जाति जो कभी जाती नहीं

जातिगत जनगणना पर रोक से नाराज नीतीश सरकर

  • वोट मांगने का बनते आधार
  • नेता व राजनीति के लिए जाजिव धर्म जरूरी

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
पटना। कहते है जाति वो है जो जाती नहीं है। भारत में जातियों को नजर अंदाज करना मुश्किल है। सामाजिक व्यवस्था से लेकर राजनैतिक व्यवस्था तक इससे प्रभावित होती है। भारतीय राजनीति हो या चुनाव, इनमें जातियों का बड़ा महत्व होता है। राजनीतिक पार्टिया या नेता जब कहते हैं कि हम जातियों को एकत्र कर रहे हैं तो हक़ीक़त में वे उन्हें बाँट रहे होते हैं। धर्म, जाति और समुदायों को बाँटने का यह सिलसिला अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है।
जब जरूरत पड़ती है, इन्हें ठोक- पीटकर एक कर लिया जाता है और ज़रूरत के अनुसार ही इन्हें फिर से बांटने में सारी ऊर्जा झोंक दी जाती है। आजकल ऐसा ममाला बिहार का चल रहा है। नीतीश कुमार की सरकार वहाँ जातीय जनगणना करवा रही है। आने वाली 15 मई को यह काम पूरा होने वाला था। गुरुवार यानी 4 मई को हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी है। अब कम से कम अगली सुनवाई तक सरकार जनगणना के आँकड़ों को सार्वजनिक नहीं कर सकती। हाईकोर्ट का कहना है कि जनगणना का काम केंद्र सरकार का है। राज्य यह तभी करवा सकता है जब विधानसभा में इस आशय का कानून पारित किया जाए।
मुझे लगता है कि इस मामले में सरकार ने अगर कानून विशेषज्ञों का सहारा लिया होता तो ऐसी फजीहत नहीं होती। यह गणना बिहार ही नहीं, बल्कि बिहार की राजनीति के लिए भी जरूरी मानी जा रही है। यह इतना ही जरूरी मुद्दा है कि विधानसभा में जब इस विधेयक को लाया गया तो इसका सर्वसम्मति से समर्थन किया गया। पक्ष-विपक्ष के तमाम नेताओं ने इसका दिल खोलकर स्वागत किया। हालांकि इस मामले में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और प्रदेश नेतृत्व के विचारों में अंतरविरोध दिखा। एक तरफ केंद्र की भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बताया कि केंद्र जाति आधारित जनगणना नहीं कराएगा तो दूसरी तरफ बिहार में भाजपा जतीय जनगणना के पक्ष में विरोधी नेताओं के सुर में सुर मिलाती रही। बिहार भाजपा आज भी जातीय गणना के समर्थन में है और बिहार सरकार पर होईकोर्ट में अपना पक्ष ठीक से नहीं रखने का आरोप लगाया है। हालांकि अन्य दलों ने भी सरकार पर विफलता का ठप्पा लगाने की कोशिश की है। सभी दल जातीय गणना से हासिल होने वाले आंकड़ों की आंच में अपनी-अपनी रोटी सेंकने का सपना संजो रहे हैं। इन आंकड़ों से समाज के शोषितों-वंचितों का कितना भला होगा यह तो वक्त बताएगा लेकिन इतना तो तय है कि आने वाले दिनों में बिहार में अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति जोर पकड़ेगी। मंडल-कमंडल का भी डंका बजेगा। हालांकि इस पर अभी अंतिम फैसला नहीं आया है। इसे अंतरिम रोक बताया गया है। अगली सुनवाई तीन जुलाई को होगी। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि तीन जुलाई को इस मामले में हाईकोर्ट की ओर से क्या प्रतिक्रिया आती है। लेकिन चार मई को जातीय गणना पर अंतरिम रोक लगाते हुए हाईकोर्ट ने जो प्रतिक्रया दी, वह काफी गंभीर थी। हाईकोर्ट ने कहा कि प्रथम दृष्टया हमारी राय है कि राज्य के पास जाति आधारित सर्वेक्षण कराने की कोई शक्ति नहीं है। जिस तरह से यह किया जा रहा है, वह एक जनगणना के समान है। ऐसा करना संघ की विधायी शक्ति पर अतिक्रमण होगा। जाति आधारित गणना के दौरान बिहार सरकार ने चालाकी से बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की। सरकार ने इसे जातीण जनगणना नहीं कहा, बल्कि इसका नाम जाति आधारित गणना दिया गया। कोर्ट को यह बताया कि यह जाति आधारित सर्वेक्षण है। लोगों ने वही समझा जो सरकार समझाना चाहती थी। हाईकोर्ट में सरकार की यह चालाकी पकडृी गई। विभिन्न संस्थाओं और कुछ व्यक्तियों द्वारा दायर की गई याचिका की सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि राज्य एक सर्वेक्षण की आड़ में एक जातिगत जनगणना करने का प्रयास नहीं कर सकता। खासकर जब राज्य के पास बिल्कुल विधायी क्षमता नहीं है और उस स्थिति में न ही भारत के संविधान की धारा 162 के तहत एक कार्यकारी आदेश को बनाए रखा जा सकता है। अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में हाईकोर्ट ने सर्वेक्षण और जनगणना के बीच के अंतर को भी बिल्कुल साफ शब्दों में रेखांकित किया है। हाईकोर्ट ने कहा है कि जनगणना सटीक तथ्यों और सत्यापन योग्य विवरणों के संग्रह पर विचार करता है। जबकि सर्वेक्षण का उद्देश्य आम जनता की राय और धारणाओं का संग्रह और उनका विश्लेषण करना है। सर्वेक्षण में ज्यादातर तार्किक निष्कर्ष होते हैं। राज्य द्वारा वर्तमान कवायद को केवल सर्वेक्षण के नाम पर जनगणना करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।

