मोदी का टूटा अहंकार, जनता ने सिखाया सबक, अब नहीं चलेगी मनमानी!

लोकतंत्र के महापर्व में जनता ने अपना जनादेश सुना दिया है.. इस जनादेश में पिछले दस सालों से सत्ता में बैठी भाजपा को तगड़ा झटका लगा है..

4PM न्यूज़ नेटवर्क: लोकतंत्र के महापर्व में जनता ने अपना जनादेश सुना दिया है.. इस जनादेश में पिछले दस सालों से सत्ता में बैठी भाजपा को तगड़ा झटका लगा है.. उससे भी बड़ा झटका लगा है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को.. क्योंकि इस चुनाव ने नरेंद्र मोदी का अहंकार तोड़ दिया है.. प्रधानमंत्री मोदी को जो ‘एक अकेला सब पर भारी’ का अहंकार था वो इस चुनाव के नतीजों के जरिए जनता ने तोड़ दिया है.. इन नतीजों ने कहीं न कहीं ये साबित कर दिया है कि अहंकार किसी का अच्छा नहीं होता फिर वो चाहे रावण हो या फिर नरेंद्र मोदी.. यही कारण है कि अब एनडीए की सरकार बनाने के लिए बीजेपी और मोदी को अपने सहयोगियों पर निर्भर रहना पड़ रहा है और उनकी मांगों को भी सुनना व मांगना पड़ रहा है.. ये नतीजे मोदी के अहंकार को चूर-चूर करने के लिए हैं..

आपको याद होगा कि लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब देते हुए किस तरह से प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष को चुनौती देते हुए कहा था कि मोदी अकेला सब पर भारी है.. दूसरी बात उन्होंने कही थी कि भाजपा अकेले 370 सीटें जीतेगी और एनडीए की सीटें चार सौ पार होंगी.. उस वक्त तो प्रधानमंत्री ने ये सभी बातें बड़े जोश-जोश में बोल दी थीं, लेकिन चुनाव के जब नतीजे खुले तो ऐसा लग रहा है कि मोदी के ये ही बड़े-बड़े दावे और उनका अहंकार इस चुनाव में उन्हें भारी पड़ गया.. नतीजा ये हुआ कि भाजपा को 370 सीटें जीतना तो दूर 270 तक के लाले पड़ गए.. वहीं इन नतीजों ने ये साबित कर दिया कि जनता को एक अकेला सब पर भारी वाला तानाशाह नहीं चाहिए.. बल्कि उन्हें ऐसा प्रधानमंत्री चाहिए जो सबको साथ लेकर चल सके.. लोकतंत्र में जब जब कोई एक सब पर भारी पड़ा है, जनता ने उसके बढ़ते कदम रोक दिए..

यही भारत के लोकतंत्र की खासियत है, जो किसी को तानाशाह बनने से रोक देती है.. बेशक सरकार एनडीए की ही बनेगी और प्रधानमंत्री भी मोदी ही होंगे.. लेकिन याद रहे कि ये गठबंधन की सरकार है.. जिसमें एक अकेली भाजपा ही नहीं बल्कि कई दल शामिल हैं.. और सबको साथ लेकर चलने पर ही ये सरकार चल पाएगी.. इसीलिए इस बार की गठबंधन की सरकार में नरेंद्र मोदी की तानाशाही नहीं चलेगी, न ही वो जो चाहेंगे कर सकेंगे.. क्योंकि इस जनादेश ने ये संदेश दे दिया कि जनता को मोदी की तानाशाही कतई पसंद नहीं आई है..

तभी जनता ने इस हालत में लाकर खड़ा कर दिया है कि चुनावों के आखिरी दिनों में एनडीए में लौटे तेलुगु देशम पार्टी और जेडीयू के कारण ही भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में आई है.. अभी भी ये दोनों ही अपनी मांगों को लेकर अड़े हुए हैं.. संभव ये भी है कि आए दिन इन दोनों की नई-नई मांगे सामने आती रहें और बीजेपी को परेशान करती रहें.. संभव है कि अगर ये दोनों बिदक गए तो एनडीए की सरकार खतरे में आ सकती है और मोदी की कुर्सी भी.. तमाम ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल के दावों के विपरीत भारतीय जनता पार्टी सिर्फ 240 सीटों पर ही सिमट गई.. कहीं न कहीं इसके पीछे खुद पीएम मोदी और उनकी तानाशाही जिम्मेदार है..

