दांव पर शहर, संसद पर नजर

नगर निकाय चुनाव में जोर आजमाइश, 24 की ख्वाहिश

  • लोकसभा चुनाव से पहले का सेमीफाइनल
  • भाजपा-सपा-बसपा और कांग्रेस ने कसी कमर

आराध्य त्रिपाठी/4पीएम न्यूज़
लखनऊ। काफी सियासी उठापटक के बाद अंतत: उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव की आधिकारिक घोषणा हो गई। प्रदेश में दो चरणों में 4 मई और 11 मई को मतदान होंगे, जबकि चुनाव के नतीजे 13 मई को जारी किए जाएंगे। इन नगर निकाय चुनावों को मार्च-अप्रैल में ही हो जाना था, लेकिन आरक्षण के मामले को लेकर चुनाव टल गए थे। अब आखिरकार ये चुनाव मई में होना तय हुए हैं। इस बार के यूपी निकाय चुनाव सभी राजनीतिक दलों के लिए काफी अहम माने जा रहे हैं। क्योंकि इन चुनाव के 10-11 महीनों बाद ही 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं। 24 के आम चुनावों को ध्यान में रखते हुए ये यूपी के निकाय चुनाव सभी राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा इम्तिहान है… क्योंकि इन चुनाव के नतीजे राजनीतिक दलों के लिए 24 की तस्वीर काफी हद तक साफ कर देंगे। ऐसे में सभी राजनीतिक दलों के लिए यूपी निकाय चुनाव काफी अहम हैं। इस बार प्रदेश में 762 नगरीय निकाय में से 760 निकायों में चुनाव हो रहे हैं, जिसमें 17 नगर निगम महापौर, नगर पालिका 199 और 544 नगर पंचायत अध्यक्ष की सीटें शामिल हैं, साथ ही 13 हजार वार्ड पार्षद पद के लिए भी चुनाव हो रहे हैं।
वैसे तो ये चुनाव सभी दलों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं और 24 के लोकसभा के सेमीफाइनल की तरह हैं। किन अगर अलग-अलग दल वार विश्लेषण करें तो सत्ताधारी भाजपा की प्रतिष्ठा इन निकाय चुनावों में दांव पर लगी हुई है। इसकी प्रमुख वजह ये है कि शहरी क्षेत्रों में माने नगर निगम चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहता है। हालांकि, नगर पालिका और नगर पंचायत सीटों पर भाजपा को कड़ा मुकाबला मिलता है और वो नगर निगम के मुकाबले पीछे रह जाती है, ऐसे में इस बार जब पार्टी केंद्र के साथ-साथ प्रदेश में भी सत्ता पर काबिज है, तो उस पर दबाव और भी बढ़ जाता है, अगर पिछले यूपी निकाय चुनावों पर नजर डालें तो भाजपा ने नगर निगम में तो बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन नगर पालिका और नगर पंचायत में पार्टी पिछड़ती दिखी थी, ऐसे में इस बार भाजपा नगर पालिका और नगर पंचायतों में अधिक ध्यान देने का प्रयास करेगी, 2017 के निकाय चुनाव में भाजपा ने 16 नगर निगमों में से 14 पर जीत हासिल की थी, और सिर्फ 2 सीटों पर उसे हार का सामना करना पड़ा था,जहां मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने अपना परचम लहराया था, लेकिन वहीं नगर पालिका और नगर पंचायत की सीटों पर भाजपा को सपा और निर्दलीय उम्मीदवारों से कड़ी टक्कर मिली थी,नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनावों में तो भाजपा से दो गुना ज्यादा सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी। ऐसे में इस बार भाजपा के लिए इन सीटों पर बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव रहेगा। वहीं इस बार मुख्य विपक्षी दल सपा यूपी विधानसभा चुनाव के बाद से ही निकाय चुनाव की तैयारियों में जुट गई है। सपा इस बार अपने पुराने एम-वाई फैक्टर के साथ-साथ दलितों को रिझाने की भी कोशिश में लगी है। इसलिए भाजपा को इस बार पिछली बार से भी अधिक मेहनत करनी पड़ेगी, वहीं शाहजहांपुर के नया नगर निगम बनने से नगर निगम की एक सीट बढ़ गई है और अब कुल संख्या 17 हो गई है, हालांकि, पार्टी के वरिष्ठतम नेता और प्रदेश की मौजूदा सरकार में वित्त मंत्री की भूमिका निभा रहे सुरेश खन्ना का ये गृह जनपद है और यहां पर उनकी पकड़ मजबूत है। ऐसे में संभव है कि ये सीट जीतना भाजपा के लिए आसान रहेगी। लेकिन एक बात ये भी है कि अब तक नगर पालिका सीट होने पर सपा यहां पर लगातार जीतती आई है। इसलिए संभव है कि मुकाबला इस बार भी रोमांचक होगा।

