बसपा के वोटबैंक को समेटने की जुगत में अखिलेश यादव
- पिछड़ों के साथ-साथ अब दलित वोटबैंक पर भी समाजवादी की नजर
लखनऊ। समाजवादी पार्टी ने बसपा प्रमुख मायावती के लिए बड़ी परेशानी खड़ी कर दी है। क्योंकि पिछड़ों के साथ-साथ अब अखिलेश यादव ने दलित वोटबैंक पर भी डोरे डालने शुरू कर दिए हैं और वो भी बहुत आक्रामक तरीके से। पिछले कुछ महीने के घटनाक्रम तो इसी ओर इशारा कर रहे हैं। अखिलेश यादव ये लक्ष्य दो तीरों से साध रहे हैं। पहला तो ये कि वे अपनी हर रैली में दलित समाज से जुड़े मुद्दे उठाकर अपने आप को इनका रहनूमा दिखा रहे हैं और दूसरा ये कि उन्होंने बसपा से ठुकराए गए नेताओं को तहे दिल से गले लगा लिया है।
अखिलेश यादव जानते हैं कि पिछड़ों के साथ यदि दलितों के वोट जुड़ जाएं तो विजयश्री मिलनी तय हो जाएगी। इसीलिए उन्होंने बहुजनों को साधना शुरू किया था। वे अपनी हर चुनावी रैली में ये दिखाना चाहते हैं कि जिस अभियान को बसपा सुप्रीमो मायावती ने त्याग दिया है उसे उन्होंने अपना लिया है। वे हर रैली में निजीकरण के चलते सरकारी नौकरियों के सिकुड़ने, जातिगत जनगणना कराने जैसे मुद्ïदे पुरजोर तरीके से उठा रहे हैं। संविधान बचाने की जो बातें बसपा के नेता करते थे अब वे अखिलेश यादव करने लगे हैं। दलितों के साथ होने वाले अपराध पर वे आक्रामक तरीके से बीजेपी सरकार पर हमला बोलते दिख रहे हैं।
बसपा के पुराने दिग्गजों को सपा से जोड़ा
बहुजनों को अपना बनाने के लिए उन्होंने इस समाज के नेताओं को भी अपना बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। बसपा से निकाले गये टॉप ब्रास नेताओं का सबसे बड़ा ठिकाना सपा ही है। इंद्रजीत सरोज तो पहले से ही हैं। हाल ही में 6 विधायकों के साथ लालजी वर्मा और रामअचल राजभर ने भी सपा का ही दामन थामा है। कभी बीजेपी से सांसद रहीं दलित लीडर सावित्री बाई फुले से उन्होंने गठबंधन किया है। आजाद समाज पार्टी (भीम आर्मी) के चंद्रशेखर रावण से उनकी बातचीत चल रही है।
सपा-बसपा का गठबंधन कोई करिश्मा नहीं कर पाया
अब सवाल उठता है कि दलित समुदाय अखिलेश यादव को कितना अपना पाएगा। यूपी के गांव-गांव में पिछड़ों और दलितों की कई जातियों के बीच एका नहीं रहा है। यही वजह रही कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन कोई करिश्मा नहीं कर पाया। सपा के वोट तो बसपा को गए, लेकिन बसपा के वोट सपा को ट्रांसफर नहीं हो पाए, कुछ दलित नेता अब इस संबंध को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं।
समाजवादी ही एक विकल्प
कांशीराम बहुजन समाज पार्टी की सावित्री बाई फुले ने कहादलित समाज के मन में मायावती की वो बात घर कर गयी है, जिसमें उन्होंने कहा था कि सपा को हराने के लिए जरूरत पड़ी तो वो बीजेपी का भी साथ देंगी। इसके अलावा संविधान को खत्म करने की जो साजिश बीजेपी और संघ कर रहा है उसके खिलाफ मायावती चुप हैं। ऐसे में अखिलेश यादव ही एक विकल्प बच जाते हैं।
अखिलेश के प्रयासों से तिलमिला रही हैं मायावती!
मायावती बीजेपी सरकार पर मायावती भले ही बहुत आक्रामक न दिख रही हों लेकिन, सपा पर वो ज्यादा अटैकिंग हैं। सत्तारूढ़ दल पर निशाना साधने के साथ-साथ वो सपा पर निशाना साधना नहीं भूलतीं। आठ नवंबर को मायावती ने तो ये भी कहा कि सपा ने हमेशा से ही दलित महापुरुषों और गुरुओं का तिरस्कार किया है। उन्होंने सपा के दलित प्रेम को नाटकबाजी तक कहा है। प्रयागराज में दलित समाज के चार लोगों की हत्या पर उन्होंने कहा कि लगता है कि बीजेपी सरकार भी सपा सरकार के नक्शेकदम पर चल रही है। अखिलेश यादव के सेंधमारी के इन्हीं प्रयासों से मायावती तिलमिला रही हैं।