एससी-एसटी एक्ट मामले के आरोपपत्र में हो उपयोग किए गए अपशब्दों का जिक: सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 (एससी-एसटी एक्ट) के प्रविधानों के तहत किसी व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा चलाने से पहले आरोपपत्र में कम से कम उन शब्दों का उल्लेखनीय वांछनीय है जो आरोपित ने लोगों के समक्ष कहे हों।
इससे अदालतें अपराध का संज्ञान लेने से पहले यह पता लगाने में सक्षम होंगी कि आरोपपत्र में एससी/एसटी अधिनियम के तहत मामला बनता है अथवा नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामले की सुनवाई कर रहा था जिसमें एक व्यक्ति के विरुद्ध एससी-एसटी एक्ट की धारा-तीन(एक)(10) के तहत आरोपपत्र दाखिल किया गया था। यह धारा एससी या एसटी के किसी सदस्य को शर्मिंदा करने के उद्देश्य से सार्वजनिक रूप से देखे जाने वाले स्थान पर जानबूझकर अपमान करने या धमकी देने से संबंधित है।
जस्टिस एसआर भट और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ ने कहा कि विधायिका का उद्देश्य स्पष्ट प्रतीत होता है कि शर्मिंदा करने के लिए हर अपमान या धमकी एससी-एसटी एक्ट की धारा-तीन(एक)(10) के तहत अपराध नहीं होगा, जब तक कि ऐसा सिर्फ पीडि़त के एससी या एसटी होने की वजह न किया जाए।
पीठ ने कहा, अगर कोई किसी दूसरे व्यक्ति को सार्वजनिक स्थान पर बेवकूफ, मूर्ख या चोर कहता है तो यह निश्चित रूप से अपशब्दों या अभद्र भाषा के इस्तेमाल से जानबूझकर अपमान या शर्मिंदा करने का कृत्य होगा। अगर इन शब्दों का उपयोग एससी या एसटी के विरुद्ध किया जाता है तो भी जातिसूचक टिप्पणियों के अभाव में ये धारा-तीन(एक)(10) लागू करने के लिए पर्याप्त नहीं होंगे।
शीर्ष अदालत ने कहा कि एससी-एसटी एक्ट की धारा-18, सीआरपीसी की धारा-438 के तहत अदालत के अधिकार क्षेत्र को लागू करने पर रोक लगाती है। यह धारा गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्ति को जमानत देने से संबंधित है।
आरोपित के विरुद्ध आपराधिक प्रक्रिया रद करने वाले सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसके विरुद्ध दर्ज एफआइआर या दाखिल आरोपपत्र में इस बात जिक्र नहीं है कि घटना के वक्त उस स्थान पर शिकायतकर्ता और उसके परिवार के दो सदस्यों के अलावा कोई और मौजूद था। इसलिए अगर अपीलकर्ता ने कुछ कहा भी था जो लोगों के देख सकने वाले स्थान पर नहीं था तो एससी-एसटी एक्ट की धारा-तीन(1)(10) का मूल तत्व अनुपस्थित है।
पीठ ने यह भी कहा कि एफआइआर और आरोपपत्र में मौखिक विवाद के दौरान अपीलकर्ता के बयानों या शिकायतकर्ता की जाति का कोई जिक्र नहीं था, सिवाय इस आरोप के कि जाति से संबंधित गालियां दी गईं।शीर्ष अदालत पिछले वर्ष मई के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के विरुद्ध अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने सीआरपीसी की धारा-482 के तहत आवेदन खारिज कर दिया था।
अपील में आरोपपत्र और अपीलकर्ता के विरुद्ध लंबित आपराधिक कार्यवाही रद करने की मांग की गई थी। पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता के विरुद्ध जनवरी, 2016 में एक एफआइआर दर्ज की गई थी और जांच के बाद, जो एक दिन के भीतर पूरी हो गई थी, जांच अधिकारी ने आइपीसी की विभिन्न धाराओं और एससी-एसटी एक्ट की धारा 3(1)(10) के तहत कथित अपराधों के लिए आरोपपत्र दायर किया था। अपीलकर्ता ने इस आधार पर आपराधिक कार्यवाही रद करने की मांग करते हुए हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था कि आरोपपत्र में कोई अपराध नहीं बताया गया था और उत्पीडऩ के इरादे से मुकदमा चलाया गया था।
शीर्ष अदालत ने हाई कोर्ट का आदेश दरकिनार करते हुए कहा, किसी मामले में एक दिन के भीतर जांच पूरी करने की सराहना की जा सकती है, लेकिन वर्तमान मामले में यह न्याय की सेवा करने की तुलना में असंगति अधिक है।

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