इमरान प्रतापगढ़ी पर दर्ज एफआईआर रद्द, सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात पुलिस को याद दिलाई अभिव्यक्ति की आजादी

नई दिल्ली। कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिली है. शीर्ष अदालत ने सोशल मीडिया पर कविता पोस्ट करने के मामले में उनके खिलाफ दर्ज स्नढ्ढक्र को रद्द कर दिया. कविता संबंधी आरोपों पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौलिक अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए. पुलिस बुनियादी सुरक्षा की रक्षा करे. जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने यह फैसला सुनाया.
अभिव्यक्ति की आजादी पर शीर्ष अदालत ने कहा कि कविता, कला और व्यंग जीवन को सार्थक बनाते हैं. कला के माध्यम से अभिव्यक्ति की आजादी जरूरी है. विचारों का सम्मान होना चाहिए. इमरान प्रतापगढ़ी ने स्नढ्ढक्र रद्द करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की थी. गुजरात पुलिस ने इमरान प्रतापगढ़ी पर स्नढ्ढक्र दर्ज की थी. सोशल मीडिया पर पोस्ट कविता को लेकर एफआईआर दर्ज की गई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि संविधान के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है, लेकिन उचित प्रतिबंध नागरिकों के अधिकारों को कुचलने के लिए अनुचित और काल्पनिक नहीं होना चाहिए. कविता, नाटक, संगीत, व्यंग्य सहित कला के विभिन्न रूप मानव जीवन को अधिक सार्थक बनाते हैं और लोगों को इसके माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए.
जस्टिस एएस ओका ने कहा कि कोई अपराध नहीं हुआ. जब आरोप लिखित रूप में हो तो पुलिस अधिकारी को इसे पढऩा चाहिए, जब अपराध बोले गए या बोले गए शब्दों के बारे में हो तो पुलिस को यह ध्यान रखना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना ऐसा करना असंभव है. भले ही बड़ी संख्या में लोग इसे नापसंद करते हों. इसे संरक्षित करने की आवश्यकता है. जजों को बोले गए या लिखे गए शब्द पसंद नहीं आ सकते हैं, फिर भी हमें इसे संरक्षित करने और संवैधानिक सुरक्षा का सम्मान करने की आवश्यकता है. न्यायालयों को संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए सबसे आगे रहना चाहिए.
जस्टिस उज्ज्वल भुइयां ने कहा कि नागरिक होने के नाते पुलिस अधिकारी अधिकारों की रक्षा करने के लिए बाध्य हैं. जब धारा 196 बीएनएसएस के तहत अपराध होता है तो इसे कमजोर दिमाग या उन लोगों के मानकों के अनुसार नहीं आंका जा सकता है जो हमेशा हर आलोचना को अपने ऊपर हमला मानते हैं. इसे साहसी दिमाग के आधार पर आंका जाना चाहिए. हमने माना है कि जब किसी अपराध का आरोप बोले गए या बोले गए शब्दों के आधार पर लगाया जाता है, तो मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए बीएनएसएस की धारा 173(3) का सहारा लेना पड़ता है.

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