सपा से मिलेगी बीजेपी को क ड़ी टक्कर

हालांकि, इस बार भाजपा के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं… क्योंकि समाजवादी पार्टी विधानसभा चुनाव के बाद से ही निकाय चुनाव की तैयारियों में जुट गई है और पार्टी इस बार मजबूती के साथ चुनाव में उतरने की रणनीति बना रही है… ताकि भाजपा के सामने एक कड़ी चुनौती पेश कर सके, अगर पिछले चुनाव की बात करें तो नगर निगम से सपा को बहुत बड़ा झटका लगा था। पार्टी 16 में से एक भी मेयर सीट पर जीत हासिल नहीं कर पाई थी। हालांकि, नगर पालिका और नगर पंचायत की सीटों पर सपा अपने चेयरमैन बनाने में सफल रही थी। ऐसे में सपा की कोशिश इस बार मेयर की सीटों पर जीत हासिल करने की रहेगी। यही वजह है कि सपा ने काफी पहले से ही अपनी तैयारी शुरू कर दी है। और पर्यवेक्षकों की भी नियुक्ति कर चुकी है… इस बार कड़ी चुनौती पेश करने के लिए सपा एक नए राजनीतिक समीकरण के साथ मैदान में उतरने का प्लान बना रही है। अपने पुराने एम-वाई यानी कि मुस्लिम-यादव समीकरण के साथ, सपा दलितों को भी अपने साथ लाने के प्रयास में जुटी है… दलितों को साधने में जुटे सपा प्रमुख अखिलेश यादव कांशीराम की मूर्ति का अनावरण करने के बाद अब डॉ. अंबेडकर को भी अपनाने की कवायद में लगे हुए हैं। इसी क्रम में सपा प्रमुख 14 अप्रैल को आंबेडर जयंती के दिन संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के जन्म स्थान महू का दौरा करने वाले हैं.. उनके इस कदम को निकाय चुनाव को ध्यान में रखते हुए दलितों को रिझाने की नजर से देखा जा रहा है… सपा निकाय चुनाव में इसलिए भी आक्रामक रणनीति अपना रही है क्योंकि निकाय चुनाव में तो उसके पास खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है।. उसका मेन फोकस 24 के लोकसभा चुनावों पर है… लेकिन अगर निकाय चुनाव में सपा को सफलता मिली, तो बेशक आगामी लोकसभा चुनाव में वो भाजपा के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है।

नगर पालिका और नगर पंचायत में भाजपा है कमजोर

वैसे भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती नगर पालिका और नगर पंचायत सीटों पर जीत दर्ज करने की है। हालांकि, इन सीटों पर अपने प्रदर्शन में सुधार करने के लिए भाजपा इस बार अपनी फितरत के विपरीत जाकर मुसलमानों को भी रिझाने का प्रयास कर रही है। उनके लिए प्रदेश में सूफी संवाद कार्यक्रम चला रही है… इसके तहत उसके नेता दरगाहों पर जा-जाकर कव्वाली के कार्यक्रम भी कराएंगे… वहीं संभावना ये भी है कि इस बार के चुनाव में पार्टी मुस्लिम उम्मीदवारों को भी टिकट देकर चुनाव मैदान में उतार सकती है। वहीं भाजपा की महिला मोर्चा टीम जिला स्तर पर महिलाओं के लिए सहभोज का आयोजन शुरू कर रही है, जिसे भी निकाय चुनाव से जोडक़र देखा जा रहा है। सहभोज में दलित महिलाओं को खास तौर पर बुलाया जा रहा है। लाभार्थी महिलाओं को जोडऩे का खास तौर पर लक्ष्य रखा गया है क्योंकि निकाय चुनाव में 37 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं.. अब इन कार्यक्रमों से भाजपा को कितना फायदा होगा, ये तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा।