नीतीश कुमार ने फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया

मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। उन्होंने कहा है कि सर्वसम्मति इसे सदन से पास किया गया था। इसमें सबकी गिनती के साथ-साथ आर्थिक स्थिति का भी पता लगाया जाना है, चाहे वह किसी भी जाति का हो वा किसी भी समुदाय का। उन्होंने कहा है कि हम लोग सबके हित में यह काम कर रहे हैं। पता नहीं क्यों इसका विरोध हो रहा है। इससे तो पता चलता है कि लोगों को मौलिक चीजों की समझ नहीं है।दूसरी ओर बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इस मामले में भाजपा से चिढ़े हुए हैं और अभी भी आशान्वित हैं। उनका कहना है कि आज न कल जातिगत गणना जरूर होगी। वहीं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने इस मामले में सरकार की मंशा पर ही सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार जाति आधारित गणना करवाना ही नहीं चाहती थी। जिस कारण जानबूझकर ऐसा करवाया गया।
फिलहाल सवाल यह भी है कि अगर अंतिम रूप से इस पर रोक लग जाती है तो इस मामले में अभी तक जो समय, श्रम और संसाधन का दुरुपयोग हुआ है, उसकी जवाबदेही कौन लेगा? बिहार की सत्ता की बागडोर लंबे दिनों से उन्हीं लोगों के हाथ में है जिन लोगों ने समाजवाद का दामन पकडक़र अपना राजनीतिक चेहरा चमकाया था। लालू हों या नीतीश सबकी पहचान समाजवाद से जुड़ी है लेकिन उनके यहाँ, उनकी पार्टियों में समाजवाद की क्या स्थिति है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। असल में उनकी पार्टियों में अब समाजवाद नहीं, सामंतवाद का बोलबाला है। अगर उनके यहां समाजवाद होता तो आज राजद की बागडोर तेजस्वी के हाथों में नहीं होती।

राहुल ने भी उठाया था जातिगत गणना की बात

दरअसल, बिहार में जातियों का शुरू से सर्वाधिक महत्व रहा है। लम्बे समय से यहाँ माँग चल रही है कि जिस जाति का जितना हिस्सा जनसंख्या में है, उसे उतनी ही मात्रा में आरक्षण दिया जाए। पिछले दिनों कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी यह माँग उठाई थी और कहा था- जिसका जितना हिस्सा, उसकी उतनी भागीदारी तय हो। कुल मिलाकर बिहार में सारा मामला अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और आर्थिक पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) को लेकर चल रहा है। पिछली जनगणना के अनुसार बिहार में ओबीसी और ईबीसी की हिस्सेदारी 55प्रतिशत थी। कई सर्वे में बाद में यह दावा किया गया कि 2011 के बाद इस प्रतिशत में काफ़ी वृद्धि हो चुकी है। जदयू और राजद का दावा है कि बिहार में ओबीसी और ईबीसी की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत से भी अधिक हो चुकी है। 2024 में राजद और जदयू इसे भुनाना चाहते हैं। पिछड़े वर्ग का कहना है कि जब अनुसूचित जाति-जनजाति (एससी- एसटी) को जनसंख्या के आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है तो पिछड़ा वर्ग के लिए भी यही आधार क्यों नहीं माना जाता? नीतीश सरकार पिछड़े वर्ग के साथ न्याय करना चाहती है। राजद और जदयू का सबसे बड़ा वोट बैंक भी यही वर्ग है। हाईकोर्ट की रोक से सरकार या ये कहें कि जदयू और राजद आहत हैं। हालाँकि आँकड़े तो अब सरकार के पास आ ही गए होंगे। रोक के कारण वह इन्हें सार्वजनिक नहीं कर सकती। यही सबसे बड़ी अड़चन है। जब तक आँकड़े सार्वजनिक नहीं होते, इन्हें वोट में परिवर्तित करने में परेशानी आएगी। अगर ओबीसी वाक़ई सत्तर प्रतिशत हो गए हैं तो यह उन्हें बताया जाएगा और यह भी कि अब उनकी इस संख्या के आधार पर ही उनके साथ न्याय किया जाएगा, तभी तो प्रभाव पड़ेगा! इस बीच ओडिशा में भी जातीय जनगणना शुरू हो चुकी है। वहाँ की सरकार भी इसके पीछे गरीबों और पिछड़ों के प्रति न्याय का भाव देख रही है।

 

 

 

 

 

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