चैतार वसावा के सवालों में उलझी बीजेपी, गुजरात में होगा बड़ा बदलाव
विसावदर, नर्मदा, डांग और भरूच… ये इलाके कागज़ों में हमेशा से विकास का मॉडल कहलाते रहे है, लेकिन ज़मीन पर खड़े होकर अगर आप किसी भी गाँव की तरफ नज़र डालें, तो तस्वीर बिल्कुल उलटी दिखाई देती है।

4पीएम न्यूज नेटवर्क: विसावदर, नर्मदा, डांग और भरूच… ये इलाके कागज़ों में हमेशा से विकास का मॉडल कहलाते रहे है, लेकिन ज़मीन पर खड़े होकर अगर आप किसी भी गाँव की तरफ नज़र डालें, तो तस्वीर बिल्कुल उलटी दिखाई देती है।
यहाँ के लोगों की आँखों में जो उम्मीद है, वह आज भी सड़क, पानी, बिजली, स्कूल और अस्पताल जैसी ज़रूरी ज़रूरतों के पूरे होने का इंतज़ार कर रही है। सरकार के विज्ञापनों में चमकती तस्वीरें दिखती हैं, लेकिन इन इलाकों के घरों की दीवारें अब भी उसी पुराने दर्द को ढो रही हैं हमारे यहाँ विकास आया ही नहीं।
इन्हीं आवाज़ों को उठाने के लिए चैतार वसावा लगातार इन चारों क्षेत्रों में घूम रहे हैं। वह कहते हैं कि “विकास सिर्फ शहरों में दिखता है, और गुजरात मॉडल सिर्फ विज्ञापनों में चमकता है। आदिवासी बेल्ट आज भी सबसे पीछे खड़ी है। उनकी बातों में गुस्सा भी है, और हक़ की लड़ाई भी। क्योंकि इस पूरे इलाके की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि उन्हें बार-बार बताया जाता है कि विकास हो रहा है, जबकि रोज़मर्रा की ज़िंदगी इससे बिल्कुल अलग कहानी सुनाती है।
विसावदर की गलियों से शुरुआत करें तो यहाँ सबसे बड़ी समस्या टूटे रास्ते और पानी की किल्लत है। बरसात में सड़कें दलदल बन जाती हैं और गर्मियों में पानी की लाइनें सूख जाती हैं। गाँव वालों का कहना है कि नेताओं के आने पर सड़कें साफ़ की जाती हैं, लेकिन महीने भर बाद वापस वही हालत हो जाती है। “विकास” शब्द सुनते-सुनते लोग थक गए हैं, लेकिन हालात वही के वही हैं।
नर्मदा जिले में समस्या और भी गहरी है। यहाँ जंगल के बीच बसे गाँव आज भी अपने बुनियादी अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। फॉरेस्ट राइट्स एक्ट के तहत जमीन का पट्टा आज भी कई परिवारों को नहीं मिला। सरकार कहती है कि काम हो गया है, लेकिन आदिवासी परिवार कहते हैं कि उनका नाम तो सूची में आता ही नहीं। चैतार वसावा कहते हैं कि अगर कोई योजना सही से लागू होती, तो इतने लोगों को सालों तक दफ्तरों के चक्कर न लगाने पड़ते। नर्मदा के लोग अपने ही जंगल में पराए जैसे महसूस करते हैं।
डांग का इलाका तो “उपेक्षा” का सबसे बड़ा उदाहरण बन चुका है। यहाँ के कई गाँवों में स्कूल तो बने हैं, लेकिन शिक्षक नहीं हैं। अस्पताल हैं, लेकिन डॉक्टर नहीं। सड़कें हैं, लेकिन पूरी नहीं। बिजली आती है, लेकिन चलती नहीं। लोग सवाल करते हैं कि जब गुजरात को विकास मॉडल कहा जाता है, तो डांग जैसे जिले आज भी बुनियादी सुविधाओं से क्यों वंचित हैं। बच्चे पढ़ना चाहें तो स्कूल दूर है, बीमार पड़े तो अस्पताल तक पहुँचने में आधा दिन लग जाता है। गर्भवती महिलाओं को समय पर एम्बुलेंस न मिल पाने की शिकायतें लगातार बढ़ रही हैं। विकास के दावों के बीच इन परिवारों की पीड़ा कभी किसी रिपोर्ट का हिस्सा नहीं बन पाती।