दरअसल, 2014 और 2019 में स्पष्ट बहुमत मिलने के बाद नरेंद्र मोदी ने ये समझ लिया था कि भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प बन चुकी है.. 1989 से लेकर 2014 तक चली गठबंधन की राजनीति का अंत हो गया है.. इसलिए गठबंधन के सहयोगियों से विचार विमर्श बिलकुल बंद हो गया था.. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने ही सहयोगियों की उपेक्षा शुरू कर दी थी.. क्योंकि उनको पता था कि भाजपा अकेले ही काफी है, गठबंधन महज नाम का ही है.. लगातार उपेक्षा का ही कारण रहा कि पहले 2018 में तेलुगू देशम छोड़कर गई थी, फिर 2019 के बाद चार बड़े क्षेत्रीय दल शिवसेना, जेडीयू, अकाली दल और अन्ना द्रमुक छोड़कर गए..

नरेंद्र मोदी और अमित शाह को याद रखना चाहिए था कि 2004 में जब द्रमुक जैसे बड़े घटक दल एनडीए छोड़कर गए थे, तो भाजपा को हिन्दी पट्टी में भी नुकसान हो गया था.. ये दल एनडीए को छोड़ कर जा रहे थे, तो उन्हें मनाने की कोशिश नहीं की गई.. भाजपा ने जब एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाना कबूल कर लिया, तो उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने में क्या दिक्कत थी.. एनडीए के संयोजक भी नीतीश कुमार या किसी अन्य सहयोगी दल के नेता को बनाने के बजाए खुद अमित शाह बन गए.. ऐसा लग रहा था कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने एनडीए को खत्म करने का मन बना लिया था.. क्योंकि 2019 के बाद एनडीए की बैठक ही नहीं बुलाई गई.. एक बैठक बुलाई भी गई, तो उनकी बात सुनने के बजाए उन्हें प्रवचन दिया गया.. कहीं न कहीं ये नतीजे इन बतों का भी परिणाम हैं..

शिवसेना और जेडीयू को कमजोर करने की नरेंद्र मोदी की रणनीति को भांपते हुए ही जेडीयू और टीडीपी ने एनडीए छोड़ा था.. नरेंद्र मोदी को तो एनडीए की याद तब आई, जब जून 2023 में इंडिया एलायंस बन रहा था.. यह अलग बात है कि अपने अपने प्रदेशों की स्थानीय राजनीति के चलते तेलुगु देशम और जेडीयू एनडीए में वापस आ गए.. आज चुनाव नतीजे देखते हैं तो साफ है कि इन्हीं दोनों दलों के भरोसे एनडीए सरकार बनने की स्थिति में पहुंची है.. लेकिन इनका साथ कब तक टिका रहेगा, यह बहुत कुछ मोदी और अमित शाह के व्यवहार पर निर्भर करेगा.. क्योंकि जाहिर है कि चंद्रबाबू नायडू और नरेंद्र मोदी के रिश्ते कभी उतने मधुर नहीं रहे हैं.. ये वो ही नायडू हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी के लिए काफी उल्टा सीधा बोला था और एक समय तो मोदी का इस्तीफा तक मांग लिया था..

जबकि नीतीश कुमार की फितरत से तो हर कोई भली-भांति वाकिफ है.. गिरगिट भी इतना जल्दी रंग न बदल पाए जितनी जल्दी नीतीश कुमार पाला बदल देते हैं.. इसका उदाहरण उन्होंने पिछले एक-डेढ़ साल के अंदर ही दिया है.. वो तो राजनीति का खेल ऐसा है कि आज ये दोनों ही एक बार फिर भाजपा के खेमे में हैं और एनडीए की सरकार की असली चाबी भी इन्हीं के हाथों में है.. ऐसे में इन दोनों पर भरोसा कब तक किया जा सकता है या कितना किया जा सकता है, इस बात को तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह भी अच्छे से ही जानते हैं.. इसलिए भलाई इसी में होगी कि मोदी अपने तानाशाही रवैये को किनारे रखकर इन दोनों नेताओं से सामंजस्य बनाकर चलें.. तभी सरकार पांच साल पूरे कर पाएगी..

