मुख्य न्यायाधीश प्रोटोकाल उल्लंघन मामले ने पकड़ा तूल

  • जातिगत विमर्श की ओर मुड़ता सम्पूर्ण घटनाक्रम
  • सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल
  • दलित संगठनों और बुद्धिजीवियों में इस मुद्दे को लेकर असंतोष की लहर
  • उल्लंघन प्रशासनिक चूक या जानबूझकर किया गया व्यवहार!
  • महाराष्ट्र सरकार ने नहीं तोड़ी अभी तक चुप्पी
  • राहुल गांधी की सजा पर लगाई थी रोक तीस्ता सीतलवाड़ को दी थी जमानत

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
मुंबई। मुख्य न्यायधीश भूषण रामकृष्ण गवई प्रोटोकाल मामला अब तूल पकड़ रहा है। आरोप है कि संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति को राज्य सरकार की ओर से वह सम्मान और सुरक्षा नहीं दी गई जिसकी अपेक्षा की जाती है। इस प्रकरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दाखिल की गई है।
याचिका में प्रोटोकॉल के उल्लंघन की न्यायिक जांच की मांग की गई है। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं रही है और अब यह मामला धीरे-धीरे जातिगत विमर्श की ओर मुड़ता दिखाई दे रहा है। जस्टिस बीआर गवई का संबंध महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से है जो दलित आंदोलन का ऐतिहासिक गढ़ रहा है। वहां के दलित संगठनों और बुद्धिजीवियों में इस मुद्दे को लेकर असंतोष की लहर है। उनका मानना है कि यह घटना केवल एक व्यक्ति का नहीं बल्कि पूरे दलित समाज के आत्म-सम्मान का प्रश्न है।

अदालत की चौखट पर पहुंचा मामला

सीजेआई बीआर गवई की महाराष्ट्र यात्रा के दौरान प्रोटोकॉल के उल्लंघन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है। याचिका में केंद्र सरकार से कार्रवाई करने और राज्य के अधिकारियों की भूमिका की जांच करने का आग्रह किया गया है। जनहित याचिका में आधिकारिक प्रोटोकॉल के उल्लंघन के बारे में चिंता जताई गई है तथा केंद्र सरकार से उचित कार्रवाई करने तथा राज्य प्राधिकारियों से जुड़े मामले की जांच करने का आग्रह किया गया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश जैसे उच्च संवैधानिक प्राधिकारी की यात्रा को सम्मान के साथ माना जाता है और मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) और पुलिस आयुक्त जैसे वरिष्ठ राज्य अधिकारी आमतौर पर गणमान्य व्यक्ति की अगवानी करने के लिए मौजूद रहते हैं। ऐसे अधिकारियों की अनुपस्थिति से यह बहस छिड़ गई कि क्या न्यायपालिका की गरिमा का अनादर किया जा रहा है। इसके तुरंत बाद यह मामला गंभीर चिंता का विषय बन गया और जनहित याचिका के रूप में सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया।

सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और भविष्य की राह

सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका पर यदि सुनवाई होती है तो यह देखना दिलचस्प होगा कि न्यायपालिका इस मुद्दे पर क्या रुख अपनाती है। क्या वह इसे महज प्रोटोकॉल की चूक मानकर छोड़ देगी या फिर इस मामले को गहराई से जांचने का आदेश देगी? इसके अलावा यदि यह साबित होता है कि जानबूझकर अपमान किया गया है तो यह भारत के संवैधानिक ढांचे के लिए एक गंभीर चेतावनी होगी। ऐसी स्थिति में न केवल महाराष्ट्र सरकार की जवाबदेही तय होगी बल्कि यह अन्य राज्यों के लिए भी एक उदाहरण बनेगा।

