सर्वे नहीं साजिश आयोग चुप, डाटा बोल रहा झूठ

  • एग्जिट पोल या फिर मूड मैनेजमेंट टूल!
  • चुनाव आयोग की रोक के बावजूद परोसे जा रहे हैं एग्जिट पोल
  • जिम्मेदार कौन- कौन करेगा कार्रवाई?
  • 126ए के तहत एग्जिट पोल और ओपिनियन पोल पर परिणाम आने तक लगी है रोक

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
पटना। बिहार की सियासत में मौसम का मिजाज बदला नहीं है बस हथियार बदल गए। पहले जनता का जनादेश तय करता था कि सत्ता की बागडोर किसके हाथ में जाएगी अब यह काम सर्वे कर रहे हैं। अजीब विडंबना है चुनाव आयोग ने जब साफ आदेश जारी किया है कि नतीजे आने तक किसी भी प्रकार का एक्जिट या ओपिनियन पोल प्रकाशित नहीं होगा तब भी मीडिया चैनलों और सर्वे एजेंसियों ने लोकतंत्र की नाक पर रूमाल रख दिया है और धड़ल्ले से सर्वे जारी किये जा रहे हैं। इन दिनों यह जो तालिका सोशल मीडिया पर घूम रही है कि एनडीए को 147 से 167 सीटें एमजीबी को 70 से 90 सीटें मिलेगी यह सिर्फ नंबर नहीं हैं यह एक मानसिक खेल है जो चुनावी सौदागर निर्लज तरीके से खेल रहे हैं। ये आंकड़े सत्ता की आस्था नहीं बल्कि सत्ता की आकांक्षा हैं। कानून कहता है कि रिप्रिजेंटेशन आफ द पीयुपिल एक्ट 1951 की धारा 126 अ के तहत किसी भी राज्य में मतदान शुरू होने से लेकर नतीजे आने तक एक्जिट पोल या ओपिनियन पोल को प्रसारित करना अपराध है। तो फिर अब सवाल उठाना लाजमी है कि चुनाव आयोग की रोक के बवाजूद एक्जिट पोल के नाम पर सर्वे कैसे बाहर आ रहे हैं? और अगर आ रहे हैं तो किसके इशारे पर ? क्या यह डाटा पत्रकारिता है या फिर लोकतंत्र की हेराफेरी?

जनता का दुख नहीं सत्ता का सुख मांपता है सर्वे

बिहार में चुनाव सिर्फ जाति और पार्टी का नहीं होता यह सम्मान और अस्मिता का युद्ध होता है। यहां का मतदाता सियासत को गिनती से नहीं गौरव से जोड़ता है। लेकिन सर्वेक्षण इस गौरव को नंबर्स में तोलने की कोशिश कर रहे हैं। 2025 के जो आंकड़े प्रसारित हो रहे हैं उनमें एनडीए को 167 तक और महागठबंधन को 70 सीटे मिलने की बात कही जा रही है जबकि सर्वे का डाटा बिहार की जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाता दिखाई दे रहा है। चुनाव में बेरोजगारी, शिक्षा, पलायन, किसानों की परेशानी जैसे मुद्दे हावी रहे पर सर्वे का कोई भी कालम इन सवालों को नहीं मापता। यानी डाटा जनता के दुख को नहीं सत्ता के सुख को नापता है।

सर्वे अब सच्चाई नहीं बताते बल्कि सच्चाई बनाते हैं

सर्वे का खेल केवल राजनीति का नहीं है बल्कि पैसे का भी है। कई एजेंसियां इंडिपेंडेंट नाम से सर्वे करती हैं पर पीछे से उनका फंडिंग किसी मीडिया हाउस का विज्ञापनदाता होता है या फिर किसी राजनीतिक दल का थिंक टैंक। इस तरह के मैनेज्ड पोल्स का उद्देश्य यह नहीं होता कि जनता की नब्ज समझी जाए बल्कि यह कि जनता की नब्ज बदली जाए। एड गुरू राजीव शुक्ला कहते हैं कि सर्वे अब सच्चाई नहीं बताते बल्कि सच्चाई बनाते हैं। यह वाक्य बिहार की मौजूदा परिस्थिति पर एकदम सटीक बैठता है। 2025 के इन लीक्ड सर्वे का लक्ष्य जनता को यह विश्वास दिलाना है कि एनडीए की जीत तय है।

