सिद्धारमैैया मतलब जो चाहा वो पा लिया

कर्नाटक में जनप्रिय नेता

  • पिछड़ा वर्ग में है अच्छी पैठ
  • पहले जनता दल में थे, जेडीएस छोडक़र कांग्रेस में आए

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
कर्नाटक। विधायकों से सीक्रेट वोटिंग में सिद्धारमैया का पलड़ा भारी पडा और वे मुख्यमंत्री बन गए। राजनीतिक पंडित कहते हैं कि सिद्धारमैया कांग्रेस विधायक दल के लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए पहले नेता हैं। 10 साल बाद सिद्धारमैया फिर से डीके शिवकुमार पर भारी पड़े हैं। 2023 के कर्नाटक चुनावों में कांग्रेस को बहुमत मिला है।
सिद्धारमैया का जन्म 12 अगस्त 1948 को मैसूरु जिले के सिद्धारमहुंडी गांव के किसान परिवार सिद्धारमे गौड़ा के घर में हुआ। कुरुबा गौडा समुदाय में जन्मे सिद्धारमैया पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर हैं। बचपन में पढ़ाई को लेकर सिद्धारमैया की कोई विशेष रुचि नहीं थी। वह मवेशियों की देखभाल और खेतों में पिता का हाथ बंटाते थे। बाद में पिता ने उन्हें पढ़ाई के लिए राजी किया और गांव के बुजुर्ग अप्पाजी उनके पहले शिक्षक बने। सिद्धारमैया के एक रिश्तेदार बताते हैं कि सिद्धारमा का अर्थ होता है एक ऐसा शख्स जो वह चाहता है, उसे पा लेता है। सिद्धारमैया बचपन से ही जिद्दी और समझौता न करने वाले शख्स रहे हैं। उनकी यही क्वालिटी राजनीति में उन्हें यहां तक लेकर आई है। चाचा राम गौड़ा बताते हैं कि सिद्धारमैया के पिता की उस वक्त बहुत आमदनी नहीं थी। वो पढ़ाई के लिए एक-एक पैसा बचाते थे। सिद्धारमैया स्कूल जाने के बाद भी पहले की तरह ही पिता की मदद करते रहे।

पिछड़ा वर्ग में बढ़ी पॉपुलैरिटी

2004 में कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर कर्नाटक में सरकार बनाई। कांग्रेस के धरम सिंह मुख्यमंत्री बने। वहीं सिद्धारमैया को डिप्टी सीएम बनाया गया। सिद्धारमैया सीएम के चेहरे के तौर पर तेजी से उभर रहे थे और खुद को पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में स्थापित करने लगे। इसी बीच अनुभवी राजनेता आरएल जालप्पा ने अहिंदा बनाया जो अल्पसंख्यकों, ओबीसी और दलितों को एकजुट करता है। जालप्पा के साथ सिद्धारमैया भी अहिंदा को आगे बढ़ाने में जुट गए। साथ ही एक के बाद एक तीन अहिंदा सम्मेलन बुलाया गया। इसने सिद्धारमैया का कद बढ़ा दिया।

कभी सब्जियां और राशन लेने के लिए 10 किलोमीटर जाते थे

वह सब्जियां और घर का राशन लेने के लिए 10 किलोमीटर पैदल चलकर जाते थे। घर आने पर पिता उन्हें मसालेदार मुरमुरा देते, जो सिद्धारमैया को काफी पसंद था। दूसरे चाचा सिद्देगौड़ा कहते हैं कि वे शुरू से जानते थे कि सिद्धारमैया कुछ अलग है। उनका भतीजा गांव का पहला ग्रेजुएट होने के साथ एक वकील भी है। सिद्धारमैया ने लॉ की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैसूरु में एक वकील चिक्काबोरैया के अधीन एक जूनियर के रूप में काम किया, जिसने युवा सिद्धारमैया को निखारा। सिद्धारमैया के सीनियर रहे चिक्काबोरैया बताते हैं कि जब वह प्रैक्टिस करने लगे तो हर केस से जुड़े नोट्स लेते थे और रिसर्च करने के बाद ही जज के सामने बहस करते थे। वह कहते हैं कि सिद्धारमैया राजनीति में नहीं गए होते तो अच्छे वकील होते। कानूनी पेशे में सिद्धारमैया के एक दूसरे सहयोगी थम्मन्ना गौड़ा ने कहा कि वह 1979 से पहले से उन्हें जानते हैं। उन्होंने बताया कि सिद्धारमैया ने न केवल कोर्ट में प्रैक्टिस की, बल्कि एक स्थानीय लॉ कॉलेज में पार्ट टाइम पढ़ाया भी। उन्होंने बताया कि जब वे एक बार सिद्धारमैया के कमरे में गए तो उन्हें काफी आश्चर्य हुआ। कमरे में कपड़े से ज्यादा किताबें थीं। उन्होंने कहा कि जहां तक वह जानते हैं, सिद्धारमैया एक खाट पर सोते थे और अपने पूरे शैक्षिक जीवन में एक संयमित जीवन जिया।

