चुनाव आयोग की ताकत, हद में रहेगी सियासत

  • सुप्रीम कोर्ट के फैसले का दूरगामी असर
  • भाजपा- विपक्ष ने किया स्वागत

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। अभी हाल ही में उच्च्तम न्यायालय ने भारतीय निर्वाचन आयोग संबंधित एक अहम फैसला दिया है, जिसमें उसने मुख्य निर्वाचन आयुक्त व निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की तरह व्यवस्था बनाने के निर्देश दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सभी दलों ने स्वागत किया है। जानकारों की माने तो इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। इससे सरकारों पर जो ये आरोप लगते हैं कि चुनाव के समय वो चुनाव आयोग का इस्तेमाल करते उस पर कुछ हद तक लगाम लग सकती हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग का गठन करने के नियम बदल दिए हैं। अब प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सर्वोच्च न्यायाधीश को मिलाकर बनी कमेटी जिन नामों की सिफारिश करेगी, राष्ट्रपति उन्हीं में से आयोग के मुखिया और उनके सहयोगी आयुक्तों को चुनेंगे। अब उम्मीद है कि इन नई प्रक्रिया से यह आयोग अधिक स्वायत्त, स्वतंत्र और सरकारी दबावों से मुक्त बनेगा। यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक खुशखबरी है। जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 324 में पहले से ही दर्ज था, यह व्यवस्था तब तक चलती रहेगी जब तक संसद आयोग के गठन के बारे में कानून नहीं बना देती। यहां सोचने की बात यह है कि अगर संसद पिछले तिहत्तर सालों में अपनी यह जिम्मेदारी निभा देती तो सुप्रीम कोर्ट को यह हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं पड़ती। जाहिर है कि न इस सरकार और न ही किसी और सरकार ने इस बारे में पहलकदमी लेने की कोशिश की। यह हालत निर्वाचन आयोग के गठन की ही नहीं है, बल्कि चुनाव सुधारों के समग्र प्रश्न की भी है। चुनाव प्रक्रिया को बेहतर बनाने, चुनाव प्रणाली में सुधार लाने, उसमें खर्च होने वाली रकम के नियमन में, उस पर से बाहुबल-धनबल-जातिबल का रुतबा हटाने के मामले में दिया गया हर सुझाव ठंडे बस्ते में डाला जाता रहा है।

चुनाव-सुधारों पर भी ध्यान देने का समय

चुनाव-सुधारों की जरूरत की ओर सबसे पहले सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण का ध्यान गया था। उन्होंने न्यायमूर्ति वी.एम. तारकुण्डे की अगुआई में एक समिति गठित की, जिसकी रपट 1975 में सामने आई। इसके बाद से कई कमेटियों, आयोगों और अध्ययनों का सिलसिला शुरू हो गया। 1990 में दिनेश गोस्वामी कमेटी गठित की गई। 1998 में इंद्रजीत गुप्ता कमेटी ने मुख्य रूप से चुनाव में खर्च होने वाले धन की समस्या पर विचार किया। 1999 में विधि आयोग ने 170 पृष्ठ की रपट जारी की, जिसमें व्यापक चुनाव सुधारों की सिफारिशें की गई थीं। निर्वाचन आयोग भी अस्सी के दशक से ही चुनाव सुधारों के लिए तरह-तरह की पहलकदमियां लेता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों ने भी कई पहलुओं से चुनाव-प्रक्रिया को सुधारा है। विरोधाभास यह है कि इन प्रयासों के बावजूद चुनाव-प्रक्रिया से धनबल, बाहुबल और पराधीकरण को बहिष्कृत नहीं किया जा सका है। इसका सबसे बड़ा कारण है दलों की हिचक, जिससे भारतीय लोकतंत्र निर्वाचन की आदर्श संरचनाओं से दूर बना हुआ है। जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 की उपधारा (1) का ताल्लुक चुनाव में होने वाले खर्चे से है। मूलत: इसका मतलब था उम्मीदवार के दोस्तों और रिश्तेदारों या उसके एजेंटों द्वारा किए जाने वाले व्यय को भी खर्च सीमा के तहत लाना। खर्च सीमा के उल्लंघन का अर्थ था चुनाव ल?ने पर छह साल की पाबंदी। 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में उठे विवाद पर विचार करके फैसला दिया था कि दोस्तों, एजेंटों और राजनीतिक दलों द्वारा किया जाने वाला खर्च भी उम्मीदवार द्वारा किए जाने वाले व्यय में शुमार किया जाना चाहिए। अगर सुप्रीम कोर्ट की बात मान ली जाती तो चुनाव को धनबल के जरिए प्रभावित करने पर काफी हद तक रोक लग सकती थी। लेकिन फैसला आने के फौरन बाद एक अध्यादेश जारी करके उपधारा (1) में एक व्याख्या जोडक़र इसे निष्प्रभावी कर दिया गया। बाद में यह अध्यादेश संसद द्वारा जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन की तरह पारित हो गया।

