मनरेगा पर केसरिया चादर ‘जी राम जी’

  • क्या गांधी को योजनाबद्ध तरीके से हटाया जा रहा है
  • रोजगार नहीं भावनाएं परोस रही है सरकार आर्थिक सवालों से धार्मिक मोड़
  • आज मनरेगा बना जी राम जी कल राशन पेंशन और छात्रवृत्ति की बारी
  • नाम बदलना कोई प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं यह वैचारिक हस्तक्षेप है

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। मनरेगा बोले तो महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम पर भी नाम बदलने वाला सरकारी हथौड़ा चल चुका है। मनरेगा कोई योजना नहीं थी यह संविधान के अनुच्छेद 41 की जमीन पर खड़ा वह कानून था जो राज्य को यह याद दिलाता था कि रोजगार कोई उपकार नहीं बल्कि अधिकार है। अब उसी अधिकार का नाम बदलकर ‘जी राम जी’ किया जा रहा है।
सरकार इसे सांस्कृतिक सम्मान कह सकती है लेकिन सच यह है कि यह कानूनी अधिकार को धार्मिक प्रतीक में ढालने की प्रक्रिया है। यह बदलाव कागज पर छोटा लग सकता है लेकिन इसके राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थ बेहद गहरे हैं। आज अगर रोजगार योजना का नाम बदला जा सकता है तो कल क्या पेंशन योजनाओं का नाम बदला जाएगा? क्या छात्रवृत्तियां आस्था के अनुरूप होंगी? क्या कल्याणकारी राज्य की पहचान नागरिकता से हटकर विश्वास पर आधारित होगी? यह सवाल हवा में नहीं उठाए जा रहे। यह सवाल सरकार की कार्यशैली से पैदा हो रहे हैं।

गांधी से असहजता संयोग नहीं रणनीति!

कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी ने सवाल पूछा है कि गांधी के नाम से क्या तकलीफ है? वह कहते हैं कि यह तकलीफ अचानक नहीं पैदा हुई। पिछले दस वर्षों में एक व्यवस्थित कोशिश दिखाई देती है। पहले सरकार ने गांधी को पाठ्यक्रमोंं से किनारे किया फिर गांधी को अप्रासंगिक बताना शुरू किया गया। गांधी की जगह अन्य प्रतीकों को स्थापित किया जा रहा है। मनरेगा का नाम बदलना उसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। उनके मुताबिक यह सिर्फएक नाम हटाना नहीं है। यह उस विचार को हटाने की कोशिश है जिसमें राज्य की जिम्मेदारी गरीब के प्रति थी।

सबसे कमजोर दौर में मनरेगा

मनरेगा आज अपने सबसे कमजोर दौर में है। ग्रामीण भारत में काम के दिन घटे हैं। भुगतान महीनों तक लटका रहता है। बजट वास्तविक ज़रूरतों से कम है। राज्य सरकारें केंद्र से पैसा न मिलने की लगातार शिकायत कर रही हैं। पश्चिम बंगाल झारखंड समेत तमाम राज्यों की सरकारों ने केन्द्र सरकार पर इस योजना के तहत राज्य को मिलने वाले अनुदान को नहीं मिलने के आरोप लगाये हैं। विपक्ष का अरोप है कि इन सब पर विषयों पर बहस होनी चाहिए थी। लेकिन सरकार नाम बदलने की बहस कर रही है। विपक्षी नेताओं का कहना है कि यह वही रणनीति है जिसमें असफलता को छुपाने के लिए प्रतीकों का शोर खड़ा किया जाता है। जब काम नहीं दिखता तब नाम चमकाया जाता है। कांग्रेस नेता प्रियंका गाधी ने कहा है कि सरकार गरीब से यह नहीं कह रही कि हम तुम्हें समय पर मजदूरी देंगे। बल्कि सरकार यह कह रही है कि हम तुम्हें एक नया नाम देंगे। उनके मुताबिक यह कल्याण नहीं यह ध्यान भटकाने की राजनीति है।

विकास बनाम अधिकार

विपक्ष कहता है कि सरकार बार-बार विकसित भारत का नारा देती है। लेकिन विकसित समाज वह नहीं होता जहां योजनाओं के नाम भव्य हों। विकसित समाज वह होता है जहां मजदूरी समय पर मिले। काम की गारंटी तय हो। मजदूर और कामगारों के हितों में कानून मजबूत हो। गौरतलब है कि मनरेगा का सबसे बड़ा गुण उसका नाम नहीं उसका शब्द था गारंटी। ‘जी राम जी बिल 2025’ में यह शब्द खोता दिख रहा है। गारंटी की जगह भावना, कानून की जगह कथानक, और अधिकार की जगह आस्था। यह बदलाव सिर्फ भाषा का नहीं है यह राज्य और नागरिक के रिश्ते का पुनर्लेखन है।

कौन कर रहा है राजनीति

आरपी सिंह कहते हैं कि विपक्ष को इस मुद्दे पर राजनीति नहीं करनी चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि नाम बदलना राजनीति नहीं है? गांधी को हटाना राजनीति नहीं है? आस्था को नीति में घसीटना राजनीति नहीं है? अगर यह राजनीति नहीं है तो फिर राजनीति किसे कहते हैं? विपक्ष सवाल पूछ रहा है सरकार दिशा बदल रही है। संवैधानिक भारत से सांस्कृतिक राज्य की ओर? भारत का संविधान किसी एक धर्म एक संस्कृति या एक विचार का दस्तावेज नहीं है। यह विविधताओं के बीच संतुलन का अनुबंध है। जब कल्याणकारी योजनाओं के नाम धार्मिक प्रतीकों से जोड़े जाते हैं तब राज्य तटस्थ नहीं रहता। तब राज्य धीरे-धीरे नैतिक उपदेशक बनता है प्रशासक नहीं। आज यह मनरेगा है। कल यह कुछ और होगा। इतिहास बताता है कि जब राज्य नागरिक को अधिकार के बजाय पहचान से देखना शुरू करता है तब लोकतंत्र का क्षरण होता है धीरे लेकिन स्थायी रूप से। यह सिर्फ़ आज की बहस नहीं आने वाले भारत की पटकथा है।

सरकार अपना एजेंडा थोप रही है : पुष्पेंद्र सरोज

पुष्पेंद्र सरोज का कहना है कि सरकार अपना एजेंडा थोप रही है। यह आरोप भावनात्मक नहीं संरचनात्मक है। यह बिल पूछता है कि क्या भारत का कल्याण माडल बदलेगा? क्या अधिकार आधारित योजनाएं प्रतीक आधारित बनेंगी? क्या नागरिक की पहचान उसके काम से नहीं उसके विश्वास से तय होगी? इन सवालों का जवाब आज संसद में नहीं मिलेगा। इनका असर आने वाले वर्षों में दिखेगा। नाम बदलने से इतिहास नहीं बदलता सरकार चाहे जितनी बार नाम बदले गरीब का सवाल वही रहेगा काम मिलेगा या नहीं, संविधान का जवाब साफ है मिलेगा यह तुम्हारा अधिकार है। अगर यह अधिकार भावनाओं की भीड़ में खो गया तो यह सिर्फ एक योजना की हार नहीं होगी। यह गणराज्य की हार होगी। और यही वजह है कि ‘जी राम जी बिल 2025’ एक साधारण विधेयक नहीं है यह भारत की आत्मा पर लिखा गया अब तक का सबसे तीखा राजनीतिक प्रश्न है।

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