महायुति गठबंधन में एक और बड़ा छेद

- बीएमसी चुनाव : एक दिन पहले अठावले ने दिया 440 वोल्ट का झटका
- महाराष्ट्र की जान बीएमसी चुनाव में आरपीआई अकेली लड़ेगी चुनाव
- टिकट बटवारे को लेकर फडणवीस पर विश्वासघात का आरोप
- महायुति में शामिल होने से किया इंकार
4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
मुंबई। बीएमसी चुनाव से ठीक एक दिन पहले महाराष्ट्र की सियासत में ऐसा करंट दौड़ा है कि महायुति के तार चटकते नजर आने लगे। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने वह कर दिखाया जिसकी आशंका तो थी लेकिन समय ऐसा चुना गया कि बीजेपी और उसके सहयोगियों के लिए यह 440 वोल्ट का झटका बन गया।
रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ने ऐलान कर दिया कि वह बीएमसी चुनाव अकेले लड़ेगी। जिस बीएमसी को महाराष्ट्र की राजनीतिक जान कहा जाता है उसी चुनाव में महायुति की एक अहम सहयोगी पार्टी का अलग राह चुनना केवल सीट बंटवारे का विवाद नहीं बल्कि सत्ता के अहंकार गठबंधन की विश्वसनीयता और बीजेपी के भीतर बढ़ते तनाव का खुला एक्सपोजर है।
झटका अभी खत्म नहीं
रामदास अठावले का यह फैसला सिर्फ एक चुनावी रणनीति नहीं है बल्कि सत्ता के समीकरणों पर करारा प्रहार है। बीएमसी चुनाव से ठीक पहले आया यह झटका महायुति को झकझोरने के लिए काफी है। अब देखना यह है कि बीजेपी इस संकेत को चेतावनी मानती है या अनदेखा करती है। क्योंकि अगर सहयोगियों का यह असंतोष बढ़ता गया तो बीएमसी के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में और भी बड़े राजनीतिक विस्फोट देखने को मिल सकते हैं।
बीएमसी चुनाव सत्ता का एटीएम और राजनीतिक प्रयोगशाला
बीएमसी चुनाव किसी भी दल के लिए सिर्फ नगर निकाय चुनाव नहीं है। यह देश की सबसे अमीर नगर पालिका है जहां हजारों करोड़ का बजट है, ठेके हैं, परियोजनाएं है, और शहरी सत्ता का सीधा नियंत्रण। जो बीएमसी जीतता है वही मुंबई की नब्ज पर हाथ रखता है। यही वजह है कि बीजेपी के लिए बीएमसी प्रतिष्ठा का सवाल है। शिवसेना (उद्धव गुट) के लिए अस्तित्व की लड़ाई, शिंदे गुट के लिए वैधता की परीक्षा, और कांग्रेस-एनसीपी के लिए वापसी का रास्ता। ऐसे में आरपीआई का अलग होकर लडऩा गणित ही नहीं मनोविज्ञान भी बदल देता है।
अठावले ने कहा विश्वासघात हुआ है
केन्द्रीय मंत्री रामदास अठावले ने जो शब्दावली का इस्तेमाल किया है वह अमूमन नहीं करते। उन्होंने सीधे सीएम फडणवीस पर विश्वासघात का आरोप लगाया है। उनका यह बयान सिर्फ नाराजगी नहीं था वह चेतावनी थी। उन्होंने कहा कि भाजपा और शिंदे गुट ने हमें सात सीटें देने का वादा किया था। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने स्पष्ट निर्देश दिए थे कि आरपीआई को भाजपा के कोटे से सीटें दी जाएं। लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हुआ। हमारी पार्टी को अंत तक लटकाए रखा गया। यह विश्वासघात है। अठावले का यह आरोप महज भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं है। यह महायुति के अंदर चल रहे उस खेल की ओर इशारा करता है जहां छोटे दलों को चुनाव के वक्त तक इंतजार की राजनीति में उलझाए रखा जाता है और आखिरी समय पर दरवाजा बंद कर दिया जाता है।,
ऐन मौके पर पेंच फंसाया
नामांकन की समय सीमा खत्म होने से कुछ घंटे पहले आरपीआई ने 39 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी। यह सूची केवल उम्मीदवारों के नाम की नहीं थी बल्कि बीजेपी लीडरशिप के लिए एक राजनीतिक चार्जशीट थी। आरपीआई ने उत्तरी, उत्तर-मध्य, उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी मुंबई यानी वह इलाके जहां दलित वंचित और मेहनतकश तबका निर्णायक भूमिका निभाता है से सीधा मोर्चा खोल दिया है।
दलित राजनीति का बदलात मूड!
