलते हैं। वर्षा ऋतु एवं कृषि कार्य से प्रकृति की हुई क्षति की भरपाई हेतु शुद्ध घी के दीपक जलाने की व्यवस्था दीपावली में है जिससे वातावरण शुद्ध हो, समय से वर्षा हो, कृषि की उपज ठीक हो और लोग खुशहाल रहें। प्राचीन काल में यह मुख्य रूप से सावनी फसल के तैयार होने की खुशी में मनाया जाता था और इसका नाम शारदीय नव शस्येष्टि था। वर्षा में जल की अधिकता से घरों और नगरों के वातावरण में जो विकृति आ जाती है उसके चलते मनुष्यों के स्वास्थ्य पर जो प्रभाव पड़ता है उसके लिए विशेष रूप से स्वच्छता की व्यवस्था करना भी इस त्यौहार का उद्देश्य है इसके लिए दीपावली से कई दिन पूर्व ही घरों की सफाई आदि होने लगती है। दीपावली के पहले की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी कहने का भी यही तात्पर्य है कि उस दिन तक हम अपने आस पास की सब गंदगी को दूर करके लक्ष्मी के स्वागत को तैयार हो जाये। दीपावली राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था का दिग्दर्शन करने और उसकी प्रगति के लिए नवीन योजना बनाने का समय है। इसी भावना से इस विश्वास का विस्तार किया गया है कि दीपावली को धन की अधिष्ठात्री देवी मां लक्ष्मी भ्रमण करने को निकलती हैं जिस भवन या निवास स्थान को सबसे सुंदर आकर्षक ढंग से सजा देखती है, उसी घर को वर्ष भर के लिए अपना आवास बना लेती है। पौराणिक आख्यान के मुताबिक इसी दिन भगवान राम रावण का वध कर अयोध्या लौटे थे। इस खुशी में अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर अपनी खुशी जाहिर की थी।