इलेक्टोरल ट्रस्ट और कारपोरेट्स के चंदे में बीजेपी ने मारी बाजी, कांग्रेस का ग्राफ गिरा
एक ओर जहां बड़ी खबर निकल कर आई है इलेक्टोरल बांड की जगह अब इलेक्टोरल ट्रस्ट ने ले ली है तो वहीं इस साल चंदे के धंधे में बीजेपी एक बार फिर से नंबर वन हुई।

4पीएम न्यूज नेटवर्क: एक ओर जहां बड़ी खबर निकल कर आई है इलेक्टोरल बांड की जगह अब इलेक्टोरल ट्रस्ट ने ले ली है तो वहीं इस साल चंदे के धंधे में बीजेपी एक बार फिर से नंबर वन हुई।
बीजेपी पर इलेक्टोरल ट्रस्ट और कारपोरेट्स जमकर मेहरबान दिखे हैं लेकिन यह मेहरबानी क्यों है इससे न तो कोई जानने वाला है और न ही बताने वाला। तो चलिए जानते हैं कि इस साल बीजेपी और देश दूसरी पड़ी पार्टी कांग्रेस को कितना चंदा मिला है और कौन कौन से वो इलेक्टोरल ट्रस्ट या कारपोरेट्स हैं जो बीजेपी पर मेहरबान हैं।
वैसे तो सारे राजनीतिक दल खुद को देश सेवक, जनता के सेवक बताने का दावा करते है। एक ओर जहां वो जनता के टैक्स की गाड़ी कमाई को बतौर सैलरी जनता की सेवा के बदले लेते हैं तो वहीं दूसरी एक्ट्रा इनकम का भी भयंकर जुगाड़ इसके पास कारपोरेट्स और इलेक्ट्रोरल ट्रस्ट के जरिए होता है। इलेक्टोरल ट्रस्ट एक तरह की संस्थाएं होती हैं जो कई कंपनियां मिलकर बनाती हैं। ये ट्रस्ट कंपनियों से पैसे इकट्ठा करते हैं और फिर राजनीतिक दलों को बांटते हैं। नियम है कि ट्रस्ट को मिले पैसे का कम से कम 95 प्रतिशत हिस्सा दलों को देना पड़ता है। यह सब चुनाव आयोग को रिपोर्ट किया जाता है, ताकि पारदर्शिता बनी रहे। लेकिन क्या वाकई पारदर्शिता है? ये अपने आप में एक अबूझ पहेली है।
साल 2024 सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्ट्रोरल बॉन्ड को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। इलेक्टोरल बॉन्ड एक ऐसी योजना थी जहां दानदाता गुप्त तरीके से पैसे दे सकते थे, और किसी को पता नहीं चलता था कि कौन किस दल को कितना दे रहा है। कोर्ट ने कहा कि यह असंवैधानिक है क्योंकि इससे पारदर्शिता खत्म होती है। बॉन्ड बंद होने के बाद, कंपनियां अब इलेक्टोरल ट्रस्टों के जरिए चंदा दे रही हैं। और नतीजा यह हुआ है कि बीजेपी को इस साल रूपए6,088 करोड़ का चंदा मिला है और वहीं कांग्रेस को सिर्फ रूपए 522 करोड़ ही मिल पाए हैं। यानी बीजेपी को कांग्रेस से करीब 12 गुना ज्यादा पैसे मिले। पिछले साल 2023-24 में बीजेपी को रूपए3,967 करोड़ मिले थे, जो इस साल 50 प्रतिशतबढ़ गए। जबकि कांग्रेस के चंदे घटकर रूपए1,130 करोड़ से रूपए522 करोड़ हो गया है।
यह आंकड़े हमारे नहीं हैं बल्कि चुनाव आयोग की वेबसाइट से लिए गए हैं। लेकिन सवाल यह है कि इतना अंतर क्यों? क्या बीजेपी की नीतियां इतनी लोकप्रिय हैं कि कंपनियां खुद-ब-खुद पैसे दे रही हैं? या फिर कुछ और खेल है? हम फैक्ट्स देखते हैं। कुल 19 इलेक्टोरल ट्रस्टों में से 13 ने ईसीआई को रिपोर्ट दी। इन ट्रस्टों से कुल चंदा ₹3,811 करोड़ का था। और इसमें से बीजेपी ने 85 प्रतिशत हिस्सा हासिल किया, जो पिछले साल के 56 प्रतिशत से काफी ज्यादा है। यानी कि कंपनियां अब ट्रस्टों के जरिए बीजेपी को ज्यादा पैसे भेज रही हैं लेकिन इसमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि ये डोनर्स कौन हैं जो बीजेपी को इतना पैसा भेज रहे हैं।
