देह उपन्यास में स्त्री के दर्द को उकेरा है अचला नागर ने

नई दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में साहित्य मर्मज्ञों ने उपन्यास पर की चर्चा

संदीपन के कविता संग्रह साथ ना दो, पर याद तो करना, का हुआ लोकार्पण

गीताश्री
नई दिल्ली। सुप्रसिद्ध लेखिका अचला नागर के रंगकर्मी-कवि पुत्र संदीपन की बड़ी इच्छा थी, शायद अंतिम इच्छा भी कि देह उपन्यास ( शिवना प्रकाशन) का आयोजन दिल्ली में हो। पिछले दिनों उनकी इच्छा पूरी हुई। उनकी पुत्रवधू सविता नागर की कोशिशें रंग लाईं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली के सौजन्य से एक भव्य समारोह में दो कार्यक्रम एक साथ हुए। उनके दिवंगत पुत्र संदीपन विमल कांत नागर का कविता संग्रह साथ ना दो, पर याद तो करना (रूद्रादित्य प्रकाशन) का लोकार्पण हुआ, साथ ही उनकी कविताओं का भव्य मंचन भी। रंगमंच के कलाकारों ने कविताओं का नाट्य मंचन करके समां बांध दिया। एकदम अलग और अनूठी परिकल्पना थी।
मेरे बगल में बैठी अचला जी को रोते देख कर कलेजा कांप रहा था। मैं बार -बार उनकी हथेलियां दबा देती। कुछ देर थामे रही। मंच पर संचालन कर रही सविता जी ने जाने किस तरह खुद को नियंत्रण में रखा। अपने पुत्र के शोक से वे उबर नहीं पाई हैं। अचला जी के पास बातें करने को बहुत है, इतना काम किया है, मगर वे संदीपन पर अपने बाउजी अमृत लाल नागर के बारे में ही बात करना पसंद करती हैं। मंच पर भी अपने बाउजी के किस्से, उस दौर की बातें, उनकी नसीहतें सुनाती रहीं। उन्होंने कहा भी, मैं तो बाउजी के बारे में बात करना चाहती हूं जबकि मैं उनकी किताब पर, उनकी जीवन यात्रा , लेखन यात्रा पर बात करना चाहती थी। उनके पास इतनी स्मृतियां हैं, इतने संस्मरण कि वक्त हमेशा कम पड़ेगा, जब भी बात करें। पूरे माहौल में भावुकता हावी थी। आयोजन के दूसरे भाग में अचला नागर के उपन्यास पर बातचीत थी। उनका उपन्यास देह शिवना प्रकाशन से छपा है।
उपन्यास का नाम देह क्यों ? दरअसल यह एक शब्द समूची बिडंबना का बयान है। हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि स्त्री के दुख इतने गंभीर होते हैं उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं कह सकते। जितनी भी सभ्यताएं हुईं, उनकी खोह से स्त्रियों का दुख झांकने लगता है। देह है तो दंड है, देह धरे को दंड…देह ही देश…एक स्त्री का मुल्क…सारी लड़ाइयां उसे हासिल करने के लिए…सारे खाप, तालिबान…परदा प्रथा…रस्म रिवाद…धर्म के पाखंड…एक शब्द देह काफी है, पर्याप्त है, मुकम्मल है…स्त्री केवल देह ही तो है…पैट्रियार्की के लिए स्त्री देह एक कोमोडिटी की तरह है…इतिहास में उदाहरण भरे पड़े हैं, हम उधर जाएंगे तो बहुत डरावने प्रसंग आएंगे। हम फिलहाल देह उपन्यास तक केंद्रित रहते हैं जहां स्त्री के दुख के केंद्र में उसकी देह है…उपन्यास का कैनवस बहुत बड़ा है जिसमें अनके देह रेंगती नजर आती है…वो सबकी सब स्त्रियां हैं…जिन्हें अचला जी बिना मन वाली स्त्रियां कहती हैं। एक संवेदनशील पुरुष संजय की निगाह से स्त्रियों के दुख-दर्द की बातें की गई हैं। रेड लाइट एरिया में रहने वाली स्त्रियों के मन कहा होते हैं…वे सिर्फ देह होती हैं… कमोडिटी…खरीद-फरोख्त होती देह…मन कहीं नहीं। इन स्त्रियों के गहनता से दुख-दर्द को उकेरा है अचला जी ने…अचला जी उनके बहाने पूरे भारतीय समाज पर बात करती हैं। एक प्रसंग में लिखती हैं…नायक संजय सोच रहा है…क्या इस धंधे में ये औरतें स्वेच्छा से उतरती होंगी या उन्हें जबरन धकेला जाता होगा। उसके बाद रोज-रोज बिकना और कमाना, फिर मन बचता ही कहां होगा। उनके पास। बस देह ही देह….! उस रात संजय बहुत रोया। जब कथा नायक रोते हैं तो उसके पहले लेखक रोते हैं। अचला जी की चर्चित फिल्म आखिर क्यों में एक संवाद है। फिल्म की नायिका उपन्यासकार हैं, उनके बारे में एक प्रकाशन जगत का बंदा कहता है- वे दर्द को ऐसा खोट कर निकालती हैं, जैसे स्याही की जगह आंसू को इस्तेमाल करती हैं। अचला जी की रचनाओं में दर्द का साम्राज्य पसरा हुआ है. क्योंकि वे समूचे समाज को साथ लेकर कथा बुनती हैं। उनके यहां एक नहीं, अनेक का दर्द बिलखता है। हाल ही में एक चर्चित फिल्म गंगूबाई याद करिए…जिसे बहुत सराहना मिली है कि भंसाली ने बड़े परदे पर महाकाव्य रच दिया है। उसमें एक गंगू है…यहां अनेक गंगू है…। उससे बड़ा महाकाव्य…। अचला जी इस समस्या के बहाने भारतीय समाज के तानेबाने को भी रेखांकित करती चलती हैं। वे जानती हैं कि भारतीय समाज का एक चरित्र है, एक बड़ा वर्ग जो पारंपरिक ताने-बाने के बीच ही खुद को महफूज पाता है।

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