पंजाब में शिअद-बसपा गठजोड़ होगा कितना प्रभावी

नई दिल्ली। आगामी वर्ष में गोवा, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे। इनमें पंजाब ऐसा प्रांत है, जहां चुनाव परिणाम देश भर में बिखर रही कांग्रेस के उज्ज्वल भविष्य की एक मात्र उम्मीद हैं । किसानों के हित की बात कहकर एनडीए से नाता तोड़ चुके शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) भी इन चुनावों से अपने पुनरुद्धार की कहानी लिखने की उम्मीद कर रही है। मार्च माह तक पंजाब में कांग्रेस का परचम लहरा रहा था, लेकिन वर्ष 2015 में अकाली-भाजपा सरकार के कार्यकाल में श्री गुरु ग्रंथ साहिब के अपवित्रीकरण से संबंधित कोटकपूरा शूटिंग में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के एक फैसले ने सब कुछ बदल दिया। हाईकोर्ट की इस कड़ी टिप्पणी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा अपवित्रीकरण की जांच के लिए गठित एसआईटी की जांच रिपोर्ट को एकमुश्त खारिज करते हुए न सिर्फ हाशिए पर पड़े अकाली दल को जान दे दी, बल्कि साढ़े चार साल बाद कांग्रेस में बगावत के बीज भी बोए। सालों से लगभग हर मुद्दे पर आक्रामक रुख अख्तियार कर रही सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार अचानक रक्षात्मक नजर आई। नवजोत सिंह सिद्धू से लेकर प्रताप सिंह बाजवा और दर्जनों विधायकों से लेकर सात कैबिनेट मंत्री सीधे कैप्टन से टकराव में आ गए।
प्रदेश कांग्रेस के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी मुख्यमंत्री को अपना केस पेश करने के लिए हाईकमान द्वारा गठित विशेष समिति के समक्ष पेश होना पड़ा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और कुशासन के आरोपों से घिरी कांग्रेस सत्ता विरोधी लहर से खुद को पूरी तरह अछूता रख सकेगी। अगर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और एसएडी का चुनावी गठबंधन वोटों में तब्दील हो जाता है तो फिर कांग्रेस को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा, क्योंकि अकाली दल ने बसपा को जो 20 सीटें दी हैं, उनमें से 18 पर फिलहाल कांग्रेस का कब्जा है। दूसरी ओर दूसरी बड़ी पार्टी एसएडी में विघटन की स्थिति आज भी वैसी ही बनी हुई है। पूर्व राज्यसभा सदस्य सुखदेव सिंह ढींढसा और रणजीत सिंह जैसे अकाली नेता अपना अलग अकाली दल बनाकर चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं। यह नया अकाली दल निश्चित रूप से इतना मजबूत नहीं है, लेकिन इसमें निश्चित रूप से एसएडी को नुकसान पहुंचाने की क्षमता है । दूसरी ओर बीजेपी से 25 साल पुराना गठबंधन तोडऩे के बाद एसएडी ने जातिगत समीकरण को देखते हुए बीएसपी के साथ गठबंधन किया है। अकाली दल गठबंधन से राहत जरूर महसूस कर रहा है, लेकिन अकाली नेतृत्व भी इस बात से भलीभांति परिचित है कि पंजाब में जातिगत राजनीति का समीकरण काफी जटिल है। हालांकि राज्य में अवसादग्रस्त वर्गों की आबादी 34 प्रतिशत है, लेकिन ग्रामीण बेल्ट में यह प्रतिशत 37 तक पहुंच जाता है। भौगोलिक दृष्टि से ब्यास और सतलुज नदियों के बीच पड़े जिलों में दलित आबादी 50 प्रतिशत तक पहुंच जाती है, जिसे दोआबा बेल्ट के नाम से जाना जाता है। हालांकि 2017 में आम आदमी पार्टी के टिकट पर जीते 20 विधायकों में से सिर्फ 10 ही आज पार्टी के साथ हैं। ज्यादातर शीर्ष नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है। सुखपाल सिंह खैरा जैसे जाट सिख चेहरे को बाद में दिल्ली नेतृत्व ने नकार दिया था। खैरा अभी कांग्रेस में हैं। एक बार सिख पंथ से जुड़े मामलों में पार्टी का पंथक चेहरा बनने वाले हरविंदर सिंह फूलका भी पार्टी से अलग हो गए हैं। पटियाला से दो सांसद धर्मवीर गांधी और फतेहगढ़ साहिब से हरिंदर सिंह खालसा को 2015 में ही केजरीवाल के नेतृत्व और सत्तावादी रवैये पर सवाल उठाने के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया गया था। अब संगरूर के सांसद भगवंत मान भी आज दिल्ली में बैठे आप नेताओं से दूर रहने पर आमादा हैं। अकाली दल के साथ चुनावी डील तोडऩे के बाद बीजेपी चुनाव नतीजों की परवाह किए बिना पंजाब में फ्रंट फुट पर खुलकर खेल सकती है। अधिक खोने के डर से कहीं अधिक, आगामी चुनाव कृषि सुधार कानूनों पर जारी विरोध के बीच पंजाब भाजपा के लिए कुछ हासिल करने का अवसर साबित हो सकता हैं । इसको लेकर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने यह कवायद उसी समय शुरू कर दी थी, जब भाजपा के संगठन मंत्री दिनेश कुमार ने भाजपा की ओर से पंजाब को पहला दलित सिख मुख्यमंत्री देने की घोषणा की थी।
बीएसपी के साथ गठबंधन के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में पार्टी के राजनीतिक विस्तार की संभावना से जुड़ी पुरानी महत्वाकांक्षाओं पर भी अकाली दल का सामने आना स्वाभाविक है। पार्टी नेता यहां-वहां एक मातहत भाषा में कहते रहे हैं कि बहनजी से हरी झंडी लेकर पार्टी नेताओं ने यूपी में सिख और पंजाबी बहुसंख्यक सीटों को भी चिह्नित किया है । उत्तर प्रदेश में अकाली दल के विस्तार को लेकर पिछले तीन साल से सक्रिय लोकसभा सदस्य प्रेम सिंह चंदूमाजरा के मुताबिक यूपी की 40 से ज्यादा सीटों पर सिख और पंजाबी मूल के मतदाताओं का न सिर्फ अच्छा प्रभाव है, बल्कि उनका अपना निर्णायक वोट बैंक भी है। प्रत्याशी के पक्ष में वोटों का प्रतिशत बढऩे या घटने की बात भी सामने आ रही है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button