13 ट्रस्टों में सबसे बड़ा ट्रस्ट है प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट है। इस ट्रस्ट ने इस साल बीजेपी को रूपए2,180.7 करोड़ दिए और कांग्रेस को सिर्फ रूपए216.3 करोड़ चंदे के रुप में दिया है। सवाल यह भी है कि प्रूडेट ट्रस्ट को ये पैसे कहां से मिले। उदाहरण के तौर पर, एलिवेटेड एवेन्यू रियल्टी एलएलपी से रूपए500 करोड़, जो लार्सन एंड टुब्रो यानि कि एल एंड टी से जुड़ी है। जैसा कि आप जानते हैं कि एल एंड टी एक बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी है, जो सरकारी प्रोजेक्ट्स पर काम करती है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या ये सिर्फ संयोग है कि ऐसाी कंपनियां बीजेपी पर जमकर पैसे खर्च कर रही हैं।
दूसरा बड़ा ट्रस्ट है प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट है। इसने बीजेपी को रूपए757.6 करोड़ और कांग्रेस को रूपए77.3 करोड़ दिए। तीसरा है एबी जनरल इलेक्टोरल ट्रस्ट, जिसने बीजेपी को रूपए606 करोड़ और कांग्रेस को सिर्फ रूपए15 करोड़। इन तीन ट्रस्टों ने ही बीजेपी के चंदे का बड़ा हिस्सा कवर कर लिया।अब कॉर्पाेरेट्स की बात करें। कई बड़ी कंपनियां सीधे या ट्रस्टों के जरिए चंदा दे रही हैं। बीजेपी के टॉप डोनर्स में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने रूपए100 करोड़ , रुंगटा ग्रुप ने रूपए95 करोड़, बजाज ग्रुप ने रूपए74 करोड़, आईटीसी ग्रुप ने रूपए72.5 करोड़, हीरो एंटरप्राइज ने रूपए70 करोड़, वेदांता ग्रुप ने रूपए65 करोड़ दिए हैं। वहीं कांग्रेस के लिए टॉप डोनर्स में सेंचुरी प्लाईवुड्स ने रूपए26 करोड़, आईटीसी लिमिटेड ने रूपए15.5 करोड़, कोटक ग्रुप ने रूपए10 करोड़, हिंदुस्तान जिंक ने ₹10 करोड़ दिया है।
ऐसे में एक बात साफ हे कि बीजेवपी को मिलने वाले चंदे में बड़ी-बड़ी कंपनियां जैसे टाटा, ओपी जिंदल ग्रुप, एल एंड टी, मेघा इंजीनियरिंग, अशोक लेलैंड, डीएलएफ और महिंद्रा शामिल हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि ये कंपनियां क्यों बीजेपी को इतना ज्यादा पैसे दे रही हैं? क्या इसलिए कि बीजेपी सत्ता में है और ये कंपनियां सरकारी कॉन्ट्रैक्ट्स, नीतियों या फायदों की उम्मीद रखती हैं?यह कोई नई बात नहीं है। इलेक्टोरल बॉन्ड के समय भी बीजेपी को सबसे ज्यादा फायदा हुआ था।
बॉन्ड स्कीम में कुल रूपए16,000 करोड़ से ज्यादा के बॉन्ड बिके, और बीजेपीको आधे से ज्यादा मिले। लेकिन कोर्ट ने इसे बंद कर दिया क्योंकि इससे दानदाताओं की पहचान छिपी रहती थी। अब ट्रस्टों के जरिए पारदर्शिता तो थोड़ी बढ़ी है, लेकिन फिर भी असमानता बनी हुई है। इनकम टैक्स एक्ट की धारा 80 जीजीबीके तहत कंपनियां राजनीतिक चंदे पर 100 प्रतिशत टैक्स छूट पाती हैं। यानी वे पैसे देकर अपना टैक्स बचाती हैं और दल को फायदा पहुंचाती हैं। लेकिन क्या यह सही है? क्या इससे अमीर कंपनियां राजनीति पर कब्जा नहीं कर लेतीं?अब सोचिए, इस असमान फंडिंग का क्या असर पड़ता है।
