प्रचंड जीत पर भारी पदों की मारा-मारी

  • बिहार का अगला मुख्यमंत्री कौन?
  • नीतीश ही या फिर कोई और… संस्पेंस बरकार
  • महाराष्ट्र की तरह बिहार में भी शपथ ग्रहण में हो सकती है देरी

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
पटना। बिहार में एक बार फिर ताजा राजनीतिक हालात ने हलचल को अपने चरम पर पहुंचा दिया है। चुनाव परिणामों में एनडीए को मिली प्रचंड जीत ने जहां उसके समर्थकों में उत्साह भर दिया है वहीं सत्ता की कुर्सी को लेकर भीतर ही भीतर एक मूक संघर्ष शुरू हो चुका है। इस संघर्ष का केंद्र है बिहार का अगला मुख्यमंत्री कौन? सवाल आसान लगता है लेकिन इसका जवाब उतना सीधा नहीं है। कारण साफ है। नीतीश कुमार ने चुनाव अभियान की कमान तो संभाली थी लेकिन एनडीए ने उन्हें कभी भी मुख्यमंत्री चेहरा घोषित नहीं किया था। अब जब परिणाम उनके नेतृत्व में गठबंधन को भारी जीत देकर आए हैं तो बयानबाजी और बैक चैनल राजनीति चरम पर है। यह सारा घटनाक्रम महाराष्ट्र की उस स्थिति की याद दिलाता है जब प्रचंड जीत के बाद भी शपथ ग्रहण खिंचता ही चला गया था। तब सत्ता की साझेदारी और पदों के बंटवारे को लेकर खींचतान ने कई दिनों तक राजनीतिक स्थिरता को रोक रखा था। क्या बिहार में भी वैसा ही कुछ होने वाला है? यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि अंदरखाने से जो संकेत आ रहे हैं वह किसी शांत और सरल सत्ता हस्तांतरण की कहानी नहीं बताते।

नीतीश चेहरा थे, पर दावा नहीं

नीतीश कुमार बिहार चुनावों में एनडीए का सबसे बड़ा चेहरा थे। उनके नाम पर वोट भी ट्रांसफर हुए प्रशासनिक कसावट वाली उनकी छवि ने ग्रामीण और शहरी दोनों हिस्सों में भरोसा जगाया। लेकिन एनडीए की तरफ से आधिकारिक रूप से उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया गया था। उस समय मामूली राजनीतिक कूटनीति लग रही थी लेकिन अब वही पंक्ति सत्ता संघर्ष का आधार बन गई है। बीजेपी ने बिहार में जो प्रदर्शन दिया है वह उसकी अब तक की सबसे बड़ी सफलता है। सीटों की संख्या वोट प्रतिशत और सामाजिक विस्तार तीनों ही मोर्चों पर बीजेपी ने अपने को एनडीए का मुख्य स्तंभ साबित कर दिया है। स्वाभाविक है कि इतनी बड़ी जीत के बाद बीजेपी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मनोवैज्ञानिक दावा रखती है। राजनीति में सबसे बड़ा दल हमेशा खुद को शक्ति केंद्र मानता है। लेकिन दूसरी ओर यह भी उतना ही सच है कि बीजेपी की इस जीत की कहानी नीतीश कुमार के बिना अधूरी है। उन्हें हटाना सामाजिक समीकरणों और जन भावनाओं के लिहाज से भाजपा के लिए जोखिम भरा कदम हो सकता है। बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार की एक विशिष्ट सामाजिक स्वीकृति है। उनका नाम एक स्थिरता का प्रतीक है और यह बात बीजेपी खुद भी जानती है।

बिहार में महाराष्ट्र मॉडल

महाराष्ट्र में जब सत्ता साझेदारी का विवाद खड़ा हुआ था तब बात कुछ ही दिनों में राज्य का राजनीतिक मॉडल ही बदल देने जितनी बड़ी हो गई थी। बिहार में भी अगर खींचतान बढ़ी तो वही हालात बन सकते हैं। लेकिन अभी जो संकेत मिल रहे हैं वह बताते हैं कि नीतीश कुमार और बीजेपी की टाप लेवल मीटिंगों में सबकुछ तय हो चुका है। जाहिर तौर पर तो यह आसान दिखाई दे रहा है प्रेस बयानों के आधार पर लेकिन जमीनी स्तर पर एनडीए के भीतर पावर शेयरिंग को लेकर जारी मल्ल युद्ध की खबरें लगातार बाहर आ रही है।

मुख्यमंत्री नहीं पूरा सिस्टम दांव पर!

सत्ता सिर्फ एक चेहरा नहीं होती। वह दर्जनों पदों सैकड़ों पोस्टिंगों और हजारों फैसलों का नेटवर्क होती है। इसलिए अब जब एनडीए सत्ता में वापस आ चुका है तो भीतर पदों की मारा मारी शुरू हो गई है। हर दल हर नेता हर धड़ा चाहता है कि वह अधिक से अधिक हिस्सेदारी ले। बीजेपी चाहती है कि उसका मुख्यमंत्री हो या फिर कम से कम से कम दो उपमुख्यमंत्री तो हो ही। वह गृह, वित्त, सड़क निर्माण जैसे महत्वपूर्ण विभाग भी अपने पास रखना चाहती है। उसकी अगली मांग विधानसभा अध्यक्ष का पद भी हो सकता है। वहीं जदयू मुख्यमंत्री पद के साथ दूसरे महत्वपूर्ण विभाग अपने पास रखना चाहती है क्योंकि प्रचंड जीत में सभी को सत्ता का लाभ पहुंचाना ही नीतिश कुमार की कामयाबी का मूल मंत्र है। पिछले समायोजन में नीतीश का मजबूत था लेकिन इस बार ऐसा नहीं है और बीजेपी ज्यादा मजबूती के साथ वापस लौटी है। चिराग पासवान पहले ही कह चुके हैं कि हम सत्ता के साझेदार हैं दर्शक नहीं। यही नहीं इस चुनाव से पहले तक उनकी नीतिश के साथ नहीं बनती थी। पीएम मोदी के हस्तक्षेप के बाद चिराग झुके थे लेकिन नतीजों के बाद तने दिखाई दे रहे हैं। वह भी मलाइदार विभाग और ठीक ठाक पावर शेयरिंग चाहते हैं। बात अगर जीतन राम मांझी कि की जाए तो अनुभव और वोटों के मामले में वह भी कमजोर नहीं है। बुजुर्ग नेता होने के नाते उनका मान सम्मान बनाए रखने का दावा भी कमजोर नहीं है।

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