सरकार के लिए आसान नहीं है किसानों का मुद्दों सुलझाना

नई दिल्ली। साल 2024 के आखिर में देश के किसान फिर से सडक़ों पर उतर आए हैं. प्रदर्शन कर रहे किसानों का मुद्दा संसद में भी गूंज रहा है और सरकार उनकी मांगों का हल निकालने की बात कह रही है. राज्यसभा में शुक्रवार को कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हम किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देना चाहते हैं और इस पर काम चल रहा है.
केंद्रीय मंत्री के बयान से इतर किसानों का मसला सुलझाना इतना भी आसान नजर नहीं आ रहा है. जानकारों का कहना है कि किसानों की मांग और सरकारी सिस्टम के बीच की 4 ऐसी वजहें हैं, जिससे हाल के दिनों में इसके सुलझने के आसार कम ही दिख रहे हैं.
संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) के मुताबिक किसानों की सबसे बड़ी मांग सभी फसलों को एमएसपी की गारंटी देने की है. किसान संगठन चाहते हैं कि फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य एमएस स्वामीनाथन की सिफारिश वाले फॉर्मूले लागत को दर्शाया गया है.
किसान संगठनों की दूसरी बड़ी मांग गन्ना और हल्दी को लेकर है. संगठन का कहना है कि गन्ना की खरीदी भी स्वामीनाथन की सिफारिश पर ही की जानी चाहिए. किसानों की एक अन्य मांग कृषि क्षेत्र को प्रदूषण से बाहर रखने की भी है.
आंदोलन के अगुवा सरवन सिंह पंढेर के मुताबिक हमारी कुल 12 मांगें है, जिस पर पहले भी सरकार से बातचीत हो चुकी है. सरकार ने पहले इस पर ठोस एक्शन की बात कही थी, लेकिन अब सरकार सुन नहीं रही है.
किसान सभी फसलों पर एमएसपी की लीगल गारंटी चाहते हैं. अगर केंद्र लीगल गारंटी देती है तो सभी सभी फसलों की खरीदारी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही उसे करनी होगी, लेकिन इसमें एक पेच विश्व व्यापार संगठन का है. विश्व व्यापार संगठन व्यापार से जुड़े वैश्विक नियमों को तय करने वाला अंतरराष्ट्रीय संगठन है.
भारत विश्व व्यापार संगठन का संस्थापक सदस्य है और उसके शर्तों पर हस्ताक्षर कर चुका है. डब्ल्यूटीओ ने अपनी शर्तों में न्यूनतम समर्थन मूल्य को गारंटी न देने की बात कहा है. विश्व व्यापार संगठन सिर्फ सब्सिडी देने की बात कहता है.
यानी सरकार अगर इसे लागू करती है तो उसे पहले डब्ल्यूटीओ की सदस्यता छोडऩी होगी, जो कि आसान नहीं है. यही वजह है कि हाल के दिनों में किसान संगठनों ने डब्ल्यूटीओ के खिलाफ भी मोर्चा खोल रखा है.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 में कृषि का जिक्र है. इसमें कृषि को राज्य का विषय बताया गया है. हालांकि, योजना लागू करने और अन्य अधिकार केंद्र के पास भी है.
2020 में संसद के मानसून सत्र में तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने सांसद फूलो देवी नेताम के एक सवाल के जवाब में भी कृषि को राज्य का मसला बताया था. यानी राज्य ही इस पर बड़ा फैसला ले सकती है.
अभी किसान अपनी मांगों को केंद्र से मनवाने पर अड़ी है. किसान संगठनों का कहना है कि केंद्र इस मसले पर बिल लेकर आए और संसद से पास कराए. विपक्ष भी इस मांग को उठा रही है, लेकिन केंद्र अगर ऐसा करती है तो यह संवैधानिक संकट के दायरे में आ जाएगा.
अगर इसे कोर्ट में चैलेंज किया जाए तो नए सिरे से बहस छिड़ सकती है, जिससे केंद्र पर ही सवाल उठेगा. क्योंकि, अगर इसे राज्य स्वीकार कर लेती है तो भविष्य में पुलिस और अन्य राज्य के मसले में भी केंद्र दखल दे सकती है.
एक पेच फसलों की लागत को लेकर भी है. मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष जीतू पटवारी ने इसे उठाया है. पटवारी का कहना है कि लागत किसान ही तय करें, तभी बात बन सकती है.
किसान संगठनों का कहना है कि स्वामीनाथन के फॉर्मूले को वर्तमान की महंगाई के हिसाब से तय किया जाए. जब यह रिपोर्ट बनाई जा रही थी, तब मजदूरों को कम पैसे देने पड़ते थे, लेकिन अब मजदूरी सबसे ज्यादा बोझ हो गया है.
कसान नेता परमजीत सिंह के मुताबिक सरकार उन फसलों पर ही एमएसपी देना चाह रही है, जो वर्तमान में डिमांड में है. इनमें दलहन और तिलहन की फसलें हैं. सरकार ने हालिया एमएसपी की लिस्ट में इन फसलों की दामों में बढ़ोतरी भी की है.
परमजीत सिंह आगे कहते हैं- उत्तर और दक्षिण भारत के अधिकांश किसान रबी में गेहूं और खरीफ धान उपजाने का काम करता है. किसानों को इसी का ज्ञान भी है. ऐसे में किसान क्या करे? किसान संगठन सभी फसलों पर संपूर्ण एमएसपी देने की मांग कर रहा है.

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