दीपावली के बाद यूपी में पॉलिटिक्ल क्वालिटी इंडेक्स धुआं-धुआं…

- कल्याण सिंह की राह चले डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य!
- 10 करोड़ के रिकवरी नोटिस से यूपी की राजनीति में बवंडर के संकेत
- अब रोके नहीं रुक रहे केशव, शायद इसलिए बिहार की दी गयी जिम्मेदारी
4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
लखनऊ। यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में लंबे समय से राजनीतिक मनमुटाव चल रहा है। केशव की सीएम न बन पाने की कसक समय-समय पर जाहिर हो जाती है। एक बार फिर रिकवरी नोटिस के बहाने डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या ने एक ऐसा राजनीतिक तीर छोड़ा जो सही निशाने पर लगा।
हाल ही में मौर्य के मंत्रालय ने सेवानिवृत्त मुख्य सचिव पूर्व आईएएस मनोज कुमार पर दस करोड़ रुपये की वसूली का नोटिस जारी किया था जिसे मुख्यमंत्री योगी ने रद्द करवा दिया। मामला खाद्य प्रसंस्करण नीति से जुड़ा था पर असल में यह सत्ता की रस्साकशी का संकेत माना जा रहा है।
दीपोत्सव में लखनऊ में बैठे रहे डिप्टी सीएम
उत्तर प्रदेश में भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार बनने के बाद से हर साल अयोध्या में बड़े पैमाने पर दीपोत्सव का आयोजन होता है। दीपावली से पहले लाखों दीयों से सरयू का किनारा रोशन होता है और हर साल खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने दोनों उपमुख्यमंत्रियों के साथ इस कार्यक्रम के गवाह बनते हैं। लेकिन इस बार कुछ अलग हुआ। हर साल की तरह इस बार भी 19 अक्टूबर 2025 को राम नगरी में भव्य दीपोत्सव का आयोजन हुआ। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसमें आए भी लेकिन तमाम गणमान्य उपस्थितियों पर ‘दो अनुपस्थितियां’ भारी पड़ गईं। उत्तर प्रदेश की सरकार में दो डिप्टी सीएम हैं। केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक दोनों ही 19 अक्टूबर को अपनी सरकार के इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम में नहीं आए थे। दोनों की ही फोटो दीपोत्सव का न्योता देने वाले स्थानीय अखबारों के पहले पेज पर छपे विज्ञापन में नहीं दिखी। इस फोटो में दिखे सिर्फ योगी। उनके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, फोटो न सही विज्ञापन में नाम तो होता। वह भी नहीं था ‘गरिमामयी उपस्थिति’ में योगी के साथ राज्यपाल आनंदीबेन पटेल थीं। पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह का नाम था। कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही का भी नाम था लेकिन दोनों डिप्टी सीएम ही थे, विज्ञापन पर जिनका ‘नामोनिशानÓ नहीं। निमंत्रण पर नाम नहीं था तो दोनों ही डिप्टी सीएम आए भी नहीं और सवाल उठने लगा कि क्या यूपी भाजपा में सब ठीक है इस पूरी घटना ने एक बार फिर से यूपी भाजपा में दरार, नौकरशाही और भाजपा विधायकों के बीच मतभेद की चर्चाओं को हवा दे दी।
नया नहीं टकराव
पार्टी के भीतर यह टकराव नया नहीं है। मौर्य को 2017 में मुख्यमंत्री न बनाए जाने की कसक अब भी बनी हुई है। सीएम योगी हिंदुत्व ब्रांड के अगड़े चेहरा हैं तो मौर्य पिछड़े वर्ग की सियासत का आधार। यह खिंचाव अब खुलकर दिखने लगा है। पार्टी के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि भाजपा आज उसी गलियारे में लौट आई है जहां कभी कल्याण सिंह और उमा भारती की जोड़ी बिखरी थी।
सुलग रहा है मनमुटाव
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि यूपी में भाजपा की ताकत हमेशा सामाजिक संतुलन पर टिकी रही है। लेकिन सीएम योगी की सख्त प्रशासनिक शैली और मौर्य की उपेक्षा से यह संतुलन डगमगाने लगा है। 2024 के चुनाव में भाजपा की सीटें घटीं और दिल्ली नेतृत्व अब मौर्य जैसे ओबीसी नेताओं को फिर से केंद्र में लाने की कोशिश में है। यह स्थिति योगी के लिए चुनौतीपूर्ण है जो खुद को यूपी की राजनीति का निर्विवाद चेहरा मानते हैं। भाजपा के लिए मौजूदा समय वैसा ही दिखायी दे रहा है जैसा 1999 के आसपास था। तब कल्याण सिंह और उमा भारती सरीखे नेताओं का अहंकार और सियासत केन्द्रीय नेतृत्तव से टकरा रहा था। तब भी कल्याण सिंह और उमा भारती के टकराव ने पार्टी को कमजोर कर दिया था। इस बार फर्क सिर्फ इतना है कि तब संघर्ष बाहर दिखा था आज अंदर ही अंदर सुलग रहा है।
सावधान रहने की सलाह
सूत्र बताते हैं कि दिल्ली आलाकमान ने दोनों नेताओं को सावधान रहने की हिदायत दी है लेकिन यह भी साफ है कि अगड़ा-पिछड़ा समीकरण अब पार्टी के भीतर फिर से जिंदा हो गया है। अगर भाजपा इसे संभाल नहीं पाई तो आने वाले विधानसभा चुनावों में यह डबल इंजन सरकार की सबसे बड़ी परीक्षा साबित हो सकती है।
केशव को बिहार भेजना सम्मान या रणनीतिक निर्वासन?
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को सह-प्रभारी बनाया गया है। सतह पर यह जिम्मेदारी सम्मानजनक दिखती है। एक बड़े राज्य के उपमुख्यमंत्री को चुनावी मोर्चे पर लगाया जाना विश्वास का प्रतीक कहा जा सकता है। मगर राजनीति में सतह ही सब कुछ नहीं होती इसके नीचे एक पूरा गणित और संकेत छिपा होता है। दरअसल केशव प्रसाद मौर्य की यह नियुक्ति केवल संगठनात्मक भूमिका नहीं है बल्कि भाजपा के भीतर सत्ता-संतुलन और जातीय प्रबंधन का दांव भी है। पिछले दो वर्षों से यूपी की राजनीति में मौर्य की भूमिका सीमित होती जा रही है। योगी आदित्यनाथ के दबदबे में उनका प्रशासनिक प्रभाव लगभग प्रतीकात्मक रह गया है। कई बार केशव ने सार्वजनिक तौर पर भी पिछड़ों के सम्मान और दलित प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दों को उछालकर यह जताने की कोशिश की कि वे केवल एक मौन सहयोगी नहीं हैं। परंतु पार्टी नेतृत्व ने हमेशा उन्हें अनुशासन और मर्यादा की सीमा में रहने का संदेश दिया। ऐसे में उन्हें बिहार चुनाव में भेजना भाजपा की दोहरी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। एक तरफ मौर्य को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर संतुष्ट दिखाना और दूसरी ओर यूपी की सत्ता-संरचना से थोड़ी दूरी बनाना। कहने को यह प्रमोशन है लेकिन भीतर से यह संतुलन की इंजीनियरिंग लगती है।