चौथा खम्भा या फिर चौथा ठेकेदार

मीडिया जो कभी जनता की आवाज कहलाता था अब जनता का मन बदलने वाला टूल बन चुका है। बड़े-बड़े चैनलों के स्क्रीन पर फ्लैशिंग ग्राफिक्स, हाई डेफिनिशन बार ग्राफ्स, और एक्सपर्ट्स पैनल की बारात घूम रही है। मगर हम आपको बताते हैं कि यह भीतर की सच्चाई नहीं है बल्कि यह सब डाटा का नाटक चल रहा है। 2025 का बिहार सर्वे भी उसी स्क्रिप्ट पर लिखा गया है। मैटराइज, पीपुल्स इंसाइट, चाणक्य, पोल ऑफ पोल्स यह नाम सुनने में वैज्ञानिक लगते हैं लेकिन इनकी सैंपल साइज, कार्यपद्धति, और ग्राउंड टीम की पारदर्शिता पर कोई जवाब नहीं देता। सर्वे एजेंसियों से पूछा जाए कि उन्होंने कितने जिलों में फील्ड रिसर्च किया तो जवाब आता है यह गोपनीय जानकारी है। गोपनीयता लोकतंत्र का गहना नहीं षड्यंत्र का पर्दा है।

मूड आफ नेशन तैयार करते हैं

हर चुनाव में यह प्रवृत्ति देखी गई है कि विजेता का अनुमान बताने वाले सर्वे मूड ऑफ द नेशन तैयार करते हैं। यह प्री पोल माइंड गेम होता है। राजनीतिक दल जानते हैं कि जनता का एक बड़ा हिस्सा विजेता की तरफ झुकता है। तो सर्वे वही करते हैं जो विजेता को घोषित कर सके। यही वजह है कि हर बार आंकड़े सत्ता के पक्ष में झुकते दिखते हैं। बिहार की गलियों में आज भी यह वाक्य आसानी से सुने जा सकते हैं कि हमारे वोट पर दिल्ली के चैनल का नहीं गोपालगंज के खेत का असर पड़ता है। यह वाक्य ही इन सर्वेक्षणों की झूठी महिमा का अंतिम संस्कार करने के लिए काफी है।

कानून की धज्जियां उड़ाना अब आदत बन चुकी है?

चुनाव आयोग ने 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले सभी मीडिया संस्थानों को स्पष्ट चेतावनी दी थी कि किसी भी प्रकार के सर्वेक्षण, अनुमान, या मतदान प्रवृत्ति का प्रकाशन चुनाव की प्रक्रिया के दौरान अपराध माना जाएगा और आयोग ऐसे व्यक्तियों/संस्थानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराएगा। कानून कहता है कि इन मामलों में 2 वर्ष तक की सजा का आदेश है। लेकिन चुनाव आयोग की कौन सुनता है अधिकतर मीडिया संस्थानों की आदेश की धज्जियां उड़ाना अब आदत बन चुकी है। हर बार यह बहाना बना दिया जाता है कि यह ओपिनियन पोल है एक्जिट पोल नहीं। पर सच यह है कि दोनों का मकसद जनता की राय को प्रभावित करना है। दरअसल चुनावी मौन अवधि में ऐसा सर्वे प्रचारित करना मतदाताओं के मानस पर सीधा असर डालता है। यह एक सॉफ्ट प्रोपेगेंडा मशीन है जो मतदाता को यह सोचने पर मजबूर करती है कि बहुमत तो पहले ही तय हो चुका है। यानी चुनाव से पहले ही चुनाव का माहौल तय कर देना यही है डाटा की राजनीति।

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