आजादी के बाद पहली बार होगी जाति आधारित जनगणना, सभी पार्टियों ने किया समर्थन

देश में आजादी के बाद पहली बार जाति आधारित जनगणना कराने की घोषणा की गई है। इस ऐतिहासिक फैसले को एक बड़े राजनीतिक स्ट्राइक के रूप में देखा जा रहा है।

4पीएम न्यूज नेटवर्कः देश में आजादी के बाद पहली बार जाति आधारित जनगणना कराने की घोषणा की गई है। इस ऐतिहासिक फैसले को एक बड़े राजनीतिक स्ट्राइक के रूप में देखा जा रहा है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल समेत कई विपक्षी
विपक्षी पार्टियां पिछले कई वर्षों से इस मुद्दे को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव बना रही थीं। अब जब सरकार ने इसका ऐलान कर दिया है, तो सभी राजनीतिक दल एकजुट होकर इसका समर्थन कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में बुधवार को कैबिनेट कमेटी ऑन इकोनॉमिक अफेयर्स (CCEA) की बैठक हुई, जिसमें इस निर्णय को मंजूरी दी गई। बैठक के बाद केंद्रीय सूचना एवं संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मीडिया को जानकारी देते हुए कहा कि सरकार ने मूल जनगणना के साथ-साथ जातीय जनगणना कराने का निर्णय लिया है। उन्होंने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों ने वर्षों तक इस मुद्दे को केवल एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया और जनहित के इस महत्वपूर्ण कदम को दरकिनार किया। जातीय जनगणना को लेकर अब राजनीतिक सहमति बनती दिखाई दे रही है, और इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।

केंद्र सरकार ने जाति आधारित जनगणना कराने को औपचारिक मंजूरी दे दी है। इस फैसले को राजनीतिक हलकों में विपक्षी दलों—खासकर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद)—पर एक बड़े राजनीतिक स्ट्राइक के तौर पर देखा जा रहा है। ये दल लंबे समय से जातीय जनगणना की मांग को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव बना रहे थे। सरकार के इस फैसले के बाद सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस पहल का समर्थन किया है। इसे राजनीतिक सहमति का दुर्लभ उदाहरण माना जा रहा है। वहीं, कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इस कदम का सीधा असर आगामी बिहार विधानसभा चुनाव पर भी पड़ सकता है, जहां जातीय समीकरणों का खासा प्रभाव रहता है। सूत्रों के मुताबिक, यदि जनगणना प्रक्रिया इसी साल शुरू हो जाती है, तो इसके आंकड़े 2026 के अंत तक सामने आने की संभावना है। यह कदम सामाजिक न्याय और नीति-निर्माण के लिहाज से बेहद अहम माना जा रहा है।

केंद्र सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना कराने के ऐलान के बाद राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई है। जहां सभी प्रमुख राजनीतिक दल इस फैसले का समर्थन कर रहे हैं, वहीं कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने इसे अपनी लंबे समय से चल रही मांग की जीत बताया है। राहुल गांधी पिछले 3-4 सालों से जातीय जनगणना की वकालत करते आ रहे हैं। उन्होंने इसे देश का “X-ray” बताते हुए बार-बार सरकार पर हमला बोला था। सरकार के फैसले के बाद राहुल गांधी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ (पूर्व में ट्विटर) पर लिखा: “कहा था ना, मोदी जी को ‘जाति जनगणना’ करवानी ही पड़ेगी, हम करवाकर रहेंगे। इससे साफ हो जाएगा कि देश की संस्थाओं और power स्ट्रक्चर में किसकी कितनी भागीदारी है।” उनकी इस टिप्पणी को विपक्ष की लंबे समय से चली आ रही लड़ाई के परिणामस्वरूप केंद्र सरकार के झुकाव के रूप में देखा जा रहा है। गौरतलब है कि भारत में आखिरी बार सभी जातियों की गणना वर्ष 1931 की जनगणना में की गई थी। इसके बाद आजादी के बाद से अब तक जाति आधारित व्यापक जनगणना नहीं की गई थी। ऐसे में यह फैसला ऐतिहासिक माना जा रहा है।

विभाजन के डर से नेहरू ने कर दिया था बंद
आजादी से पहले भारत में 1881 से 1931 के बीच की गई जनगणना के दौरान सभी जातियों की गणना की गई थी. लेकिन 1951 में स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) को छोड़कर जाति गणना को बंद करने का फैसला किया. यह निर्णय इस विश्वास पर आधारित था कि जाति पर ध्यान केंद्रित करने से विभाजन को बढ़ावा मिल सकता है और एक नए स्वतंत्र राष्ट्र में राष्ट्रीय एकता में बाधा उत्पन्न हो सकती है. एक दशक बाद 1961 में, केंद्र सरकार ने राज्यों से कहा कि वे चाहें तो अपने स्तर पर सर्वेक्षण कराएं और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूचियां तैयार करें. वहीं, 6 दशक से अधिक समय बाद अब अलग-अलग राजनीतिक दलों की मांगों के बाद सरकार ने अगली राष्ट्रव्यापी जनगणना में जाति गणना को शामिल करने का निर्णय लिया है.

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