13 साल पुराने इस डेटा पर झारखंड में मचा है बवाल

नई दिल्ली। चुनावी साल में झारखंड में आदिवासियों और मुसलमानों की आबादी का मामला तुल पकड़ता जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी का आरोप है कि राज्य के संथाल परगना में पिछले कुछ सालों में आदिवासियों की संख्या में कमी आई है, जबकि यहां पर मुसलमान बढ़ गए हैं. पार्टी का कहना है कि यह सब साजिश के तहत हो रहा है.
पार्टी ने चुनाव आयोग में भी इसकी शिकायत की है. भौगोलिक तौर पर झारखंड 4 हिस्सों (संथाल परगना, कोल्हान, उत्तर छोटानागपुर और दक्षिण छोटानागपुर) में बंटा है. संथाल परगना इलाके में झारखंड के 6 जिले गोड्डा, देवघर, दुमका, जामताड़ा, साहिबगंज और पाकुड़ शामिल हैं.
झारखंड बीजेपी के मुताबिक साल 1951 में जब पहली बार जनगणना कराई गई थी, उस वक्त संथाल परगना के जिलों में आदिवासियों की आबादी 44.67 प्रतिशत थी. 9.44 प्रतिशत मुसलमान थे. 45.9 प्रतिशत आबादी दलित, ओबीसी और सवर्ण समाज की थी. 1971 में इस आंकड़ों में बढ़ोतरी देखी गई. साल 1971 में आदिवासियों की संख्या में गिरावट हुई और इस साल संथाल परगना में आदिवासी 44.67 से 36.22 प्रतिशत हो गए. मुसलमान 9.44 से बढक़र 14.62 प्रतिशत हो गए. 1981 के जनगणना में आदिवासियों की आबादी में मामूली बढ़त देखी गई. इस साल के जनगणना के मुताबिक यहां पर आदिवासियों की संख्या 36.80 प्रतिशत थी. वहीं मुसलमानों की संख्या में करीब 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई.
साल 2011 के जणगणना के मुताबिक संथाल परगणना में घटकर आदिवासी करीब 28 प्रतिशत पर पहुंच गए. वहीं मुसलमानों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी देखी गई. मुसलमान यहां बढक़र 22.73 प्रतिशत पर पहुंच गए.
संथाल परगना में मुसलमानों की आबादी बढऩे की 3 बड़ी वजहें बताई जा रही हैं-
1. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी के मुताबिक इस इलाके में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठियों का प्रवेश हुआ है. झारखंड का संथाल परगना बंगाल सीमा से लगा हुआ है और इसी के जरिए इन इलाकों में बांग्लादेशी आकर बस गए हैं.
2. पूर्व सीएम चंपई सोरेन ने विधानसभा में इसको लेकर एक बयान दिया था. उनके मुताबिक आदिवासियों की आबादी पूरे झारखंड में कम हुआ है. यह क्यों हुआ है, इसकी समीक्षा की जानी चाहिए. आदिवासियों को उसके हक और अधिकार मिले, तभी बात बन सकती है.
3. संथाल परगना में धर्म परिवर्तन भी आदिवासियों के कम होने की एक बड़ी वजह है. 2017 में सरकार ने इसको लेकर कानून भी बनाया था, लेकिन इसके बावजूद कई जगहों से जबरन धर्म परिवर्तन के मामले सामने आए हैं.
बीजेपी क्यों दे रही इस मुद्दे को तुल?
आबादी के इस मामले को बीजेपी विधानसभा से लेकर चुनाव आयोग और राज्यपाल तक के सामने उठा रही है. पार्टी चुनाव से पहले इस मामले को धार देना चाहती है. बीजेपी की इस रणनीति के पीछे 2 मुख्य कारण हैं.
1. हेमंत का आदिवासी और मुसलमान गठजोड़
साल 2019 में लोकसभ चुनाव हारने के बाद हेमंत सोरेन ने आदिवासियों और मुसलमानों का एक गठजोड़ तैयार किया था. हेमंत ने इसी समीकरण को साधने के लिए कांग्रेस और आरजेडी से गठबंधन किया. टिकट बंटवारे और मेनिफेस्टो में भी इन्हीं समुदाय को तरजीह दी.
हेमंत का यह समीकरण हिट रहा और बीजेपी की सरकार चली गई. हालिया लोकसभा चुनाव में भी आदिवासी और मुसलमानों ने इंडिया गठबंधन का समर्थन किया, जिसके कारण आदिवासी बहुल सभी 5 सीटें बीजेपी हार गई.
बीजेपी डेमोग्राफी का मुद्दा उठाकर इस समीकरण को झारखंड खासकर संथाल परगना में तोडऩा चाहती है. संथाल परगना के 6 जिलों में विधानसभा की कुल 18 सीटें हैं. 2019 के चुनाव में इन 18 में से सिर्फ 4 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी.
2. झारखंड में आदिवासियों को लुभाने की कोशिश
झारखंड आदिवासी बाहुल्य राज्य है. रघुबर दास को छोड़ दिया जाए तो अब तक जितने भी मुख्यमंत्री बने हैं, सब आदिवासी समुदाय के ही रहे हैं. राज्य में विधानसभा की 81 में से 28 सीट आदिवासियों के लिए रिजर्व है. रिजर्व सीट को छोड़ भी दिया जाए तो करीब 30 ऐसी सीटें हैं, जहां पर आदिवासी मतदाताओं का दबदबा है.
पिछले विधानसभा चुनाव में इन 28 में से सिर्फ 2 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी. यह दोनों ही सीट खूंटी जिले की थी. हालिया लोकसभा चुनाव में खूंटी में भी बीजेपी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है. पार्टी के कद्दावर नेता अर्जुन मुंडा यहां से चुनाव हार गए हैं.
ऐसे में आदिवासियों को साधना बीजेपी के लिए जरूरी है. यही वजह है कि बीजेपी आदिवासियों के मुद्दों को जोर-शोर से उठा रही है.

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