पश्चिम बंगाल SIR में सबसे बड़ा घोटाला उजागर, बिहार जैसा खेल दोहराने की तैयारी? ERO के पत्र से खुलासा

पश्चिम बंगाल में एसआईआर को लेकर भयंकर पेंच फंस गया है। बड़ी खबर निकल कर सामने आई है कि वोट डिलीशन में एक बड़ा खेल पकड़ा गया है।

4पीएम न्यूज नेटवर्क: पश्चिम बंगाल में एसआईआर को लेकर भयंकर पेंच फंस गया है। बड़ी खबर निकल कर सामने आई है कि वोट डिलीशन में एक बड़ा खेल पकड़ा गया है।

इलेक्ट्रोरल रेजिस्ट्रेशन ऑफिसर यानि कि ईआरओ संघ ने सीधे ज्ञानेश कुमार को चिट्ठी अपने अधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज उठाई है ईआरओ का दावा है कि उनको जो कानूनी अधिकार दिए गए हैं उपर जबरन अतिक्रमण किया जा रहा है। जैसे ही ये मामला सामने आया है पूरा हड़कंप मच गया हैं। क्यों ईआारओ ने सीधे ज्ञानेश कुमार को चिट्ठी लिख भयंकर विरोध जताया है और वोट डिलीशन में कौन सा बड़ा खेल पकडा गया है।

जैसा कि आप जानते है कि स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन मतलब मतदाता सूची की पूरी तरह से जांच करना है चुनाव आयोग कहता है कि ये मृत लोगों, फर्जी वोटरों और डुप्लिकेट नामों को हटाने के लिए है। लेकिन सच्चाई ये है कि ये बिहार में पहले हुआ, जहाँ लाखों नाम काटे गए। अब बंगाल में यही खेल खेला जा रहा है।बंगाल में 7.66 करोड़ वोटर थे। एसआईआर के बाद ड्राफ्ट लिस्ट में सिर्फ 7.08 करोड़ नाम बचे। मतलब 58 लाख से ज्यादा नाम कट गए। इनमें से कितने असली थे? कितने गरीबों के?

ये आंकड़ा खुद चुनाव आयोग ने दिया है। लेकिन सवाल ये है – क्या इतने सारे लोग मर गए? पूरे मामले को लेकर इंडियन एक्सप्रेस ने बड़ा खुलासा किया है। पश्चिम बंगाल के वेस्ट बंगाल सिविल सर्विस ऑफिसर्स एसोसिएशन ने मुख्य चुनाव अधिकारी को पत्र लिखा है। उन्होंने कहा है कि चुनाव आयोग का सॉफ्टवेयर खुद से नाम काट रहा है। ईआरओ को पता भी नहीं चलता।ये सिस्टम-ड्रिवन डिलीशन है। कानून के मुताबिक ईआरओ को नोटिस जारी करना, सुनवाई करनी और फैसला करना चाहिए। लेकिन यहाँ सॉफ्टवेयर सब कर रहा है।

ईआरओ सिर्फ नाम का ठीकरा लेगा।पत्र में लिखा है – ये बड़े पैमाने पर नाम कटवाए जा रहे हैं, बिना ईआरओ की जानकारी के। मतलब साफ है कि बिना ईआरओ के जानकारी के नाम काटे जाए रहे है और सब कुछ सीधे राज्य चुनाव आयोग या फिर केंद्रीय चुनाव आयोग कर रहा है। ऑफिसर्स ने अपने लेटर में साफ तौर पर लिखा है कि जब सबकुछ चुनाव अयोग को अपनी मर्जी से ही करना था तो ईआरओ नियुक्त करने की जरुरत क्या थी। ऐसे में ये बात साफ है कि कहीं न कहीं दाल में कुछ काला तो जरुर है क्योंकि जिस तरह से ईआरओ ही विरोध कर रहे हैं तो ऐसे में साफ है कि उनके हाथ में शायद कुछ नहीं है जबकि होना ये चाहिए कि ईआरओ खुद जांच करके रिपोर्ट लगाएंग और जरुरत पड़े तो बीएलओ को फील्ड में भी भेजें लेकिन शायद ऐसा नहीं हो रहा है।

