आर्थिक नीतियों पर हावी न हो राजनीति
- अर्थव्यवस्था का लाभ जनता को मिले
- समय-समय पर समीक्षा हो
4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। देश की आर्थिक नीतियों का प्रभाव वहां के नागरिकों पर बहुत तेजी से पड़ता है। अगर नीतियों में जरा भी गड़बड़ी हुई तो सामाजिक परिवेश तो प्रभावित होता ही है पारिवारिक वातावरण भी डावांडोल हो जाता। भारत जैसे देश में जहां लोकतंत्र है और जनता ही सबकुछ है वहां पर देश की अर्थव्यवस्था से जनता अछूती नहीं रह सकती है। चूकि भारत में आर्थिक नीतियों पर राजनीति भी हावी होती है इसलिए यहां पर सरकारों द्वारा लिए गए निर्णय आम से खास लोगों को अपने जद में ले लेते हैं।
अलग-अलग राजनैतिक पार्टियों के अपने-अपने आर्थिक एजेेंडे होते हैं। कुछ राजनैतिक दल सबको लेकर सोचते हैं तो कुछ राजनैतिक दल अपने सियासी नफे-नुकसान को भी ध्यान में रखकर फैसले लेते हैं। सत्ता में हो या विपक्ष में राजनैतिक दलों को अपने आर्थिक निर्णयों के जनता पर क्या असर हुए इसकी समीक्षा जरूर करनी चाहिए।
मोदी सरकार का नोटबंदी का निर्णय सही या गलत बहस का विषय हो सकता है। हालांकि कोर्ट ने इस निर्णय को जायज ठहराया है पर इसका कुप्रभाव पड़ा इससे इंकार नही किया जा सकता हैं। सरकारें अपनी नीतियों को कभी गलत नहीं कहती है। पर उन्हें सोचना चाहिए कि कभी-कभी उनके फैसले गलत भी हो सकत है।
आमजन की कीमत पर न हो आर्थिक फैसले
प्राचीन भारत में अर्थ रचना ऐसी रही है जिससे देश के सभी नागरिक सम्पन्न एवं सुखी रहे हैं। शास्त्रों में संयमित उपभोग की बात कही गई है। भारत की आर्थिक विकास की दर में बहुत तेजी आती दिखाई दे रही है एवं आगे आने वाले समय में आर्थिक प्रगति की गति और अधिक तेज होने की उम्मीद की जा रही है। किसी भी क्षेत्र में बहुत तेजी से आगे बढऩे के अपने लाभ भी हैं और नुकसान भी। आर्थिक क्षेत्र में प्रगति करते समय इसका ध्यान रखा जाना बहुत जरूरी है कि इस संदर्भ में प्रगति के लिए जो नीतियां अपनायी जा रही हैं वे जनता की अपेक्षाओं को पूरा करती हैं या नहीं। साथ ही, देश में आर्थिक विकास को गति देने के लिए गलत आर्थिक नीतियों को लागू नहीं किया जाये क्योंकि गलत आर्थिक नीतियों को अपनाते हुए आर्थिक स्त्रोतों को बढ़ाना देश एवं जनता के हित में नहीं होता है। आर्थिक प्रगति के इस खंडकाल में इस बात पर भी विशेष ध्यान देना जरूरी है कि भारत की आर्थिक प्रगति में शुचितापूर्ण नीतियों का पालन किया जा रहा है या नहीं। आर्थिक प्रगति किसी भी कीमत पर हो एवं चाहे इसके लिए भविष्य में देश के नागरिकों को भारी कीमत चुकानी पड़े, इसे भारतीय संस्कार मंजूर नहीं करते हैं। भारत को परम वैभव के स्तर पर ले जाने के लिए धर्म के मार्ग पर चलना ही हितकर होगा। वैसे तो पूंजीवादी मॉडल में कई प्रकार की कमियां दिखाई देने लगी हैं परंतु हाल ही के समय की एक ज्वलंत आर्थिक समस्या का वर्णन करना यहां उचित होगा।
ग्रामीण इलाकों पर ध्यान जरूरी