चुनाव का गंभीरता से प्रबंधन

मुख्य चुनाव आयुक्त बनने पर टीएन शेषन ने दो अगस्त 1993 को अपने एक आदेश द्वारा चुनाव आयोग की स्वायत्त संवैधानिक हैसियत का अहसास सरेआम करवा दिया। उसी के जरिये उन्होंने नेताओं और नौकरशाही को जता दिया कि चुनाव प्रबंधन गंभीर कार्यपालिक कार्य है और उसमें कोताही सभी वर्गों को भारी पड़ेगी। उन्होंने साफ चुनौती दी कि सरकार जब तक चुनाव आयोग के संवैधानिक अधिकारों, शक्तियों को नहीं मानती, तब तक आयोग देश में कोई भी चुनाव आयोजित नहीं करेगा। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे लोकतंत्र की तालाबंदी और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने उन्हें पागल बता दिया, मगर वे टस से मस नहीं हुए। इसलिए पश्चिम बंगाल में राज्यसभा चुनाव को बीच में ही रोकना पड़ा।

शेषन ने नेताओं को कराया था चुनाव आयोग की हैसियत का अहसास

शेषन ने अपने संवैधानिक पद के बूते चुनाव व्यवस्था को चलताऊ रवैये से निजात दिलाकर जवाबदेह प्रणाली में विकसित किया। हालांकि उनके बाद यह मुहिम कुछ कमजोर पड़ी। लगभग 90 करोड़ मतदाताओं वाले इस देश को टीएन शेषन ने निर्वाचन प्रक्रिया संबंधी प्रावधान सख्ती से लागू करके पहली बार यह अहसास कराया था कि चुनाव लोकतंत्र की आत्मा है और उसकी शुचिता सर्वोपरि है। उन्होंने जता दिया कि चुनाव आयोग द्वारा चुनाव को भरसक निष्पक्ष संचालित कराने पर ही असली जन प्रतिनिधित्वकारी सरकार बन सकती है। बाद में मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने भी बहुत सख्ती से सारे प्रावधान लागू किए। लिंगदोह ने विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्र संघ चुनाव की भी आचार संहिता बना दी। लिंगदोह ने भी अपने मुख्य चुनाव आयुक्त काल में हुए तमाम चुनावों में भ्रष्ट तौर-तरीकों पर अधिकतम अंकुश लगाया। टीएन शेषन ने जन समर्थन के मद में चूर नेताओं में सबसे अधिक सख्ती बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद पर की। उन्होंने होम गार्ड की सुरक्षा में बिहार का विधानसभा चुनाव कराने का लालू प्रसाद का दबाव सख्ती से दरकिनार करके पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों की निगरानी में मतदान कराया। शेषन ने चुनाव प्रचार की समय सीमा रात के 10 बजे मुकर्रर की और प्रचार सामग्री को घरों अथवा सरकारी दफ्तरों की दीवारों पर चिपकाने पर रोक लगा दी। उन्होंने चुनाव प्रचार में खर्च की सीमा की निगरानी भी कड़ाई से कराई तथा मतदान की पूर्व संध्या में मतदाताओं को प्रभावित करने के शराब अथवा पैसे बांटने जैसे हथकंडों को नेस्तनाबूद किया। उन्होंने चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों को मैदानी वस्तुस्थिति के सटीक आंकलन तथा रिपोर्टिंग के लिए प्रोत्साहित किया। चुनाव आयोग ने मतदाताओं को उनके मत का महत्व बताने संबंधी जागरुकता अभियान भी चलाया। उन्होंने चुनाव आयोग को मतदाताओं की राय के रक्षक के रूप में पेश करके स्थानीय प्रशासन की मदद से उनके वोट लूटने पर रोक लगाई। तब से चले अभियानों की बदौलत ही आज अनेक राज्यों में लोग 70-80 फीसद तक मतदान कर रहे हैं। उन्होंने 1990 से 1996 के दौरान चुनाव प्रणाली को मजबूत और जनोन्मुख बनाया। उनके काल में यह कहा जाता था कि नेता या तो भगवान से डरते हैं या फिर शेषन से।

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