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस विकास के मुद्दे के साथ चुनाव प्रचार की शुरुआत की थी, उसे वह ज्यादा देर बरकरार नहीं रख सके.. पहले दौर की कम वोटिंग से घबरा कर उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम करना शुरू कर दिया.. क्योंकि जिस तरह से विपक्ष ने जनता से जुड़े मुद्दों को उठाया और अग्निवीर व आरक्षण और संविधान पर बीजेपी को घेरा, उससे ये साफ हो गया कि बीजेपी दबाव में आ गई और उसे अपनी हार का डर सताने लगा.. इसी का नतीजा रहा कि नरेंद्र मोदी तुरंत ही अपने पुराने ढर्रे हिंदू-मुसलमान पर उतर आए.. जिसके जवाब में इंडिया एलायंस के नेताओं ने रणनीति बनाई, तो अखिलेश यादव ने कहा कि अगर वह हिन्दू मुस्लिम करके ध्रुवीकरण की कोशिश शुरू कर रहे हैं, तो हमें भी संविधान और आरक्षण की बात करनी चाहिए, जिस पर इंडिया एलायंस में सहमति बनी और फ्रंट फुट पर खेल रहे मोदी और अमित शाह बैकफुट पर आ गए..

अखिलेश यादव और राहुल गांधी की इस रणनीति से हिंदुत्व की राजनीति तार-तार हो गई और जिस जातिवाद को तोड़ कर 2014 और 2019 में भाजपा जीती थी, उस पर जातिवाद की राजनीति हावी हो गई.. कांग्रेस तो अपनी हर रैली और रोड शो में संविधान की किताब लेकर जाने लगी.. विपक्ष द्वारा बीजेपी के 400 जीतने पर संविधान बदल देने के मुद्दे को इतनी तेजी से उठाया गया कि बीजेपी पूरी तरह से दबाव में आ गई और दूसरी ओर जनता इंडिया गठबंधन की बातों पर यकीन करने लगी.. इसी का नतीजा रहा कि मोदी और शाह को सफाई देनी पड़ी कि वे न तो संविधान बदलेंगे, न आरक्षण खत्म करेंगे, लेकिन दलितों और ओबीसी को डराने के लिए संघ और भाजपा नेताओं के पुराने बयान भुनाए गए, जिनमें आरक्षण की समीक्षा करने की बात कही थी.. इस प्रचार का दलित समुदाय पर खासकर असर हुआ और उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में बसपा का सारा वोट बैंक इंडिया एलायंस की तरफ शिफ्ट हो गया.. भाजपा को मायावती को कमजोर करने का खामियाजा भी भुगतना पड़ा.. यूपी में अब दलित वोट बैंक का नया भाजपा विरोधी मसीहा पैदा हो गया है..

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा की सामूहिक नेतृत्व वाली पुरानी नीति को किनारे करके सारी पार्टी को दब्बू बना दिया था.. प्रदेश अध्यक्षों और प्रदेशों के महामंत्री ही नहीं प्रदेश कार्यकारिणी सदस्यों की नियुक्ति भी दिल्ली से होने लगी थी.. यहां तक कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी कोई फैसला बिना अमित शाह और प्रधानमंत्री की सलाह लिए नहीं कर रहे थे.. संसदीय बोर्ड भी पंगु बन कर रह गया था.. सारी परंपराओं को तोड़कर पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी को संसदीय बोर्ड से बाहर कर दिया गया.. पिछले पांच सालों से पार्टी के भीतर नियुक्तियों पर सारा नियन्त्रण मोदी और शाह के हाथ में था.. पहले संगठन पर संघ से भेजे गए संगठन महामंत्रियों की पकड़ रहती थी, लेकिन जब से अमित शाह पार्टी अध्यक्ष बने तब से न सिर्फ राष्ट्रीय संगठन महामंत्री, बल्कि राज्यों के संगठन महामंत्री भी किनारे कर दिए गए..