देवगौड़ा ने टिकट नहीं दिया, तो निर्दलीय जीत गए

वकालत करने के दौरान सिद्धारमैया को उनके एक सहयोगी वकील नंजुंदा स्वामी ने तालुका चुनाव लडऩे की सलाह दी। साल 1978 सिद्धारमैया ने चुनाव लड़ा और मैसूरु तालुका के लिए चुन लिए गए। सिद्धारमैया डॉ. राम मनोहर लोहिया के समाजवाद से प्रभावित थे। उन्होंने वकालत छोडक़र राजनीति में प्रवेश किया। साल 1983 की बात है। सिद्धारमैया बेंगलुरु में जनता पार्टी के ऑफिस के बाहर कर्नाटक की चामुंडेश्वरी विधानसभा सीट से टिकट पाने की आस में बैठे थे। उस वक्त जनता पार्टी के अध्यक्ष एचडी देवगौड़ा थे। देवगौड़ा ने सिद्धारमैया को टिकट देने से साफ मना कर दिया। सिद्धारमैया ने हार नहीं मानी और अपने राजनीतिक गुरु अब्दुल नाजीर साब की सलाह पर चामुंडेश्वरी से निर्दलीय चुनावी मैदान में उतर गए। इसी बीच लोक दल ने भी सिद्धारमैया को समर्थन दे दिया। बिना किसी राजनीतिक अनुभव के सिद्धारमैया जीत गए और रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व वाली पहली गैर कांग्रेसी सरकार का समर्थन किया। इसके बाद पुराने मैसूरु क्षेत्र में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए देवगौड़ा ने भी उन्हें अपना लिया। 1985 में मध्यावधि चुनाव हुए। सिद्धारमैया लगातार दूसरी बाद चामुंडेश्वरी से विधायक बने।

हेंगड़े की सरकार में बने मंत्री

हेगड़े ने राज्य की प्रशासनिक भाषा के रूप में कन्नड़ का इस्तेमाल करने के लिए बनाई गई कमेटी की अध्यक्षता सिद्धारमैया को सौंप दी। इससे सिद्धारमैया को राजनीतिक रूप से काफी फायदा मिला। साल 1985 के बाद हेगड़े ने सिद्धारमैया को अपने मंत्रालय में शामिल किया। हेगड़े सरकार में सिद्धारमैया ने पशुपालन और परिवहन जैसे मंत्रालयों को संभाला। साल 1989 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सीनियर नेता एम राजशेखर मूर्ति से सिद्धारमैया चुनाव में हार गए। 1992 में वह जनता दल के महासचिव बने। 1994 के चुनाव में सिद्धारमैया चुनाव जीत गए और देवगौडा सरकार में वित्तमंत्री बने। साल 1996 में जब देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाया गया तो सिद्धारमैया के सीएम बनने की संभावना जताई जाने लगी थी, लेकिन जनता दल के ही जेएच पटेल बाजी मार गए। हालांकि, सिद्धारमैया को डिप्टी सीएम बनाया गया। 1999 में जनता दल में टूट के बाद सिद्धारमैया ने देवगौड़ा का दामन थामा और जेडीएस से जुड़ गए। इस दौरान देवगौड़ा ने उन्हें कर्नाटक में जेडीएस का अध्यक्ष बना दिया। इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में सिद्धारमैया को एक बार फिर हार का सामना करना पड़ा। 2005 में देवगौड़ा ने बेटे एचडी कुमारस्वामी को जेडीएस में आगे बढ़ाने के लिए सिद्धारमैया को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था।

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