सत्ता की आंखों में आंखें डालकर सवाल पूछना ही पत्रकारिता : संजय शर्मा
- द कॉन्क्लेव 2024 में मीडिया की लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में भूमिका पर बोले 4 पीएम के संपादक
- 4पीएम के संपादक बोले- आज गोदी मीडिया सत्ता के सामने नतमस्तक, निगाहें वैकल्पिक मीडिया की तरफ
- योगेंन्द्र यादव समेत कई दिग्गजों ने साझा किए अपने विचार
4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। सत्ता को अपने तीखे रिपोर्टिंग से असहज करने वाले 4पीएम के संपादक संजय शर्मा ने कहा है कि सत्ता की आंखों में आंखें डालकर सवाल पूछने को ही पत्रकारिता कहते हैं जो इस दौर में ख़त्म हो गया है। दिल्ली में आयोजित पूर्वोतर राज्य के एक बड़े मीडिया समूह प्रतिदिन के कॉन्क्लेव में बोलते हुए, उन्होंने कहा ये वो समय है जब गोदी मीडिया सत्ता के सामने नतमस्तक हो गया है ऐसे में लोगों की निगाहें वैकल्पिक मीडिया की तरफ़ लगी है।
यही कारण है कि लगभग दस महीने से 4पीएम यूट्यूब चैनल राजनैतिक टिप्पणीकारों में देश में पहले स्थान पर बना हुआ है। द कॉन्क्लेव 2024 के दूसरे दिन आयोजित एक विचारोत्तेजक पैनल चर्चा में, मौजूदा ध्रुवीकृत माहौल में मीडिया के सामने आने वाली महत्वपूर्ण चुनौतियों और इसकी जिम्मेदारियों पर चर्चा की गई। यह सत्र प्रतीदिन मीडिया नेटवर्क द्वारा आयोजित किया गया और इसकी मेजबानी नंदिनी मैगज़ीन की संपादक मैनी महंता ने की। पैनल में राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव, शिलॉन्ग टाइम्स की संपादक पेट्रीसिया मुखीम, 4पीएम न्यूज के प्रधान संपादक संजय शर्मा, और ईस्ट मोजो के प्रधान संपादक कर्मा पालजोर ने भाग लिया। चर्चा का विषय पत्रकारिता का भविष्य और इसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में बनाए रखने पर केंद्रित था। पैनल ने वैकल्पिक मीडिया प्लेटफार्मों के उदय को स्वीकार किया, जहां ध्रुव राठी और रवीश कुमार जैसी स्वतंत्र आवाजों के प्रभाव को पहचाना गया। हालांकि, यादव ने कहा कि व्यापक मीडिया सुधार आवश्यक हैं ताकि जनता का विश्वास बहाल किया जा सके।
संपादक संजय शर्मा ने व्यक्तिगत चुनौतियों को किया साझा
संजय शर्मा ने 4पीएम न्यूज़ के प्रधान संपादक के रूप में अपनी व्यक्तिगत चुनौतियों को साझा किया। उन्होंने बताया कि कैसे उनकी स्वतंत्र रिपोर्टिंग के कारण उन्हें सरकारी दबाव का सामना करना पड़ा। शर्मा ने मीडिया में बढ़ते सांप्रदायिक और कॉर्पोरेट विभाजन पर चिंता व्यक्त की और कहा कि पिछले 35 वर्षों में मैंने कभी मीडिया में ऐसा सांप्रदायिक विभाजन नहीं देखा। उन्होंने यह भी कहा कि महत्वपूर्ण खबरें अक्सर सनसनीखेज रिपोर्टिंग के नीचे दब जाती हैं, जिसे ब्रेकिंग न्यूज़ की होड़ के कारण चलाया जाता है।
लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में पुन: स्थापित करने पर चर्चा
अंत में, पैनल ने सर्वसम्मति से माना कि मीडिया एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है, और इसे लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में पुन: स्थापित करने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। चर्चा में मीडिया की पारदर्शिता, जवाबदेही और निष्पक्ष रिपोर्टिंग के प्रति नई प्रतिबद्धता पर जोर दिया गया, ताकि प्रेस की अखंडता को सुरक्षित रखा जा सके।
मीडिया जानबूझकर संघर्ष को बढ़ावा देता है : योगेन्द्र यादव
योगेंद्र यादव ने चर्चा की शुरुआत मीडिया की मौजूदा दिशा की तीखी आलोचना के साथ की। उन्होंने ब्रेकिंग न्यूज़ से ब्रेकिंग हेड्स (विभाजनकारी समाचार) की ओर मीडिया के रुझान पर चिंता व्यक्त की। यादव ने कहा, मीडिया जानता है कि वह क्या कर रहा है, लेकिन जानबूझकर संघर्ष को बढ़ावा देता है। उन्होंने भगत सिंह की मीडिया आलोचना का जिक्र करते हुए कहा कि आज की पत्रकारिता राजनीतिक ध्रुवीकरण को और गहरा कर रही है, खासकर 2014 के बाद से। यादव ने मीडिया पर बढ़ते कॉर्पोरेट प्रभाव को उजागर किया, असम के दीमा हासाओ जिले में 9,000 बीघा जमीन की बिक्री का उदाहरण दिया, जिसे प्रमुख समाचार चैनलों ने नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने राजनीतिक और कॉर्पोरेट हितों के बीच संबंध को दोषी ठहराते हुए कहा, आज का मीडिया अक्सर निजी हितों को सार्वजनिक जवाबदेही पर प्राथमिकता देता है।
पूर्वोत्तर राष्ट्रीय मीडिया में हाशिए पर है : पेट्रीसिया मुखीम
पेट्रीसिया मुखीम ने पूर्वोत्तर के राष्ट्रीय मीडिया में हाशिए पर होने की बात कही। उन्होंने कहा, उनके लिए, हम बस एक विस्तार हैं, और क्षेत्र की वास्तविक समस्याओं को नजरअंदाज करने की आलोचना की। मुखीम ने डिजिटल मीडिया के बढ़ते प्रभाव पर भी चिंता व्यक्त की और कहा कि इसमें जानकारी की उचित तथ्य-जांच की कमी है। उन्होंने ग्रामीण आवाजों को सही मायनों में प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता पर जोर दिया।
मीडिया के पेशे ने अपना उद्देश्य खो दिया : पालजोर
कर्मा पालजोर ने मीडिया की गिरावट पर कड़ा आकलन किया। उन्होंने कहा मीडिया लगभग सभी जगहों पर मर चुका है और इस पेशे ने अपना उद््देश्य खो दिया है। पालजोर ने पत्रकारों की भव्य जीवनशैली की आलोचना की, यह कहते हुए कि इससे पत्रकारिता की गंभीर समस्याओं पर ध्यान देने की विश्वसनीयता कम हो जाती है।