बीजेपी के पास इतना पैसा है कि वह चुनावों में ज्यादा विज्ञापन कर सकती है, ज्यादा कार्यकर्ता रख सकती है, ज्यादा रैलियां कर सकती है। वहीं कांग्रेस जैसे विपक्षी दल पैसे की कमी से जूझते हैं। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है क्योंकि इससे खेल का मैदान असमान हो जाता है। सभी दलों को बराबर मौका मिलना चाहिए, लेकिन यहां एक दल 85 प्रतिशत चंदा चला जा रहा है। विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे कॉर्पाेरेट प्रभाव बढ़ता है। कंपनियां चंदा देकर नीतियां अपने फेवर में करवा सकती हैं, जैसे टैक्स कट, लैंड डील्स या कॉन्ट्रैक्ट्स।
उदाहरण के तौर पर, मेघा इंजीनियरिंग ने इलेक्टोरल बॉन्ड के समय बीजेपी को बड़ा चंदा दिया था और बड़े प्रोजेक्ट्स मिले थे। अब ट्रस्टों के जरिए भी यही हो रहा है।लेकिन क्या सिर्फ बीजेपी जिम्मेदार है? नहीं, सिस्टम में खामी है। सभी दलों को चंदा मिलता है, लेकिन सत्ता में होने से बीजेपीको फायदा मिल रहा है। कांग्रेस जब सत्ता में थी, तब उसे भी ज्यादा चंदा मिलता था। लेकिन अब अंतर इतना बड़ा है कि यह चिंता का विषय है। चुनाव आयोग को और सख्त नियम बनाने चाहिए, जैसे चंदे में पूरी पारदर्शिता। दुनिया के कई देशों में राजनीतिक फंडिंग पर सख्त कानून हैं, जैसे अमेरिका में जहां डोनर्स की लिस्ट पब्लिक होती है। भारत में भी ऐसा होना चाहिए।
इलेक्टोरल ट्रस्ट 2013 में शुरू हुए थे। तब से ये बढ़ते गए। 2023-24 में ट्रस्टों से ₹1,218 करोड़ का चंदा था, जो 2024-25 में बढ़कर ₹3,811 करोड़ हो गया। बॉन्ड बंद होने से ट्रस्टों का इस्तेमाल बढ़ा। लेकिन क्या यह सही दिशा है? कई एनजीओ और एक्टिविस्ट कहते हैं कि ट्रस्ट भी पूरी तरह पारदर्शी नहीं हैं क्योंकि ट्रस्ट को पैसे देने वाली कंपनियां कभी-कभी छिपी रहती हैं। प्रूडेंट ट्रस्ट में कई कंपनियां शामिल हैं, लेकिन सबकी डिटेल हमेशा क्लियर नहीं होती। आपको बता दें कि बीजेपी के चंदे की डिटेल और गहराई से देखें।
ठश्रच् को मिले रूपए6,088 करोड़ में से ज्यादा हिस्सा ट्रस्टों से आया है। व्यक्तिगत डोनर्स भी हैं, लेकिन कॉर्पाेरेट्स प्रमुख हैं। उदाहरणरू टाटा ग्रुप, जो भारत की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है, ने ट्रस्टों के जरिए चंदा दिया। ओपी जिंदल ग्रुप, जो स्टील और पावर में है। एल एंड टी, जो रोड्स, ब्रिजेस बनाती है। मेघा इंजीनियरिंग, जो हाइड्रो प्रोजेक्ट्स पर काम करती है। अशोक लेलैंड, ट्रक्स बनाती है। डीएलएफ, रियल एस्टेट और महिंद्रा, ऑटो और फार्मिंग पर काम करती है। ये सभी सेक्टर्स ऐसे हैं जहां सरकारी नीतियां सीधा असर डालती हैं। क्या चंदा देकर ये कंपनियां फेवर ले रही हैं? यह जांच का विषय है।
वहीं कांग्रेस को मिले चंदे में ट्रस्टों का हिस्सा कम है। वे ज्यादा व्यक्तिगत डोनर्स पर निर्भर हैं, जैसे राजीव गौड़ा ने रूपए4.2 करोड़ दिए। यूरोप में कई देशों में कॉर्पाेरेट चंदा बैन है। अमेरिका में सुपर पीएसीएस हैं, लेकिन रेगुलेशन काफी सख्त हैं। भारत में आरटीआई एक्टिविस्ट्स जैसे एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) लंबे समय से यह मुद्दा उठा रहे हैं। वे कहते हैं कि 2024-25 के आंकड़े दिखाते हैं कि कॉर्पाेरेट्स अब ट्रस्टों के जरिए बीजेपीको सपोर्ट कर रहे हैं। कुल मिलाकर, 2024-25 में बीजेपी की झोली भर रही है कॉर्पाेरेट्स और ट्रस्टों से। लेकिन यह ट्रेंड चिंताजनक है। हमें चाहिए कि चुनाव आयोग और सरकार इस पर ध्यान दें। पारदर्शिता बढ़ाएं, असमानता कम करें।