जनसंघ और भाजपा के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल ने संघ में वापस जाने की इच्छा जाहिर की और संघ ने उन्हें वापस बुला लिया.. अन्यथा संघटन महामंत्रियों को लग्जरी लाईफ का चस्का लग जाता है और वापस जाने का नाम तक नहीं लेते.. हाल के चुनावों के बीच पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने न जाने किसके कहने पर यह कह दिया कि पार्टी आत्मनिर्भर हो गई है.. संघ इससे खफा हुआ और संगठन महामंत्रियों को वापस बुलाने पर विचार कर रहा है.. कर्नाटक के संगठन महामंत्री को वापस बुलाने से इसकी शुरुआत हो गई है.. यह क्यों नहीं माना जाना चाहिए कि संघ ने इस बार के चुनाव में मन से काम नहीं किया, क्योंकि संघ में व्यक्ति पूजा नहीं होती, जबकि नरेंद्र मोदी ने पिछले दस सालों में अपना कद संघ और भाजपा से बड़ा बना कर पेश किया, जब उन्होंने मोदी की गारंटियां बांटनी शुरू की, तो उसे संघ में ठीक नहीं माना गया.. कहीं न कहीं संघ की नाराजगी भी बीजेपी को बहुत भारी पड़ गई और उसी का नतीजा रहा कि बीजेपी चुनावों में औंधे मुंह गिरी..

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक के क्षत्रप येदियुरप्पा, महाराष्ट्र के क्षत्रप देवेन्द्र फडनवीस, राजस्थान की क्षत्रप वसुंधरा राजे, मध्यप्रदेश के क्षत्रप शिवराज सिंह चौहान और हरियाणा में जातोय समीकरणों के चलते क्षत्रप बन चुके मनोहर लाल खट्टर को उनके राज्यों की राजनीति से दूर करने का खामियाजा भी भुगता है.. मध्य प्रदेश को छोड़कर इन सभी राज्यों में भाजपा को कांग्रेस के हाथों मार खानी पड़ी है.. महाराष्ट्र में शिवसेना को तोड़कर उद्धव ठाकरे से उनके पिता की विरासत छीनने में भाजपा पूरी तरह नाकाम रही.. शरद पवार की पार्टी तोड़ने का फैसला भी गलत साबित हुआ, उद्धव ठाकरे और शरद पवार को सहानुभूति का लाभ मिला और उसका फायदा कांग्रेस को हुआ.. भाजपा नेतृत्व को यह बड़ी गलतफहमी हो गई है कि वह अब कैडर बेस पार्टी नहीं रही, मास बेस पार्टी बन गई है..

इसलिए कैडर की कोई जरूरत नहीं रही.. 370 खत्म होने और रामजन्म भूमि मन्दिर बनने के बावजूद भाजपा कैडर अपने नेता से खफा था.. इसका बड़ा कारण यह था कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के पार्टी संगठन पर हावी होने के बाद संगठन और विचारधारा से जुड़े नेताओं को किनारे कर के बाहरी लोगों को भारी तादाद में टिकट दिए गए, खासकर ब्यूरोक्रेट्स और अन्य पार्टियों से आए दलबदलुओं को नेता बनाकर संगठन के निष्ठावान कार्यकर्ताओं से उनके लिए काम करने को कहा गया.. जिस केडर ने पीढी दर पीढी विचारधारा के लिए काम करते हुए भाजपा को इस स्थिति तक पहुंचाया था, उन्हें बिलकुल किनारे कर दिया गया था.. इस बार ऐसे अनेक कार्यकर्ता और नेता घर बैठ गए.. भाजपा को इसका भी बड़ा नुकसान उठाना पड़ा..

फिलहाल अब जब एक बार फिर एनडीए सरकार बनाने जा रहा है और फिलहाल तो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र मोदी ही बैठने जा रहे हैं.. तब देखना ये होगा कि अगले पांच साल एनडीए की ये सरकार चल पाती है या नहीं.. क्या नरेंद्र मोदी ही पूरे पांच साल प्रधानमंत्री रहते हैं या फिर बीच सरकार में कुछ बदलाव देखने को मिलेंगे.. और ये भी देखने वाली बात होगी कि टीडीपी और जेडीयू कब तक सरकार में साथ रहते हैं और अपनी किन-किन मांगों को मनवाते हैं.. इतना तो तय है कि ये सरकार बैसाखियों के सहारे की सरकार है.. इसमें एक बंद कमरे में बैठकर दो लोगों द्वारा फैसले नहीं लिए जा सकेंगे.. देखना है कि आगे क्या होता है..

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