कराह रहा एक पहाड़ सुनिए उसकी आह !

  • जंगल और पहाड़ खत्म हो जायेंगे तो आप कहां जायेंगे
  • अरावली को बचाने के अभियान में हो सबकी भागीदारी
  • आम जन से लेकर विपक्ष तक सेव अरावली के समर्थन में
  • केंद्र से लोगों ने लगाई गुहार, बोली जनता- राजनीति न करे सरकार
  • सपा प्रमुख , कांग्रेस नेता गहलोत ने संभाला मोर्चा

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। विकास केनाम पर अगर अनाप-शनाप तरीकोंसे हम पहाड़ों व जंगलों को कांटेंगे तो ये विक ास एक दिन विनाश बन जाएगा। इसका खतरनाक रू प हम बरसात केदिनों में देखते हैं जब भूस्खलन से उत्तराखंड से लकर हिमाचल तक में भारी तबाही मचती है। आजकल दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा व गुजरात में फैले अरावली पर्वत श्रृंखला पर आफत आई हुई है, अवैध खनन से पहाड़ धीर-धीरे खत्म हो रहे है। सुप्रीम कोर्ट, आम जनता से लेकर विपक्ष की कई पार्टियों ने सरकार से पूरे क्षैत्र में खनन पर रोक लगाने की मांग की है। जबकि भाजपा की एनडीए सरकार विकास के नाम पर कुछ क्षेत्रों में खनन करवाना चाहती है। बता दें कि अरवाली रेजं एक दिवार की तरह काम करती है जो रेगिस्तान की गर्म हवाओं को रोकती है साथ ही पर्यावरण को संरक्षित करती है। वहीं राजधानी दिल्ली समेत अपने आठ सौ किमी से ज्यादा क्षेत्र में फले इलाके के लोगों को पानी भी मुहैया कराती है। उधर प्रमुख ने कहा अरावली को बचाना मतलब ख़ुद को बचाना है। अगर अरावली का विनाश नहीं रोका गया तो भाजपा की अवैध खनन को वैध बनाने की साजिश और जमीन की बेइंतहा भूख देश की राजधानी को दुनिया की ‘प्रदूषण राजधानी’ बना देगी और लोग दिल्ली छोडऩे को बाध्य हो जाएंगे। इसीलिए आइए हम सब मिलकर अरावली बचाएं और भाजपा की गंदी राजनीति को जनता और जनमत की ताकत से हराएं! उनका ये संदेश सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है।

31 पहाडिय़ां पहले ही गायब

एफएसआई का कहना है कि अरावली की 31 पहाडिय़ां पहले ही गायब हो चुकी है। यहां पहले से ही माफिया काम कर रहा है और सिस्टम आंख बंद कर चुका है। अवैध खनन वर्षों से हो रहे है ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब, नया कानून उसे वैध करने जैसा। मामला उस वक्त और भी गंभीर हो जाता है जब राजस्थान सरकार एक तरफ 250 करोड़ अरावली विकास के लिए जारी कर चुकी है, वहीं दूसरी तरफ कैची थमाती है।

अरावली बचेगी तो ही दिल्ली बचेगी : अखिलेश यादव

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने दिल्लीवासियों को अरावली पहाडिय़ों को बचाने का संदेश दिया। उन्होंने कहा कि अरावली को बचाना कोई विकल्प नहीं बल्कि संकल्प होना चाहिए।एक्स पर लिखे गए एक लंबे संदेश में उन्होंने कहा कि बची रहे जो ‘अरावली’ तो दिल्ली रहे हरीभरी! उन्होंने कहा कि अरावली को बचाना कोई विकल्प नहीं है बल्कि ये तो संकल्प होना चाहिए। मत भूलिए कि अरावली बचेगी तो ही एनसीआर बचेगा। अरावली को बचाना अपरिहार्य है क्योंकि यह दिल्ली और एनसीआर के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच है या कहें क़ुदरती ढाल है। अरावली ही दिल्ली के ओझल हो चुके तारों को फिर से दिखा सकती है, पर्यावरण को बचा सकती है। अरावली पर्वतमाला ही दिल्ली के वायु प्रदूषण को कम करती है और बारिश-पानी में अहम भूमिका निभाती है। अरावली से ही एनसीआर की जैव विविधता बची हुई है। जो वेटलैंड गायब होते चले जा रहे हैं, उन्हें यही बचा सकती है। गुम हो रहे परिंदों को वापस बुला सकती है।अरावली से ही एनसीआर का तापमान नियंत्रित होता है। इसके अलावा अरावली से एक भावात्मक लगाव भी है जो दिल्ली की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है। अरावली को बचाना, दिल्ली के भविष्य को बचाना है, नहीं तो एक-एक साँस लेने के लिए संघर्ष कर रहे दिल्लीवासी स्मॉग जैसे जानलेवा हालात से कभी बाहर नहीं आ पाएंगे। आज एनसीआर के बुज़ुर्ग, बीमार और बच्चों पर प्रदूषण का सबसे खराब और ख़तरनाक असर पड़ रहा है। यहाँ के विश्व प्रसिद्ध हॉस्पिटल और मेडिकल सर्विस सेक्टर तक बुरी तरह प्रभावित हुआ है, जो लोग बीमारी ठीक करने दिल्ली आते थे, वो अब और बीमार होने नहीं आ रहे हैं।

