नीतीश की कोशिश कितना लाएगी रंग

मोदी विरोधी गुटबंदी की कोशिश

  • कांग्रेस की कर्नाटक जीत का भी पड़ेगा असर
  • कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस को मिली ताकत

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद गैरभाजपा दलों का खुश होना स्वाभाविक है। बंगलुरू में 20 मई को हुए सिद्धारमैया के शपथ ग्रहण समारोह में जुटे विपक्षी नेताओं की मौजूदगी हालांकि सिर्फ सांकेतिक ही नजर आई। विपक्षी राजनीति का कोई ठोस संकेत नहीं मिला। इसके बावजूद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूरी शिद्दत से विपक्षी एकता की कमान थाम लेने की कोशिश में जुटे हुए हैं।
उन्होंने नए संसद भवन के उद्घाटन से लेकर नीति आयोग की बैठक तक का बहिष्कार कर अपने को विपक्ष का बड़ा नेता दिखाने की कोशिश की साथ हर कांग्रेस के करीबी होने का भी संदेश दिया। उन्ही की राह पर आज कल दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल भी चल पड़े हैं वह केंद्र सराकर केअध्यादेश के खिलाफ देश भर के भाजपा विरोधी दलों की सरकारों वाले राज्यों घूम-घूम कर समर्थन मांग रहें है। सियासी जानकारों की माने तो ये सारी कवायद 2024 चुनाव को लेकर है। केजरीवाल व नीतीश मोदी सरकार को हटाने में जुटें हैं। कितनी कामयाबी मिलेगी ये तो आने वाला वक्त बताएगा।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के साथ हुई मुलाकात को इसी नजरिये से देखा जा सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन मुलाकातों के बावजूद कांग्रेस क्या विपक्षी एकता के लिए अपने नेतृत्व को कुरबान करने को तैयार होगी? कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस क्या विपक्षी गोलबंदी में उसी तरह नेपथ्य या पृष्ठभूमि में रहने को तैयार होगी, जैसे कर्नाटक चुनाव के पहले तक दिख रही थी?इन सवालों से जूझने से पहले अतीत में चले केंद्रीय सत्ता विरोधी अभियानों की चर्चा करना उचित होगा। जिस तरह नीतीश प्रधानमंत्री मोदी विरोधी मुहिम की अगुआई करने की कोशिश में जुटे हैं, उससे लगता है कि उन्होंने हर हाल में मोदी को उखाड़ फेंकने का संकल्प ले लिया है। दो महीने पहले उनके सिपहसालार राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन ने अपनी अध्यक्षता में जनता दल यू की कार्यकारिणी का गठन किया था, लेकिन तब पार्टी के बड़े नेताओं में शुमार केसी त्यागी को कोई जगह नहीं मिली थी। ऐसा नहीं हो सकता कि त्यागी की रूखसती बिना नीतीश की मर्जी के हुई होगी। नीतीश भी जनता दल यू के वैसे ही आलाकमान हैं, जैसे वंशवादी दलों का आलाकमान है। जनता दल यू में भी अध्यक्ष की हैसियत नीतीश के सामने कुछ भी नहीं है। लेकिन मोदी विरोधी अभियान छेडऩे के बाद उन्हीं केसी त्यागी की उपयोगिता नीतीश कुमार को समझ आने लगी। केसी त्यागी के संबंध तमाम पार्टियों के नेताओं से हैं। नीतीश की उम्मीद है कि विपक्षी लामबंदी में केसी त्यागी के राजनीतिक रिश्ते सहयोगी हो सकते हैं।

मुस्लिम वोट बैंक पर सबकी नजर

विपक्षी राजनीति के दिग्गजों में कांग्रेस के साथ दिखने में कर्नाटक चुनावों के बाद हिचक दिख रही है। हिचक की वजह है मुस्लिम वोट बैंक। कर्नाटक में समूचा मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस के साथ ही चला गया। मुस्लिम वोटरों के बारे में मान्यता है कि चाहे वह कोलकाता हो या दिल्ली का या बनारस का, कासरगोड का हो या कहीं और का, वह तकरीबन एक ही तरह से सोचता है। कर्नाटक में जिस तरह कांग्रेस का मुस्लिम वोटरों ने एक मुश्त समर्थन किया है, उससे कई भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दल सशंकित हैं। विशेषकर ममता बनर्जी और अखिलेश यादव जैसे नेताओं की चिंता सबसे ज्यादा बढ़ी है। उत्तर प्रदेश में जहां करीब 18 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं, वहीं पश्चिम बंगाल में करीब 30 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। राम मंदिर आंदोलन के बाद जहां उत्तर प्रदेश का मुस्लिम मतदाता अखिलेश की समाजवादी पार्टी के साथ रहा है, वहीं पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के उभार के बाद मुस्लिम वोटर लगातार उन्हीं के साथ गोलबंद होता रहा है। इन राज्यों में खालिस मुस्लिम मुद्दों को लेकर आई हैदराबादी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम को ना तो उत्तर प्रदेश के चुनावों में समर्थन मिला, ना ही पश्चिम बंगाल के चुनावों में। हैदराबाद से कर्नाटक की दूरी ज्यादा नहीं है, लेकिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम को एक प्रतिशत से भी कम वोट मिले। भारतीय राजनीति में बीजेपी के उभार के बाद सांप्रदायिकता विरोधी लामबंदी के बहाने भाजपा विरोधी दल मुस्लिम वोट बैंक का साथ हासिल करने की कोशिश करते रहे हैं। अतीत में इस वोट बैंक पर सिर्फ कांग्रेस का ही असर होता था। लेकिन राम मंदिर आंदोलन के उभार और सामाजिक न्याय की राजनीति के बढ़ते प्रभाव के दौर में मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस से दरकता हुआ हर उस दल के इर्द-गिर्द एकत्र होता  चला गया, जो स्थानीय स्तर पर उन दलों के साथ जुड़ता गया, जिनसे उन्हें सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर भाजपा को हराने की उम्मीद थी। उसकी इस उम्मीद को उत्तर प्रदेश में साल 2012 तक समाजवादी पार्टी ने पूरी किया तो बिहार में लालू यादव के राष्ट्रीय   जनता दल ने पूरा किया। इसी तरह मुस्लिम वोट बैंक की उम्मीदों का पतवार पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के हाथ सुरक्षित नजर आया।

1987 के विपक्षी अभियानों को याद दिला रहे नीतीश

नीतीश की कोशिशों से 1987 के विपक्षी अभियानों की याद आना स्वाभाविक है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स दलाली के आरोपों से जूझ रहे थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में अरूण नेहरू, रामधन, आरिफ मोहम्मद खान और सतपाल मलिक ने कांग्रेस से अलग राह अपना ली थी। तब नीतीश कुमार, शरद यादव के आदमी माने जाते थे और उन दिनों शरद के राजनीतिक बॉस देवीलाल का हरियाणा की सत्ता पर कब्जा था। तब उन्होंने राजीव विरोधी परिवर्तन रथ चला रखा था। उन दिनों आंध्र प्रदेश के नेता नंदमुरि तारक रामाराव ने तेलुगूदेशम पार्टी के बैनर तले यात्रा निकाल रखी थी। 1987 में समूचे विपक्ष को एक होने का मौका इलाहाबाद उपचुनाव से मिला था, जिसमें राजीव के लेफ्टिनेंट रहे वीपी सिंह उतरे थे और कांग्रेस के उम्मीदवार और उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री सुनील शास्त्री को हरा दिया था। सुनील शास्त्री बाद में भाजपा में शामिल हो गए थे।

 

 

 

 

 

 

 

 

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