हाशिए पर पहुंचा हाथी कर रहा फाइट में वापसी की तैयारी, इस फार्मूले के दम पर

लखनऊ। लगातार चार चुनावों में हार चुकी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के लिए 2022 में करो या मारने की स्थिति है। यही वजह है कि मायावती ने एक बार फिर पुराना हिट फॉर्मूला खेला है। इसकी मदद से 2007 में वह सत्ता हासिल कर पाईं थीं। हालांकि सत्ता हासिल करने का एक ही फार्मूला बार-बार सही साबित होता ऐसा बहुत ही कम होता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या 2007 का फॉर्मूला 2022 में काम करेगा? विशेषज्ञों का मानना है कि समय और परिस्थितियों दोनों में काफी बदलाव आए हैं। वैसे भी न तो समय बचा है और न ही पार्टी की ताकत बची है।
दरअसल, जब 2007 में बसपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी तो ग्रामीण इलाकों में भाजपा और संघ इतने मजबूत नहीं थे। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी भाजपा और संघ का संगठन मजबूत हुआ है। इसलिए बीजेपी का मुकाबला करना इतना आसान नहीं है, क्योंकि बीजेपी ने न तो मंदिर का मुद्दा छोड़ा और न ही हिंदुत्व का।
एक समुदाय विशेष की राजनीति करने के लिए जरूरी है कि उस समुदाय के बड़े चेहरे अपना झंडा बुलंद करें। बीएसपी में ब्राह्मण नेताओं की भारी कमी है। सिर्फ सतीश चंद्र मिश्रा का नाम सामने आता है। चुनावी मौसम को छोडक़र बाकी समय तक उनका नाम गायब रहता है। ऐसी स्थिति में ब्राह्मण मतदाता अचानक बीएसपी के पक्ष में कैसे लामबंद हो जाएंगे?
दबी जुबान ऐसी चर्चा अक्सर होती रहती है कि अगर कोई सपा में खड़ा होगा तो यादवों के बाद। इसी तरह बीएसपी में दलितों के बाद ही किसी का नंबर आएगा। ब्राह्मण समाज आगे की पंक्ति में खड़ा होने की लालसा करता है। ऐसी स्थिति में वह बसपा के साथ होकर दूसरी पंक्ति में क्यों खड़ा होना चाहेंगे।
हो सकता है कि कुछ ब्राह्मण नेता बहन जी की सरकार में रहे हों और उनको इसका लाभ भी मिला हो लेकिन, इससे समुदाय का क्या अच्छा हुआ है? इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं है। सतीश चंद्र मिश्र के लिए यह बात खुलकर कही गई है। बसपा सरकार के तहत दलितों के लिए जो काम किया गया, क्या वैसा ही काम और व्यवहार ब्राह्मण समुदाय के साथ भी किया गया है। यह भी एक ऐसा प्रश्न है जो बसपा की मुश्किल बढ़ा सकता है। ऐसी स्थिति में जब बसपा सरकार की परख एक समुुदाय विशेष को लेकर पहले ही हो चुकी है ऐसे में यह फार्मूला कितना कारगर होगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
सतीश चंद्र मिश्र हर ब्राह्मण सम्मेलन में दावा करते हैं कि अगर 13 प्रतिशत ब्राह्मण और 23 प्रतिशत दलित एक साथ मिलते हैं तो सरकार पलट जाएगी। पहली बात यह है कि यूपी में ब्राह्मणों की आबादी 13 प्रतिशत बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जाती है । सही अनुमान लगाने वालों का मानना है कि 8-10 प्रतिशत आबादी है । इसके बाद बसपा के दलित वोट बैंक में ही दरार आ गई है। पिछले चुनावों में गैर जाटव मतदाताओं ने अपना रुख बदला था। जब बसपा का बेस वोटबैंक ही पूरी तरह से उसके साथ नहीं है तो ब्राह्मण पूर्ण रूप से उसके साथ होंगे ये स्थिति अभी काल्पनिक लगती है।

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