सेंगर की जमानत पर सियासी बवाल

- दिल्ली हाईकोर्ट से मिली है जमानत
- कुलदीप की जमानत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी में रेप पीड़िता
- बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण पर भी लगाए पीड़िता ने आरोप
4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। न्याय जब अधूरा लगे तो सबसे ज्यादा टूटता है वह इंसान जिसने सबसे ज्यादा सहा होता है। उन्नाव रेप कांड की पीड़िता के साथ आज ठीक यही हो रहा है। जिस मामले ने पूरे देश को झकझोर दिया था जिस पर अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाकर यह भरोसा दिलाया था कि ताकत के आगे कानून नहीं झुकेगा उसी मामले में दिल्ली हाईकोर्ट से मिली जमानत ने एक बार फिर सवाल खड़े कर दिए हैं। सवाल सिर्फ एक दोषी की रिहाई का नहीं है सवाल उस भरोसे का है जो न्याय व्यवस्था ने एक पीडि़ता को दिया था। पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को उम्रकैद की सजा पर रोक और जमानत मिलने के बाद रेप विक्टिम ने साफ शब्दों में कहा है कि यह फैसला उनके लिए सिर्फ कानूनी झटका नहीं बल्कि मानसिक और सामाजिक यातना का नया दौर है। रेप विक्टिम के अनुसार सेंगर का प्रभाव जेल से भी जारी है और यह जमानत उनके लिए डर असुरक्षा और दबाव का प्रतीक बन गई है। यही वजह है कि अब उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया है।
रेपिस्ट को राजनीतिक सरंक्षण!
यह मामला अब सिर्फ अदालत की चारदीवारी तक सीमित नहीं रहा। यह सियासी बहस का केंद्र बन चुका है। विपक्ष इसे सत्ता संरक्षण का खुला उदाहरण बता रहा है जबकि सरकार और सत्तारूढ़ दल चुप्पी साधे हुए हैं। पीड़िता का कहना है कि फैसले के बाद वह इस कदर टूट गई थीं कि उन्होंने अपनी जिंदगी खत्म करने तक का विचार किया लेकिन परिवार और न्याय की उम्मीद ने उन्हें फिर खड़ा कर दिया। इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर देश में महिला सुरक्षा राजनीतिक संरक्षण और न्यायिक प्रक्रिया की गति पर बहस छेड़ दी है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारों के बीच यह सवाल गूंज रहा है कि क्या दोष सिद्ध हो जाने के बाद भी प्रभावशाली लोगों को राहत मिलना सिस्टम की कमजोरी नहीं है क्या जमानत का अधिकार पीडि़ता के भय और सुरक्षा से बड़ा हो सकता है?
संघर्ष पर सवाल
उन्नाव रेप कांड पहले ही देश की राजनीति और समाज पर गहरा असर डाल चुका है। इस केस में पीड़िता और उसके परिवार को सड़क हादसे, गवाहों की मौत और प्रशासनिक उदासीनता जैसी कई त्रासदियों का सामना करना पड़ा। ऐसे में सेंगर को जमानत मिलना उस पूरे संघर्ष पर सवाल खड़ा करता है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट में यह मामला सिर्फ एक जमानत याचिका तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि यह उस व्यापक सवाल को भी छुएगा कि क्या दोष सिद्ध हो जाने के बाद भी प्रभावशाली आरोपियों को राहत देना न्याय के मूल सिद्धांतों के अनुरूप है।
उन्नाव की बेटी मांगे न्याय
उन्नाव की यह बेटी आज फिर उसी मोड़ पर खड़ी है जहां उसे लडऩा है। इस बार सिर्फ एक अपराधी से नहीं बल्कि उस व्यवस्था से जो उसे बार-बार यह एहसास दिला रही है कि न्याय पाने की लड़ाई सज़ा से खत्म नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट में जाने का फैसला केवल कानूनी कदम नहीं बल्कि उस उम्मीद को बचाने की कोशिश है जिसे इस देश की लाखों बेटियां अपनी आखिरी ताकत मानती हैं।
‘मुझे नहीं डराया जा सकता’
पीड़िता ने साफ कहा है कि वह डरेंगी नहीं और आखिरी सांस तक न्याय की लड़ाई लड़ेंगी। उनका कहना है कि यह लड़ाई सिर्फ उनकी नहीं बल्कि उन सभी बेटियों की है जो सिस्टम से न्याय की उम्मीद रखती हैं। सुप्रीम कोर्ट में जाने का उनका फैसला इस बात का संकेत है कि इंसाफ की जंग अभी खत्म नहीं हुई है बस उसका मैदान बदल गया है।
सपा-कांग्रेस ने उठाये सवाल
इस पूरे प्रकरण पर विपक्ष ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और अन्य विपक्षी दलों ने सवाल उठाएं हैं कि जब एक व्यक्ति को गंभीर अपराध में दोषी ठहराया जा चुका है तो उसे जमानत देना किस संदेश को दर्शाता है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि यह फैसला महिला सुरक्षा के दावों की पोल खोलता है। समाजवादी पार्टी ने इसे न्याय व्यवस्था पर राजनीतिक दबाव का उदाहरण बताया। इस बीच पीड़िता ने सिर्फ सेंगर ही नहीं बल्कि भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर भी गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा कि जिन मामलों में प्रभावशाली लोग आरोपी होते हैं वहां पीडि़ताओं को लगातार दबाव डर और सामाजिक अपमान का सामना करना पड़ता है। उनका कहना है कि सत्ता और रसूख का इस्तेमाल कर मामलों को लंबा खींचा जाता है ताकि पीड़िता टूट जाए।
सरकार ने तानी चुप्पी की चादर
सरकार की ओर से इस मुद्दे पर फिलहाल कोई ठोस प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। सत्तारूढ़ दल के नेता इसे न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा बताकर टिप्पणी से बचते नजर आ रहे हैं। हालांकि कानूनी जानकारों का कहना है कि जमानत कानूनी अधिकार है लेकिन ऐसे मामलों में पीड़िता की सुरक्षा और मानसिक स्थिति को भी बराबर महत्व दिया जाना चाहिए। दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के बाद कई महिला संगठनों ने भी नाराजगी जताई है। उनका कहना है कि इस तरह के फैसले उन महिलाओं के हौसले तोड़ते हैं जो न्याय की उम्मीद लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाती हैं। संगठनों ने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में हस्तक्षेप करे और पीड़िता की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।




