यूपी विधानसभा चुनाव के लिए तैयार हो रही जातीय समीकरणों की जमीन
लखनऊ। विधानसभा चुनाव के संबंध में यूपी के सभी राजनीतिक दल इस बार जातिगत समीकरणों पर काम करने में व्यस्त हैं। सत्तारूढ़ भाजपा की नजर ओबीसी और अन्य पिछड़ी जातियों पर है, वहीं बसपा सुप्रीमो मायावती और अखिलेश यादव भी अपने कोर वोटरों के बाद ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने की कवायद कर रहे हैं। जबकि प्रियंका गांधी यूपी में वेंटीलेटर प चल रही कांग्रेस में प्राण फूंकना चाहती हैं।
पिछले कई विधानसभा चुनावों के उलट इस बार उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरणों की तस्वीर दिख रही है। परंपरागत वोटों के अलावा अन्य जातियों पर राजनीतिक दलों की नजर है। यानी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले जातियों को लेकर अलग तरह की लामबंदी शुरू हो गई है। चुनाव में टिके रहने के लिए संघर्ष कर रही बहुजन समाज पार्टी जहां ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश कर रही है, वहीं सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नजर ओबीसी और अन्य पिछड़ी जातियों पर है। हालांकि समाजवादी पार्टी के लिए भी चुनौती कम नहीं है, क्योंकि जहां पिछली बार की तरह वोटों के धु्रवीकरण का खतरा है, वहीं गैर यादव और पिछड़ी जातियों में अन्य बड़े दलों के हस्तक्षेप का खतरा भी बराबर बना हुआ है। ऐसी स्थिति में समाजवादी पार्टी के लिए अपने मूल मतदाताओं के साथ-साथ सवर्ण जातियों खासकर ब्राह्मणों को अपने पक्ष में करना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश की राजनीति में एआईएमआईएम यानी असदुद्दीन ओवैसी का पार्टी का आना भी अन्य दलों के लिए बड़ी चुनौती है, जो साझेदारी संकल्प मोर्चा के साथ मिलकर आए हैं। इस मोर्चे में ओम प्रकाश राजभर और बाबू सिंह कुशवाहा जैसे नेता हैं।
उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते समाजवादी पार्टी के सामने कई चुनौतियां हैं, सबसे बड़ी चुनौती वोटों के धु्रवीकरण को रोकना, अपने मूल मुस्लिम मतदाताओं के विघटन को रोकना, छोटे दलों को अपनी बैनर तले लाने की चुनौती और पिछड़े वर्गों की चुनौतियां हैं। और अति पिछड़ों का आधार और मजबूत बनाना होगा। इसके साथ ही ओबीसी वोटों में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे अन्य दलों को भी विफल करने की जरूरत है। इसके लिए समाजवादी पार्टी ने जातिगत समीकरणों को सुधारने का काम शुरू कर दिया है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने रणनीति के तौर पर संसद के मानसून सत्र के बाद पार्टी की रथयात्रा और साइकिल अभियान को तेज करने का फैसला किया है।
इतना ही नहीं समाजवादी पार्टी ने अन्य दलों से नाराज होने के बाद सपा में शामिल हुए असंतुष्टों को भी मौका देने की तैयारी कर ली है। प्रदेश भर में जातिगत सम्मेलनों के साथ-साथ सपा का बूथ प्रबंधन पर काफी जोर है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम ने बताया कि पिछले पंचायत चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहतरीन रहा है, जो सरकार के दावों के विपरीत है, ताकि सपा की ताजा स्थिति का बेहतर आकलन किया जा सके। पार्टी के युवा फ्रंटल लोहिया वाहिनी ने संगठन का विस्तार करते हुए अपने प्रदेश सचिव दीपांशु यादव को मनोनीत किया है। इसी तरह मुलायम सिंह यूथ ब्रिगेड के प्रदेश अध्यक्ष अनीश राजा ने कई जिलों में पदाधिकारी नियुक्त किए हैं।
समाजवादी युवजन सभा के अध्यक्ष अरविंद गिरि ने प्रदेश कार्यकारिणी में विस्तार करना शुरू कर दिया है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी समाजवादी पार्टी की इस रणनीति को पूरी तरह विफल बताती है। बीजेपी का कहना है कि जिस तरह से सपा, कांग्रेस और बसपा जातिगत समीकरण के आधार पर राजनीति करने की कोशिश कर रही हैं, उससे मौजूदा समय में काम नहीं होने वाला है।
बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के लिए यह विधानसभा चुनाव पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण है। मायावती अपने दलित वोटों की मदद से सत्ता पर काबिज रही हैं, लेकिन हाल के दिनों में दलितों के साथ पिछड़े वर्ग के बड़े चेहरे बहुजन समाज पार्टी से अलग होते जा रहे हैं। इन लोगों को या तो बसपा ने ही पार्टी से बाहर निकाल दिया या फिर धीरे-धीरे लोगों ने खुद को दूर कर लिया है। विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही बसपा कोर वोटरों के अलावा अन्य वोटों में भी सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। हालांकि यह निश्चित है कि बेहतर प्रदर्शन करने के लिए बसपा को पिछड़े मतदाताओं के मोर्चे पर मजबूत तैयारी करनी होगी। वर्तमान में हालात ऐसे हैं कि बसपा में पिछड़े और दलित नेता पार्टी से दूर-दूर किनारा किए हुए हैं। आरके पटेल, एसपी बघेल, डॉ मसूद अहमद, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, अब्दुल मन्नान, नरेंद्र कश्यप, आरके चौधरी, इंद्रजीत सरोज, जुगल किशोर, जंग बहादुर पटेल और राम लखन वर्मा जैसे बड़े नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। परिस्थितियां बताती हैं कि इन लोगों के अलग होने का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ेगा।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिए पर चल रही कांग्रेस ने भी अपनी राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के जरिए सरकार को घेरने और बड़े मुद्दों पर आवाज उठाने की कोशिश की है, लेकिन प्रदेश से उनकी मौजूदगी के बाद भी कांग्रेस की स्थिति में कुछ ज्यादा फर्क नहीं आया है। हालांकि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने अपनी पिछली यात्रा के दौरान स्पष्ट कर दिया था कि आने वाले दिनों में वह राज्य में रहेंगी और मजबूत विपक्ष की तरह लड़ाई लड़ेंगी, लेकिन वास्तविकता यह है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत ज्यादा बेहतर नहीं है।