कांग्रेस के अस्तित्व का चुनाव

आजकल देश की राजनीति में अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस भी निकाय चुनाव के जरिए प्रदेश में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाना चाहेगी। जाहिर है कि राज्य के शहरी क्षेत्रों में भाजपा के बाद सबसे ज्यादा पकड़ कांग्रेस की रही है, लेकिन पिछले चुनाव में नगर निगम की सीटों पर कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था जबकि नगर पालिका और नगर पंचायत की सीटों पर भी उसका प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा था, कांग्रेस शहरी क्षेत्रों में अपने खोए हुए सियासी जनाधार को दोबारा से पाने के लिए हरसंभव कोशिशों में जुटी है। प्रदेश अध्यक्ष बृजलाल खाबरी के नेतृत्व में पार्टी इन दिनों शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम मतों को साधने के लिए रोजा इफ्तार का आयोजन कर रही है, वहीं पार्टी राहुल गांधी की सदस्यता जाने और अडानी के मुद्दे पर भी जनता का समर्थन लेकर सूबे में अपने प्रदर्शन को सुधारने की कोशिश करेगी, हालांकि पार्टी इसमें कितना सफल हो पाती है, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा,इतना साफ है कि यूपी के ये निकाय चुनाव प्रदेश में सभी राजनीतिक दलों के लिए 24 की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं। इसलिए हर दल काफी मजबूती से इन चुनावों में उतरने की रणनीति बना रहा है। अब जनता किसे सर आंखों पर बिठाती है और किसे गिराती है ये तो 13 मई को चुनाव परिणाम के साथ ही पता चलेगा।

बसपा का भविष्य भी दांव पर

भाजपा और सपा के अलावा मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी निकाय चुनाव की तारीखों का ऐलान होने के बाद एक बार फिर से एक्टिव मोड में आ गई है। चुनाव तारीखों के अगले ही दिन मायावती ने भाजपा सरकार पर निशाना साधा और आगामी चुनावों के लिए पार्टी के मजबूती से लडऩे का दावा भी किया। इस दौरान मायावती ने निकाय चुनाव को ईवीएम की जगह वैलेट पेपर से करवाने की मांग भी की वैसे देखा जाए तो बसपा के लिए ये निकाय चुनाव काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये चुनाव उसका भविष्य तय करेंगे, कभी राज्य की सत्ता पर राज करने वाली बसपा इस बार के विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट पर समिट कर रह गई, वहीं इससे पहले लोकसभा चुनाव में भी बसपा ने अपनी धुर विरोधी सपा के साथ गठबंधन किया था, जिसके बाद पार्टी सिर्फ 10 सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी, हालांकि, ये 10 सीटें उसके लिए उस वक्त किसी संजीवनी से कम नहीं थीं, क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता तक नहीं खुला था। ऐसे में सपा से गठबंधन करके मायावती को काफी फायदा मिला था हालांकि, इस विधानसभा चुनाव में बसपा को तगड़ा झटका लगा है ,जसकी उम्मीद खुद मायावती को भी नहीं थ। ऐसे में इस बार मायावती एक मजबूत तैयारी के साथ निकाय चुनाव में उतरने की रणनीति बना रही हैं… क्योंकि ये चुनाव ही मायावती और बसपा का भविष्य तय करेंगे। 2017 के निकाय चुनाव में बसपा दलित और मुस्लिम समीकरण के साथ मैदान में उतरी थी।. और उसका प्रदर्शन भी बेहतर रहा था, उसने भाजपा के अलावा 2 मेयर की सीटों अलीगढ़ और मेरठ के नगर निगम में जीत भी हासिल की थी,जबकि तीन सीटों पर नंबर दो पर थी। इस बार भी बसपा इसी रणनीति और समीकरण के साथ चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में है। लेकिन सीटों के आरक्षण में हुए फेरबदल ने सारे अरमानों पर पानी फेर दिया है… वहीं अतीक अहमद के परिवार पर कानूनी शिकंजा कसने का नुकसान भी मायावती को हो सकता है,जो कि उन्होंने साफ किया कि पार्टी अब अतीक के परिवार के किसी सदस्य को चुनाव में टिकट नहीं देगी, मायावती के लिए आगामी लोकसभा चुनाव काफी अहम है, वो निकाय चुनाव को 24 के लिटमस टेस्ट की तरह ही देख रही हैं, क्योंकि इस बार बसपा ने अकेले ही 24 के रण में उतरने का फैसला किया है, जबकि पिछली बार वो सपा के साथ गठबंधन में उतरी थी, जिसका उसे फायदा भी मिला था, ऐसे में बसपा अगर इस बार के निकाय चुनाव में सफलता हासिल करने में कामयाब नहीं रहती है, तो लोकसभा चुनाव में उसके लिए राह काफी कठिन हो जाएगी।

 

 

 

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