क्षेत्रीय क्षत्रपों का उभार है क्या खतरे की घंटी
लखनऊ। हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और इन चुनाव में क्षेत्रीय दलों के उभार ने एक नई चर्चा को जन्म दे दिया है। क्या एक बार फिर से यह चुनाव परिणाम राष्टï्रीय पार्टियों के लिए रेड सिग्नल साबित होएंगे।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, पिनाराई विजयन और एन. रंगासामी पहले से कहीं ज्यादा मजबूत क्षेत्रीय ताकत बनकर उभरे हैं। इसलिए ममता बनर्जी को लेकर यह भविष्यवाणी भी की जा री है कि वह 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को टक्कर देने के लिए महागठबंधन बनाने की कोशिश कर सकती हैं। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान तृणमूल कांग्रेस की ओर से कहा गया कि ममता बनर्जी प्रधानमंत्री पद के लिए वाराणसी जा सकती हैं, इसलिए प्रधानमंत्री मोदी को अपने लिए दूसरी सीट ढूंढनी चाहिए। उस वक्त टीएमसी ने भले ही कुछ भी कहा हो, लेकिन सवाल उठता है कि क्या दीदी वाकई केंद्र की राजनीति में वापसी करना चाहती हैं? एक सवाल यह भी है कि क्या ममता बनर्जी को संयुक्त विपक्ष नेता के रूप में स्वीकार करेंगा? क्या कांग्रेस पार्टी ममता बनर्जी के नेतृत्व में चुनाव लडऩा चाहेगी? आपको बताते चलें कि लोकतंत्र बचाओ अभियान के तहत ममता बनर्जी ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कोलकाता में राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी महागठबंधन बनाने की कोशिश में एक बड़ी रैली का आयोजन किया था, लेकिन वह प्रयास असफल साबित हुआ था।
एक बात और ध्यान देनेे वाली है कि राज्यों के चुनावों में भाजपा को हराने वाले क्षेत्रीय दल के नेता को अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़ा कर दिया जाता है। अब चूंकि कांग्रेस पार्टी के राहुल गांधी के अलावा प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ किसी को खड़े होने का मौका नहीं दे रही है तो क्षेत्रीय दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षाएं उठेंगी ही। क्षेत्रीय दलों के बड़े नेताओं की बात करें तो एचडी देवेगौड़ा, शरद पवार, ममता बनर्जी, पिनाराई विजयन, नवीन पटनायक, एमके स्टालिन, अरविंद केजरीवाल, वाईएस जगन मोहन रेड्डी, के.के. इनमें चंद्रशेखर राव, फारूक अब्दुल्ला, चंद्रबाबू नायडू, उद्धव ठाकरे और मायावती जैसे नाम शामिल हैं. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस केंद्रीय स्तर पर बनने वाले संभावित मोर्चे के नेता के तौर पर इनमें से किसी नाम का मुहर लगाने को राजी होगी? कांग्रेस को छोडक़र इनमें से कुछ पार्टियों के नेता आपस में एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे हैं।
इस पूरी राजनीतिक गणित के साथ ही हमें देश की जनता की नजरिए को समझने का भी प्रयास करना होगा। साल 2014 में जब देश ने स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनी तो यह 30 से अधिक वर्षों के बाद हुआ। देश ने गठबंधन सरकारों की मजबूरियों को सहा है और 2014 और 2019 के स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के किसी भी काम को करने की राजनीतिक शक्ति को दिखाया है। इसीलिए आज की पीढ़ी स्पष्ट बहुमत वाली सरकार को चुन रही है। केंद्र, जहां पिछले दस वर्षों में चुनाव हुए हैं, कुछ अपवादों को छोडक़र, लोगों ने हर जगह या तो एक पार्टी या चुनाव पूर्व गठबंधन को बहुमत दिया है। जब त्रिशंकु विधानसभाएं लगभग अतीत की बात हो गई हैं, तो त्रिशंकु संसद की कल्पना करना ही व्यर्थ है। ऐसे में महागठबंधन बनाने को आतुर क्षेत्रीय नेताओं को यह समझना होगा कि केंद्र में भाजपा का मुकाबला कांग्रेस के नेतृत्व में ही किया सकता है। जैसे विधानसभा चुनाव के समय क्षेत्रीय दलों के नेता राष्ट्रीय दलों के नेताओं को समझाते हैं कि विधानसभा चुनाव क्षेत्रीय मुद्दों के आधार पर लड़ा जाना चाहिए, उसी तरह उन्हें यह समझना होगा कि देश के आम चुनाव लड़े जाते हैं। राष्टï्र के मुद्दों पर।