जेल के माहौल को बखूबी दर्शाती है किताब जेल जर्नलिज्म

कानपुर के पत्रकार मनीष दुबे ने लिखी है किताब

खुद से साथ बीती घटना से रखी गई बुक की नींव

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। दिल्ली में हुए विश्व पुस्तक मेले के अंतिम दिन चर्चा के केंद्र में रही साल 2018 में आयी एक सनसनीखेज किताब ‘जेल जर्नलिज्म’। अपने कंटेंट को लेकर चर्चा में रहने वाली इस किताब को लिखा है कानपुर के रहने वाले मनीष दुबे ने, जो पेशे से पत्रकार हैं। दो भागों में लिखी इस किताब ने जेलों पर अब तक लिखे गए साहित्य में इस किताब ने अलग ही स्थान बनाया है। इस किताब की नींव तब रखी गई जब किताब के लेखक मनीष दुबे एक षडय़ंत्र में फंसकर दिल्ली की तिहाड़ जेल पहुंच गए। इस किताब की पूरी यात्रा से खुद रूबरू कराया लेखक मनीष दुबे ने।
अपने जेल जाने की घटना का जिक्र करते हुए मनीष दुबे ने बताया कि 31 दिसंबर 2010 की बात है। दिल्ली के एक संस्थान में काम करते हुए वहां के एक टॉप गैंगस्टर ने मुझे इंटरव्यू देने की पेशकश की। 31 दिसंबर को ही साक्षात्कार ऑर्गनाइज हुआ। इससे एक दिन पहले ये लोग कहीं किसी अपराध को अंजाम दे चुके थे। दिल्ली पुलिस ने गैंगस्टर को उठाया तो उसने उसके अपराध में मेरी भी संलिप्तता बता दी। बस यहीं से एक नाटकीय घटनाक्रम हुआ। पुलिस ने मुझे भी उठाया। पुलिस मुझे छोड़ देती लेकिन कुर्सी पर बैठे एसएचओ को लात मारना मुझे भारी पड़ गया और कुंडली में तिहाड़ दर्ज हो गई।

जो जैसा दिखा, वैसा ही परोसा

किताब में गाली-गलौज और अश्लीलता होने पर मनीष का कहना है कि ये सब कहानी का हिस्सा है। इसके बिना कुछ अधूरा सा लग दिख रहा था। वैसे भी मीठा-मीठा गप्प और कड़वा कड़वा थू की मेरी आदत कभी नहीं रही। जो है, जैसा है उसे वैसे ही क्यों नहीं लिखा जा सकता? नेता जी, पुलिस वाले गाली दे रहे हैं, हम सब सुन और देख रहे हैं उसे वैसे का वैसे ही लिखने में दिक्कत क्या है? जिस जगह हर समय हल्ला, हमला, मारो, काटो, बचाओ का शोर और चाकू, ब्लेड, चरस, गांजा, नशा की बात हो रही है उस जगह को रामराज्य कैसे दिखाया जा सकता है। किताब ऑनलाइन भी उपलब्ध है। गूगल प्ले स्टोर, अमेजन, फ्लिपकार्ट इत्यादी कई प्लेटफार्म्स पर किताब उपलब्ध है। गूगल पर जेल जर्नलिज्म बॉय मनीष दुबे हिंदी या अंग्रेजी में टाइप करना है किताब निकलकर सामने आ जाएगी।

यूं आया किताब लिखने का ख्याल

इस घटना के बाद किताब लिखने के सवाल पर मनीष ने बताया कि उस ग्यारह माह की कस्टडी में ही किताब लिखी थी। पर दिल्ली पुलिस ने मुझ पर दो मुकदमे लगाए थे। एक तो उस गैंगस्टर के साथ वाला और दूसरा जो एसएचओ को लात मारी थी। गैंगस्टर वाला मुकदमा 2014 में तारीखों के दौरान खत्म हो गया था। लेकिन एसएचओ वाला जो केस था उसमें मुझे सजा हो गई। साल 2015 की 16 दिसंबर को रोहिणी कोर्ट से मुझे कस्टडी में ले लिया गया। इससे पहले फरवरी 2014 को मेरी शादी हो चुकी थी। जेल हुई उस वक्त बेटी 6 माह की थी। पिछली कस्टडी में जो कुछ लिखा उसे भूल गया था। मुझे लगा एक बुरे सपने की तरह उसे भुला दिया जाए। लेकिन जब सजा हुई तो परिवार और छोटी बच्ची से दूरी का बड़ा कष्ट हुआ। बस यहीं से दिमाग में घर कर गया कि अब निकलकर जो काम तब नहीं हुआ उसे पूरा करना है। पहले पूरी कहानी एक ही किताब में थी। फिर लगा ये रामायण कौन पढ़ेगा? क्यों न दोनों कस्टडी को अलग-अलग भागों में दिखाया जाए। हो सकता है आगे किताब का तीसरा भाग भी आए!

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