पश्चिम बंगाल में ईआरओ शनिवार से सुनवाई करने की तैयारी कर रहे हैं ताकि यह तय किया जा सके कि लाखों मतदाताओं को मतदाता सूची में रखा जाएगा या नहीं। इस बीच, राज्य सेवा अधिकारियों के एक संघ ने बड़े पैमाने पर साफ्टवेयर से नाम हटाए जाने पर गंभीर चिंता व्यक्त की है, जिसके लिए ईआरओ को दोषी ठहराया जा सकता है, जबकि वे नोटिस जारी करने में शामिल नहीं हैं।

पश्चिम बंगाल के मुख्य निर्वाचन अधिकारी मनोज अग्रवाल को लिखे पत्र में, जिसकी एक प्रति मुख्य निर्वाचन आयुक्त ज्ञानेश कुमार के कार्यालय को भी भेजी गई, पश्चिम बंगाल सिविल सेवा (कार्यकारी) अधिकारी संघ ने बुधवार को पश्चिम बंगाल में चल रही विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया में मतदाताओं को स्वतः संज्ञान लेते हुए मतदाता सूची से हटाए जाने का मुद्दा उठाया। इस प्रक्रिया में मतदाताओं की वैधानिक भूमिका को दरकिनार किया जा रहा है।

पत्र में लिखा गया है कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 के अनुसार, मतदाताओं की पात्रता, जिसमें नागरिकता भी शामिल है, पर संदेह होने पर नोटिस जारी करने का अधिकार केवल मतदाताओं के पास है। हालांकि, मतदाता सूची के चल रहे एसआईआर में नोटिस जारी करने के लिए चुनाव आयोग के केंद्र की ओर से संचालित पोर्टल का उपयोग किया जा रहा है। इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ईआरओ, जिन्होंने अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया, ने कहा कि नोटिस ईसीआई सॉफ्टवेयर द्वारा तैयार किए जाते हैं, न कि संबंधित अधिकारी द्वारा। “हमारे पास नोटिस तैयार करने का बटन है।

जब हम इसका उपयोग करते हैं, तो नोटिस खुद बखुद तैयार हो जातीहै। वर्तमान में, सॉफ्टवेयर उन मतदाताओं के लिए नोटिस तैयार करता है जिनका मिलान 2002 के एसआईआर डेटा से नहीं हुआ है। तदनुसार, इन मतदाताओं को नोटिस भेजे जाते हैं। हालांकि, डेटा में ‘भ्रामक तर्क ’ वाले मतदाताओं के मामले में, हमारे पास यह तय करने का अधिकार नहीं है कि किस मतदाता को सुनवाई के लिए बुलाया जाएगा। यह निर्णय केवल ईसीआई द्वारा लिया जाएगा। वहीं दूसरी ओर ज्ञानेश कुमार को भेजे गए पत्र में राज्य सिविल सेवा अधिकारी संघ के महासचिव सैकत अशरफ अली ने लिखा है कि , “यह देखा गया है कि मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से बिना उनकी जानकारी के हटाए जा रहे हैं, जबकि कानून के अनुसार मतदाता सूची के लिए अधिकृत ईआरओ ही जिम्मेदार है। इस कार्रवाई से प्रभावित होने वाले आम लोग ईआरओ को ही दोषी ठहराएंगे, जबकि उन्हें यह पता नहीं है कि आयोग ने ईआरओ को पूरी प्रक्रिया से बाहर रखा है।”

इंडियन एक्सप्रेस के दावों के अनुसार अशरफ अली का दावा है कि चुनाव आयोग कानून का पालन करे और पारदर्शिता बरते। उन्होंने कहा, “यदि वे नाम हटाते हैं, और जैसा कि उन्होंने अब तक किया है, तो उन्हें लोगों को स्पष्ट करना चाहिए कि नाम हटाने के लिए ईआरओ जिम्मेदार नहीं है। अन्यथा लोग हमें दोषी ठहराएंगे। हम यह भी नहीं चाहते कि किसी भी वास्तविक मतदाता का नाम हटाया जाए।”