जगह-जगह विरोध

निर्दलीय विधायक रविंद्र सिंह भाटी ने सीधे प्रधानमंत्री को पत्र लिख दिया है, जगह-जगह विरोध हो रहा है, लेकिन साथ ही एक सवाल भी उठ रहा है कि ये आवाज पर्यावरण की चिंता है, या चुनावी मौसम का नया मुद्दा? ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि जहां खनन माफिया, रियल एस्टेट लॉबी और सिस्टम का संगम हो वहां पर्यावरण सिर्फ फाइलों में बचता है, जमीन पर नहीं।

अरावली की परिभाषा को लेकर विवाद

अरावली को लेकर जो परिभाषा बनी है, उसे लेकर जबरदस्त विवाद छिड़ा हुआ है और आरोप-प्रत्यारोपों के दौर चल रहे हैं। भाजपा आरोप लगा रही है कि पूर्व सीएम अशोक गहलोत जो ‘सेव अरावली’ कैंपेन चला रहे हैं, उन्हीं के कार्यकाल में अरावली 100 मीटर की परिभाषा की सिफारिश की गई थी।

खतरे में अरावली 90 प्रतिशत पहाडिय़ां सुरक्षा से बाहर

राजस्थान की शान कहे जाने वाले अरावली पर संकट के बादल छाये हुए हैं, ये कोई अचानक उठा तूफान नहीं है, बल्कि खनन माफिया, कानून, अफसरशाही, और राजनीति, सब मिलकर वर्षों से इसकी नींव खोद रहे हैं। अब सुप्रीम कोर्ट की नई परिभाषा ने इसे और बड़ा झटका दे दिया है। न्यायालय के अनुसार जो पहाडिय़ां 100 मीटर से कम ऊंची हैं तो उन्हें अरावली रेंज नहीं माना जाएगा। यानी, राजस्थान की लगभग 90 फीसदी पहाडिय़ां कागजों से गायब हो सकती हैं. सवाल ये है कि सदियों से भुलजल, हवा और पर्यावरण का संतुलन बचाने वाली क्या अरावली की लड़ाई, कानून की है, राजनीति की है या हमारी सांसों की? या फिर हमारा पानी बचाने की? अरावली दुनिया की सबसे पुरानी पर्वतमालाओं में एक है।

अरावली बचाओ आंदोलन अब सिर्फ एक मांग नहीं मुकाबला है

पर असली सवाल सरकार क्या करेगी? या न्यायालय क्या करेगा? यह नहीं है बल्कि असली सवाल यही है कि हम क्या करेंगे? क्यों? क्योंकि पानी हमारा है, हवा हमारी है। रेगिस्तान का फैलाव हमारी जमीन पर होगा। अरावली कटेगी तो किसान मरेगा। शहरों में पानी महंगा होगा। यानी आज का यह पर्यावरण का मुद्दा जनजीवन का मुद्दा बन जाएगा। शायद यही वजह है कि अरावली बचाओ आंदोलन अब सिर्फ एक मांग नहीं मुकाबला है। विकास बनाम विनाश और मुनाफे बनाम पर्यावरण का। कुल मिलाकर अरावली सिर्फ पहाड़ नहीं राजस्थान की रीढ़ है और रीढ़ पर चोट पूरे शरीर को कमजोर करती है।

100 मीटर के मानदंड को लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही हे : राजेंद्र राठौड़

भाजपा के वरिष्ठ नेता राजेंद्र राठौड़ ने कहा कि 100 मीटर के मानदंड को लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं। यह मानदंड केवल ऊंचाई तक सीमित नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकृत परिभाषा के अनुसार 100 मीटर या उससे ऊंची पहाडिय़ों, उनकी ढलानों और दो पहाडय़िों के बीच 500 मीटर के क्षेत्र में आने वाली सभी भू-आकृतियां खनन पट्टे से पूरी तरह बाहर रखी गई हैं, चाहे उनकी ऊंचाई कुछ भी हो। उन्होंने इसे पहले से अधिक सख्त और वैज्ञानिक व्यवस्था बताया। सर्वे ऑफ इंडिया की कमेटी की परिभाषा लागू होने पर अरावली क्षेत्र में खनन बढऩे के बजाय और अधिक सख्ती आएगी।

किसके दबाव में बदली जा रही है 100 मीटर की परिभाषा : गहलोत

पूर्व सीएम अशोक गहलोत का कहना है कि उनकी सरकार ने रोजगार के दृष्टिकोण से 100 मीटर की परिभाषा की सिफारिश की थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था। हमारी सरकार ने न्यायपालिका के आदेश का पूर्ण सम्मान करते हुए इसे स्वीकार किया और फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया से मैपिंग करवाई। सवाल यह है कि जो परिभाषा सुप्रीम कोर्ट में 14 साल पहले 2010 में ही खारिज हो चुकी थी, उसी परिभाषा का 2024 में राजस्थान की मौजूदा भाजपा सरकार ने समर्थन करते हुए केंद्र सरकार की समिति से सिफारिश क्यों की? क्या यह किसी का दबाव था या इसके पीछे कोई बड़ा खेल है?

उत्तराखंड में वन भूमि पर अवैध कब्जे पर सुप्रीम कोर्ट नाराज

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड में वन भूमि पर अतिक्रमण और अवैध कब्जे पर नाराजगी जताते हुए स्वत: संज्ञान लिया है। कोर्ट ने वन भूमि पर स्टेमेटिक तौर पर अवैध कब्जों पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि सबसे ज्यादा चौकाने वाली बात तो ये हैं कि उत्तराखंड राज्य और उसके अधिकारी मूक दर्शक बने हुए हैं।

Related Articles

Back to top button