‘महिलाओं के अधिकार महत्वपूर्ण लेकिन सामाजिक संतुलन भी जरूरी’, उत्तराधिकार कानून पर शीर्ष कोर्ट की टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं की जांच करते समय सावधानी बरतेगा और हजारों वर्षों से चली आ रही हिंदू सामाजिक संरचना और उसके मूल सिद्धांतों को खंडित करने के प्रति सावधान रहेगा। शीर्ष अदालत ने कहा, महिलाओं के अधिकार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सामाजिक संरचना और महिलाओं को अधिकार देने के बीच संतुलन भी होना चाहिए।
जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की पीठ-1956 के अधिनियम के तहत उत्तराधिकार के कुछ प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। पीठ ने कहा, हिंदू समाज के मौजूदा ढांचे को कमजोर न करें। एक अदालत के रूप में हम आपको सावधान कर रहे हैं। एक हिंदू सामाजिक संरचना है और आप इसे गिरा नहीं सकते… हम नहीं चाहते कि हमारा फैसला हजारों वर्षों से चली आ रही किसी चीज को तोड़ दे।
पीठ ने व्यापक मुद्दों पर विचार-विमर्श के बाद समाधान तलाशने के लिए संबंधित पक्षों को सर्वोच्च न्यायालय के मध्यस्थता केंद्र में भेज दिया। एक याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दलील दी कि चुनौती दिए गए प्रावधान महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण और बहिष्कार करने योग्य हैं। सिब्बल ने कहा, केवल परंपराओं के कारण महिलाओं को समान उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
अधिनियम की धारा 15 के अनुसार, बगैर वसीयत मृत्यु पर महिला की संपत्ति ससुराल वालों की होगी
केंद्र की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने इस कानून का बचाव करते हुए इसे सुव्यवस्थित बताया और आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता सामाजिक ढांचे को नष्ट करना चाहते हैं। शीर्ष अदालत के समक्ष विचारणीय मुद्दा हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 और 16 है, जो बिना वसीयत किए मरने वाली हिंदू महिलाओं की संपत्ति के हस्तांतरण से संबंधित है। अधिनियम की धारा 15 के अनुसार, जब किसी हिंदू महिला की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है, तो उसकी संपत्ति उसके अपने माता-पिता से पहले उसके पति के उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित होती है।



