Gaza Issue पर प्रदर्शन करने वालों के लिए Bombay HC की टिप्पणी बनी नजीर, CPM की याचिका खारिज करते हुए कोर्ट बोला- भारत के

बंबई हाईकोर्ट द्वारा माकपा (CPI-M) की याचिका को खारिज करते हुए की गई सख्त टिप्पणी उन सभी के लिए नजीर है जो देश में बार-बार गाज़ा या फिलिस्तीन से जुड़े मुद्दों पर विरोध प्रदर्शन आयोजित करते हैं या सार्वजनिक मंचों पर फिलिस्तीन के झंडे लहराते हैं। हम आपको बता दें कि अदालत ने स्पष्ट किया है कि भारत के नागरिकों और राजनीतिक दलों को पहले अपने देश के आंतरिक मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए।
अदालत ने सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं से कहा कि देश में पहले से ही कचरा, अवैध पार्किंग, बाढ़, जल निकासी जैसी समस्याएं हैं। इसलिए उन्हें इन मुद्दों पर बोलना चाहिए, न कि हजारों किलोमीटर दूर हो रही घटनाओं पर। अदालत की यह टिप्पणी इस बात को रेखांकित करती है कि भारत में अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अनावश्यक विरोध-प्रदर्शन देश के आंतरिक हालात से ध्यान भटका सकते हैं।
हम आपको बता दें कि बंबई हाईकोर्ट ने माकपा द्वारा दायर उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें मुंबई पुलिस द्वारा गाज़ा में हो रही मौतों के खिलाफ प्रदर्शन की अनुमति नहीं देने के फैसले को चुनौती दी गई थी। वरिष्ठ अधिवक्ता मिहिर देसाई ने CPI(M) की ओर से दलील दी थी कि उनका उद्देश्य केवल आज़ाद मैदान में निर्धारित विरोध स्थल पर इकट्ठा होना था, न कि विरोध मार्च निकालना। हालांकि, न्यायमूर्ति आर.वी. घुगे और गौतम अंकद की खंडपीठ ने कहा कि पार्टी को यह याचिका दायर करने का कानूनी अधिकार नहीं है, क्योंकि प्रदर्शन की अनुमति के लिए आवेदन CPI(M) ने नहीं बल्कि ऑल इंडिया पीस एंड सॉलिडेरिटी फाउंडेशन (AIPSF) ने किया था। हम आपको बता दें कि पिछले महीने पुलिस ने AIPSF के गाज़ा मुद्दे पर आज़ाद मैदान में प्रदर्शन की अनुमति के अनुरोध को खारिज कर दिया था।
हम आपको बता दें कि सुनवाई के दौरान खंडपीठ ने मौखिक रूप से याचिकाकर्ताओं से सवाल किया कि वे भारत से संबंधित मुद्दों पर ध्यान क्यों नहीं दे सकते। अदालत ने कहा, “देशभक्त बनिए… अपने देश के मुद्दों पर बोलिए। हमारे देश में कचरा, अवैध पार्किंग, बाढ़ और जल निकासी जैसी अनेक समस्याएं हैं। हजारों मील दूर क्या हो रहा है, उससे आपके मुवक्किल कैसे प्रभावित हो रहे हैं?” वरिष्ठ अधिवक्ता देसाई ने इस पर सवाल उठाया कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल भारत के मुद्दों पर बोलने तक सीमित है? उन्होंने यह भी कहा कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में गाज़ा मुद्दे पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहे हैं। देसाई ने यह भी बताया कि याचिकाकर्ताओं में से दो व्यक्तियों ने पुलिस को दिए गए उस आवेदन पर भी हस्ताक्षर किए थे, जिसे खारिज किया गया था। इस पर अदालत ने पूछा कि बाकी हस्ताक्षरकर्ता कोर्ट क्यों नहीं आए?
अदालत ने मौखिक रूप से कहा, “हमारे देश में समस्याओं की कोई कमी नहीं है। हम इस तरह की चीज़ें नहीं चाहते। मुझे खेद है, आप सब दूरदर्शी नहीं हैं… आप गाज़ा और फिलिस्तीन के मुद्दों को देख रहे हैं। अपने देश की तरफ देखिए।” वहीं अतिरिक्त लोक अभियोजक श्रीकांत गावंड ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि प्रदर्शन की अनुमति देने से कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है और यह भारत की आधिकारिक स्थिति के संदर्भ में टकराव की स्थिति उत्पन्न कर सकता है।
देखा जाये तो यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन की बहस को सामने लाता है। एक ओर नागरिकों को संविधान द्वारा दिए गए शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अधिकार हैं, तो दूसरी ओर कानून-व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर सरकार की चिंताएं भी हैं। अदालत की टिप्पणियों पर गौर करें तो सामने आता है कि कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कानूनी अधिकार का अभाव याचिका खारिज करने का मुख्य कारण था। अदालत की मौखिक टिप्पणियां यह दर्शाती हैं कि वर्तमान परिस्थिति में राष्ट्रीय मुद्दों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इससे यह भी संकेत मिला कि अंतरराष्ट्रीय विवादों पर प्रदर्शन भारत की आधिकारिक कूटनीतिक स्थिति के विपरीत हो सकते हैं, जिससे संवेदनशील परिस्थितियां पैदा हो सकती हैं।
बहरहाल, यह फैसला न केवल कानूनी अधिकार के प्रश्न पर आधारित था बल्कि इसने यह भी स्पष्ट किया कि भारत के भीतर की समस्याओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह मामला इस बात का प्रतीक है कि अदालतें नागरिक अधिकारों को महत्व देती हैं, लेकिन जब मामला राष्ट्रीय हित और अंतरराष्ट्रीय संवेदनशीलता से जुड़ा हो, तो संतुलन आवश्यक हो जाता है। जो लोग गाज़ा मुद्दे पर बार-बार विरोध प्रदर्शन करते हैं या सार्वजनिक स्थानों पर फिलिस्तीन के झंडे लहराते हैं, उनके लिए यह फैसला एक स्पष्ट नजीर है। यह फैसला राजनीतिक दलों के लिए भी एक महत्वपूर्ण संदेश है। अदालत ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को उठाने से पहले दलों को यह सोचना चाहिए कि क्या वे भारत के हितों को प्राथमिकता दे रहे हैं। देखा जाये तो यह फैसला केवल एक कानूनी आदेश नहीं है, बल्कि एक सामाजिक और राजनीतिक संदेश भी है।

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