नेता जी को याद आया वादा, वोटों का सवाल है

चुनावी वर्ष आते ही उठाए जाते हैं जनहित के मुद्दे

  • सरकारें भी खोलतीं हैं खजाना
  • गांव-गांव जनसंपर्क अभियान शुरू करते हैं राजनीतिक दल

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां पर जनता ही सबसे बड़ी है। यहां पर जनता द्वारा ही नेता चुने जाते हैं। नेता संसद व अपनी राज्य विधानसभाओं के प्रति जवाबदेह होते हैं। चूकि अपने यहां चुनाव जनता के वोटों से होते हैं । जनता ही निणर्य करती है कि कौन नेता उसका नीति निर्धारक बनेगा। नेता को पांच साल बाद चुनाव में जाकर जनता से अपने लिए वोट मांगना पड़ता है। अमूमन देखने को आता है कि सत्ता पक्ष व या विपक्ष चुने जाने के बाद चार साल तो वह सत्त्ता के चकाचौंध में डूबा रहता है पर जैसे ही चुनावी साल करीब आता है जनता से जुड़ मुद्दों को उठाने लगता हैं कभी-कभी तो वह इतने आगे बढ़ जाते हैं कि आंदोलन तक करने लग जाते हैं। जनहित मामले कभी-कभी अदालतों में भी उठाए जाते हैं। ऐस तब होता है जब सरकारें ध्यान नही देती हैं।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि जिस प्रकार जब तक बच्चा नहीं रोता, मां उसे दूध नहीं पिलाती, उसी प्रकार जब तक जनता में सरकारों का विरोध नहीं होता तब तक वे भी जनहित की नीतियां लागू नहीं करतीं। रही चुनावी साल की बात, तो दोबारा सत्ता में काबिज होने की कोशिश के तहत सरकार को जनहित से जुड़ी नीतियां याद आती हैं। चुनाव निकट आने के साथ ही राजनीतिक दलों का गांव-गांव जनसंपर्क अभियान शुरू हो जाता है। चुनाव के परिणामों को अपने पक्ष मे लाने के प्रयासों में सरकार की नीतियों का महिमामंडन किया जाता है। पब्लिक, सब जानती है। चुनाव के नजदीक आते ही सरकार ज्यादा सक्रिय हो जाती है। धड़ाधड़ कामों की घोषणाएं की जाती हैं। जनता इसलिए खुश हो जाती है कि काम तो हो रहे हैं। नेताओं को सबसे बड़ा लालच सत्ता का होता है। चुनावी साल में सरकारों को जनहित की नीतियां इसलिए याद आती हैं, क्योंकि फिर सत्ता हासिल करनी होती है।सत्ताधारी दल को अपनी सरकार चले जाने का भय रहता है। इसी कारण नई-नई जनहित की नीतियों की घोषणा कर पुन: सत्ता प्राप्ति के भरसक प्रयास होते हैं। वहीं जो दल सत्ता से बाहर हैं, वे सत्तासीन होने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन जनता को देते हैं।

चुनाव आते ही होती हैं लोक लुभावन घोषणाएं

कुछ दल चुनावी वर्ष में ही सक्रिय होते हैं। जितना के वोट हासिल करने के लिए चुनावी वर्ष में अंधाधुंध घोषणाएं की जाती हैं। सरकारें कोशिश करती हैं कि जनता गलत निर्णयों को भूल जाए। मीडिया भी सरकारों को नहीं घेरता। इसलिए सरकारें निरंकुश हो जाती हैं। नेता यह सोचते हैं कि जनता को रिझा कर पुन: सरकार बना सकते हैं, लेकिन जनता सब जानती है। 4 साल नेता कुछ नहीं करते, लेकिन जब चुनाव आते हैं तभी जनता को बहलाने की कोशिश करते हैं, ताकि वोट बटोर सकें। जनता के हाथ में ही शक्ति है। इसलिए जनता को रिझाने के लिए जनहित की नीतियां चुनावी साल में ही बनाई जाती हैं। इसका उन्हें कभी-कभी फायदा भी मिल जाता है।

अदालतों में भी पहुंचते है जनहित के मामले

उच्चतम न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान, जनहित याचिकाओं के संदर्भ में सही कहा था, अगर इसको सही ढंग से नियंत्रित न किया गया और इसके दुरुपयोग को नहीं रोका गया, तो यह अनैतिक हाथों द्वारा प्रचार, प्रतिशोध और राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि का हथियार बन सकता है। जनहित की आड़ में आधारहीन याचिकाओं की निरंतर बढ़ती बाढ़ का भयावह खतरा, अदालतों के सिर पर मंडरा रहा है। विशेषकर तब, जब वर्षों से लंबित विचाराधीन मुक़दमे बढ़ते जा रहे हैं, जो एक बड़ी चुनौती भी है और गंभीर चेतावनी भी। दरअसल 1979-80 के आसपास विचाराधीन कैदियों, लावारिस बच्चों, वेश्याओं, बाल मज़दूरों और पर्यावरण के मुद्दों पर तमाम लोगों ने जनहित याचिकाएं दायर कीं। अदालत ने भी जनहित याचिकाओं की अनिवार्यता को समझा। न्याय व्यवस्था में आम लोगों के बढ़ते आक्रोश को शांत करने के लिए, यह ज़रूरी भी था और मजबूरी भी। हालांकि इससे सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लक्ष्य आधे-अधूरे ही रहे। शोषितों की आंख के आंसू कम नहीं हुए और राष्ट्रीय स्तर पर विषमता की खाई, लगातार चौड़ी और गहरी होती रही। सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति ए.के. माथुर और मार्कंडेय काटजू ने एक मामले का फ़ैसला सुनाते समय, अपनी नाराजग़ी ज़ाहिर करते हुए लिखा, भारत में मौजूदा न्यायिक हालात से जनता बेहद क्षुब्ध है। मुक़दमों में होने वाली जरूरत से अधिक देरी के कारण, न्याय व्यवस्था में उसकी आस्था तेज़ी से घट रही है. हम संंबंधित अधिकारियों से आग्रह करते हैं कि अगर न्यायपालिका में नागरिकों का विश्वास बनाए-बचाए रखना है, तो तुरंत आवश्यक कार्यवाही करें ताकि मामलों को गति से निपटाया जा सके।

 

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