भरूच में हालात थोड़े बेहतर जरूर हैं, लेकिन गाँवों की तस्वीर वहीं की वहीं है। उद्योग बढ़े, लेकिन स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं मिला। कृषि इस इलाके की रीढ़ है, लेकिन सिंचाई सुविधाएँ लगातार कमजोर हैं। फसल बीमा का पैसा समय पर नहीं मिलता और किसान कहते हैं कि किसान की मदद सिर्फ चुनाव के समय होती है।” चैतार वसावा जब भी इस इलाके में जाते हैं, किसान सीधे शिकायतों की फाइलें उनके हाथ में थमा देते हैं। क्योंकि उन्हें यकीन है कि उनकी आवाज़ कम से कम कहीं तो सुनी जाएगी।
चैतार वसावा लगातार सरकार से यह पूछते हैं कि विकास कहाँ है?वह किसी एक रोड या एक पुल को दिखाकर इसे उपलब्धि बताने को “राजनीति की चमक” कहते हैं। उनका तर्क साफ है विकास तब माना जाता है जब एक पूरे क्षेत्र की तस्वीर बदलती है, सिर्फ कुछ गाँवों में फोटो खिंचवाने से नहीं। उनके मुताबिक अगर सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाती, तो आदिवासी बेल्ट में इतना गुस्सा और निराशा नहीं दिखाई देती।
इन चारों जिलों में घूमने के बाद एक बात साफ दिखाई देती है कि लोग किसी पार्टी से नहीं लड़ रहे, वे समय से लड़ रहे हैं। वे अपने बच्चों के भविष्य के लिए लड़ रहे हैं। कोई गाँव ऐसा नहीं मिला जहाँ लोगों ने कहा हो कि काम पूरा हो चुका है। जब सड़क पूरी नहीं, पानी की लाइन टूटी है, स्कूलों में शिक्षक की कमी है, और अस्पतालों में दवाइयाँ नहीं हैं तब गुजरात मॉडल” का सवाल खुद-ब-खुद उठ खड़ा होता है।
सरकार कहती है कि पैसा खर्च हुआ, योजनाएँ लागू हुईं, काम होते जा रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि अगर काम हो रहा होता तो विसावदर, नर्मदा, डांग और भरूच के लोग आज भी सबसे पीछे क्यों खड़े हैं? चैतार वसावा कहते हैं कि सरकार विज्ञापन पर करोड़ों खर्च करती है, लेकिन आदिवासी के घर में पानी की टंकी आज भी खाली है।” उनकी यह बात इन इलाकों की असल हकीकत को बहुत सरल शब्दों में बयान कर देती है।
इन जिलों के लोगों में एक बात समान है उन्हें लगता है कि उन्हें जानबूझकर पीछे छोड़ दिया गया। शहरों की चकाचौंध की कीमत वे खुद चुका रहे हैं। विकास के वादे उनके लिए सिर्फ चुनावी भाषण बनकर रह गए हैं। आदिवासी समाज को लगता है कि उनके संघर्ष को कोई गंभीरता से नहीं सुनता, इसलिए वे वसावा को अपनी आवाज़ मानते हैं।
चैतार वसावा का यह कहना कि “विकास तभी सच है जब वह हर घर तक पहुँचे इन इलाकों में अब एक आंदोलन की तरह फैल गया है। लोग उन्हें अपने नेता से ज़्यादा अपनी लड़ाई का साथी मानने लगे हैं। वह हर गाँव में जाकर पूछते हैं क्या बदला? और हर बार जवाब मिलता है कुछ नहीं। यही जवाब गुजरात मॉडल का सबसे बड़ा सवाल बन चुका है।
वंही विकास और उपेक्षा के बीच का यह फर्क अब इतना बड़ा हो चुका है कि इसे छिपाया नहीं जा सकता। विसावदर, नर्मदा, डांग और भरूच आज भी अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। और चैतार वसावा, इस लड़ाई की आवाज़ बनकर सरकार से लगातार पूछ रहे हैं कि आखिर गुजरात मॉडल ज़मीन पर कब उतरेगा?