रामदास अठावले कोई हाशिये के नेता नहीं हैं। दलित राजनीति में उनकी एक स्वतंत्र पहचान है। बीएमसी चुनाव में आरपीआई का अलग लडऩा दलित वोट बैंक को यह संदेश देता है कि पार्टी अब सिर्फ सहयोगी बनकर संतुष्ट नहीं रहेगी। पार्टी नेताओं का मानना है कि अगर हमें सिर्फ पोस्टर लगाने और रैली में भीड़ जुटाने के लिए याद किया जाएगा तो यह स्वीकार्य नहीं है। दलित समाज की राजनीतिक हिस्सेदारी चाहिए सिर्फ प्रतीकात्मक सम्मान नहीं। यह बयान सीधे-सीधे बीजेपी की सामाजिक इंजीनियरिंग पर सवाल खड़ा करता है।
महायुति के लिए कितना बड़ा नुकसान?
राजनीतिक तौर पर देखें तो आरपीआई का अलग लडऩा वोटों के बंटवारे का खेल बदल सकता है। खासकर उन वार्डों में जहां मुकाबला कांटे का है वहां आरपीआई के उम्मीदवार बीजेपी या शिंदे गुट के समीकरण बिगाड़ सकते हैं। एक वरिष्ठ चुनाव रणनीतिकार के मुताबिक बीएमसी जैसे चुनाव में 1-2 प्रतिशत वोट भी हार-जीत तय कर देता है। आरपीआई का अलग रहना महायुति के लिए साइलेंट किलर साबित हो सकता है।
मोहभंग की शुरुआत?
सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या सहयोगी दलों की बीजेपी से मोहभंग की शुरुआत हो चुकी है? क्या सहयोगी दल अब खुलकर अपनी शर्तों पर राजनीति करना चाहते हैं? अठावले के फैसले ने यह साफ कर दिया है कि छोटे और मध्यम दल अब मजबूरी का गठबंधन नहीं मजबूती का गठबधंन चाहते। वे सम्मानजनक हिस्सेदारी चाहते हैं वरना अलग रास्ता चुनने से नहीं हिचकेंगे। आरपीआई के इस कदम से विपक्ष को बैठे बिठाए मुद्दा मिल गया है। उद्धव ठाकरे गुट और कांग्रेस पहले ही कह रहे हैं कि महायुति अवसरवादी गठबंधन है जहां भरोसे की कोई जगह नहीं।
बीजेपी कुनबे में बढ़ रहा है क्लेश?
आरपीआई का यह फैसला अकेली घटना नहीं है। महाराष्ट्र में महायुति के भीतर पहले से ही असंतोष की चिंगारियां सुलग रही हैं। शिंदे गुट और बीजेपी के बीच सीटों को लेकर तनातनी अजित पवार गुट की अनिश्चित निष्ठा और अब अठावले की खुली बगावत यह सब संकेत हैं कि गठबंधन बाहर से भले मजबूत दिखे लेकिन भीतर से उसकी चूलें दरकना शुरू हो चुकी हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी का वन साइज फिट्स ऑल मॉडल अब सहयोगी दलों को खटकने लगा है। चुनाव जीतने के बाद सहयोगियों की भूमिका सीमित कर दी जाती है यह शिकायत अब बंद कमरों से निकलकर सार्वजनिक मंच पर आ रही है।