बंगाल के ईआरओ के अधिकारियों के संघ का दावा है कि ’मसौदा प्रकाशन की तारीख को यह पाया गया है कि काफी संख्या में ऐसे मतदाताओं को, जिनके जनगणना प्रपत्र मृत्यु, प्रवास, अनुपस्थिति या दोहराव जैसे कथित कारणों से वापस नहीं किए गए हैं, मसौदा मतदाता सूची से हटा दिया गया है। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और मतदाता पंजीकरण नियम, 1960 में उल्लिखित मौजूदा कानूनी प्रावधानों के संदर्भ में यह पाया गया है कि कानून स्पष्ट रूप से यह अनिवार्य करता है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे कि जब ‘संबंधित व्यक्ति निर्वाचन क्षेत्र का सामान्य निवासी न रह गया हो या वह उस निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीकृत होने का हकदार न हो’, तो सावधानीपूर्वक मतदाता का नाम मतदाता सूची से हटाया जा सकता है। साथ ही, ऐसे सभी मामलों में, ‘निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी संबंधित व्यक्ति को उसके संबंध में प्रस्तावित कार्रवाई के संबंध में सुनवाई का उचित अवसर प्रदान करेगा’ । इस संबंध में संपूर्ण पंजीकरण प्रक्रिया में मतदाता पंजीकरण अधिकारियों को एक अभिन्न भूमिका सौंपी गई है।

पश्चिम बंगाल अधिकारी संघ द्वारा उठाए गए मुद्दों के केंद्र में यह दावा है कि मतदाताओं की सूची से व्यक्तियों के नाम मतदाता पंजीकरण अधिकारी की जानकारी के बिना हटाए जा सकते हैं, जबकि कानून के अनुसार मतदाता ईआरओ ही नोटिस भेजने और यह तय करने के लिए सक्षम प्राधिकारी है कि कोई व्यक्ति वैध मतदाता है या नहीं। पश्चिम बंगाल के मुख्य मतदाता अग्रवाल ने इससे पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि 2002 में हुए अंतिम गहन मतदाता सूची संशोधन में जिन मतदाताओं का मिलान नहीं हो पाया, उनकी सुनवाई सबसे पहले शुरू की जाएगी और जिन मतदाताओं में “तार्किक विसंगतियां” पाई गई हैं, उनका अध्ययन किया जाएगा।

इस तरह का मामला बिहार एसआईआर में भी पेश आया था लेकिन क्योंकि वहां एनडीए की सरकार थी इस वजह से ये मुद्दा नहीं बन पाया था लेकिन बाद में इंडियन एक्सप्रेस ने ही इस बात का खुलासा किया था कि ईआरओ ने कोई जांच नहीं की बस उनको उनकी साइन वाले नोटिस मिले और इसको फारवर्ड कर दिया गया है। बिहार एसआईआर में भी दावा किया गया था कि ये नोटिस सीधे ज्ञानेश कुमार की के कार्यालय से आए थे और इसी के आधार पर सीधी-साीधे 68 लाख से ज्यादा मतदाताओं को उड़ा दिया गया। और अब बंगाल में भी यही कुछ होता दिख रहा है।

क्योंकि बंगाल में डबल इंजन की सरकार नहीं है तो यहां बीच एसआईआर में ही ये मुद्दा उठ गया है वरना बीजपीे के जितने भी राज्यों में एसआईआर की प्रक्रिया हो रही है वहां कहीं से भी ये मामला सामने नहीं आया है क्योंकि शायद कोई अफसर ये कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हो लेकिन बंगाल में यह मामला उठा है क्योंकि यहां डबल इंजन की सरकार नही हैं और ये बात पूरी तरह से कानून में भी है कि ईआरओ के पास ही किसी मतदाता को हटाने और जोड़ने का अधिकार है लेकिन जो बिहार के बाद बंगाल से खबरें आई हैं उसमें ये बात पूरी तरह से साफ हो गई है कि ज्ञानेश कुमार जी ईआरओ किनारे लगाकर खुद ही सारा काम सीधे केंद्रीय चुनाव आयोग कार्यालय से कर रहे हैं और यही बात लोगों के मन में संदेह पैदा कर रहीे है।

पूरे मामले पर आपको क्या मानना है। क्या ईआरओ के अधिकारों का हनन ज्ञानेश जी कार्यालय कर रहा है। अगर ईआरओ को ये तय करने का अधिकार नहीं है कि कौन से नाम काटे और कौन से नाम नहीं काटे जाएंगे तो फिर ये उनको बीच में क्यों रखा गया है। क्यों उनकी साइन का प्रयोग नाम को काटने के लिए किया जा रहा है।

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