क्या मामला जाति से जुड़ा है

न्यायमूर्ति बीआर गवई देश के दलित मुख्य न्यायाधीशों में से एक हैं और यही वह बिंदु है जहां से मामला जातिगत राजनीति की ओर मुड़ता है। दलित संगठनों और कई सामाजिक कार्यकर्ताओं का दावा है कि यह अपमान एक दलित व्यक्ति के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचने के कारण हुआ है। उनका तर्क है कि यदि कोई अगड़ी जाति का मुख्य न्यायाधीश होता तो राज्य सरकार कभी ऐसा व्यवहार नहीं करती। यहां तक कि कुछ ओबीसी नेताओं ने भी इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया दी है और इसे संविधान के मूल मूल्यों के खिलाफ बताया है।

देश के दूसरे दलित जज हैं

गवई का जन्म 24 नवंबर 1960 को अमरावती, महाराष्ट्र में हुआ था और उन्होंने अमरावती के एक प्राथमिक नगरपालिका स्कूल में पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने चिकित्सा समूह माध्यमिक शाला और मुंबई के होली नेम हाई स्कूल में पढ़ाई की। जस्टिस के जी बालकृष्णन के बाद गवई ऐसे दूसरे दलित जज हैं जो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य जज बने। अमरावती विश्वविद्यालय से वाणिज्य और कानून में डिग्री हासिल करने के बाद, वे 1985 में कानूनी पेशे में शामिल हो गए। वे पूर्व भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश हैं। वे 2003 से 2019 के बीच बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी रहे चुके हैं। 8 मई 2019 को हुई अपनी बैठक में, सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई का नाम सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए प्रस्तावित किया था। न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्ण गवई भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के नेता, महाराष्ट्र के विधायक, सांसद, तथा बिहार, सिक्किम व केरल इन तीन राज्य के राज्यपाल रह चूके रा सु गवई के पुत्र है।

जस्टिस गवई के ऐतिहासिक फैसलों का भी असर

जस्टिस गवई ने सुप्रीम कोर्ट के कई ऐतिहासिक फैसलों में अपना योगदान दिया है। वे संविधान पीठों का हिस्सा हैं। जस्टिस गवई ने ही अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द करने का फैसला सुनाया था। वे कई राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में शामिल रहे हैं। उदाहरण के लिए राहुल गांधी बनाम पूर्णेश ईश्वरभाई मोदी (2023) में वे उन तीन जजों की बेंच का हिस्सा थे जिनहोने राहुल गांधी की आपराधिक मानहानि की सजा पर रोक लगा दी थी । 2024 में वह उस डिवीजन बेंच में थे जिसने दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को 17 महीने की कैद के बाद ज़मानत दी थी। बेंच ने कहा था कि सिसोदिया की लंबी अवधि की कैद ने उन्हें त्वरित सुनवाई के उनके अधिकार से वंचित कर रखा है। जस्टिस गवई की नेतृत्व वाली एक बेंच ने पत्रकार तीस्ता सीतलवाड़ को ज़मानत दी थी जिसमें गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें ज़मानत देने से इनकार करने के तर्क को विकृत बताया गया था।

जानबूझकर किया प्रोटोकॉल का उल्लंघन!

जब कोई भी मुख्य न्यायाधीश राज्य की यात्रा पर होता है तो राज्य सरकार के प्रोटोकॉल विभाग द्वारा न केवल स्वागत की व्यवस्था की जाती है बल्कि सुरक्षा, आवास और अन्य सुविधाओं का भी ध्यान रखा जाता है। लेकिन रिपोट्र्स के मुताबिक न्यायमूर्ति बीआर गवई की नागपुर यात्रा के दौरान राज्य सरकार की ओर से न तो कोई वरिष्ठ अधिकारी उन्हें रिसीव करने पहुंचा और न ही विशिष्ट प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें सुविधाएं दी गईं। यह सवाल उठता लाजमी है कि क्या यह एक प्रशासनिक चूक थी या फिर जानबूझकर किया गया व्यवहार? महाराष्ट्र सरकार ने अब तक इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट बयान नहीं दिया है जिससे अटकलों को और बल मिला है।

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