भारत के ग्रामीण इलाकों में कुटीर उद्योगों के माध्यम से वस्तुओं का उत्पादन प्रचुर मात्रा में किया जाता था एवं वस्तुओं की आपूर्ति सदैव ही सुनिश्चित रखी जाती थी अत: मांग एवं आपूर्ति में असंतुलन पैदा ही नहीं होने दिया जाता था। भारत ने भी हाल ही में हालांकि ब्याज दरों में वृद्धि की है परंतु विशेष रूप से कृषि उत्पादों की आपूर्ति पर विशेष ध्यान देते हुए महंगाई को तुलनात्मक रूप से नियंत्रण में बनाए रखा है। इसी प्रकार, अन्य विकसित देशों द्वारा भी लगातार ब्याज दरों में वृद्धि करने के स्थान पर उत्पादों की आपूर्ति बढ़ाकर मुद्रा स्फीति का हल निकाला जाना चाहिए। विशेष रूप से मुद्रा स्फीति की समस्या उत्पन्न ही इसलिए होती है कि सिस्टम में उत्पादों की मांग की तुलना में आपूर्ति कम होने लगती है। कोरोना महामारी के दौरान एवं उसके बाद रूस एवं यूक्रेन युद्ध के कारण कई देशों में कई उत्पादों की आपूर्ति बाधित हुई है। जिसके कारण मुद्रा स्फीति इन देशों में फैली है।
बढ़ी है बेरोजगारी
वर्तमान में भारत में भी आर्थिक दृष्टि से कुछ कमियां तो स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही हैं, जिन्हें ठीक करना नितांत आवश्यक है। भारत में निचले स्तर की 20 प्रतिशत जनसंख्या की आय देश की कुल आय का 5 प्रतिशत है जबकि ऊपरी स्तर के 20 प्रतिशत जनसंख्या की आय देश की कुल आय का लगभग 50 प्रतिशत है। भारत में जनवरी 2023 में बेरोजगारी की दर 7.14 प्रतिशत थी, जबकि आदर्श स्थिति में यह शून्य के स्तर पर होनी चाहिए। भारत में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे व्यक्तियों की संख्या वर्ष 2019 में 10.2 प्रतिशत थी। भारत में प्रति व्यक्ति आय अन्य कई देशों की तुलना में बहुत कम है। प्रत्येक भारतीय की औसत आय 2,200 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष है जबकि अमेरिका में प्रति व्यक्ति औसत आय 70,000 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष है और चीनी नागरिक की औसत आय 12,000 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष है।
जनता के समस्याओं का हल निकाला जाए
भारत में यह भी कहा गया है कि यह राजा का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा की अर्थ से सम्बंधित समस्याओं का हल खोजने का प्रयास करे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भी कहा है कि किसी भी राजनैतिक दल के लिए केवल राजनैतिक सत्ता हासिल करना अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए बल्कि यह एक माध्यम बनना चाहिए इस बात के लिए कि देश के गरीब से गरीब व्यक्ति तक आर्थिक विकास का लाभ पहुंचाया जा सके। उपाध्याय ने इस संदर्भ में एक मॉडल भी दिया है जिसे उन्होंने एकात्म मानववाद का नाम दिया है। इस मॉडल के क्रियान्वयन से समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति का विकास होगा। उसका सर्वांगीण उदय होगा। उक्त मॉडल को साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद या साम्राज्यवाद आदि से हटाकर राष्ट्रवाद का धरातल दिया गया है। भारत का राष्ट्रवाद विश्व कल्याणकारी है क्योंकि उसने वसुधैव कुटुम्बकम की संकल्पना के आधार पर सर्वे भवन्तु सुखिन को ही अपना अंतिम लक्ष्य माना है। यही हम सभी भारतीयों का लक्ष्य बनना चाहिए।इस प्रकार भारत को अपनी आर्थिक तरक्की के समय पश्चिमी दर्शन के स्थान पर भारतीय दर्शन को अपनाकर आगे बढऩा चाहिए, ताकि पश्चिमी देशों में उत्पन्न हुई नैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं से आर्थिक विकास के शुरुआती दौर में ही बचा जा सके।