ट्रंप का सस्ता दवा बम भारत के फार्मा साम्राज्य पर सीधा वार ?

- भारतीय दवा कंपनियों के मुनाफे पर गहरी चोट
- मोदी-ट्रंप रिश्तों में बढ़ती तल्खी का एक और संकेत
- भारतीय दवा कंपनियों के शेयरों पर पड़ सकता है उल्टा असर!
4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दवाओं की कीमतों में भारी कटौती का ऐलान कर न सिर्फ अमेरिकी फार्मा उद्योग को झकझोर कर दिया है बल्कि भारत जैसे देशों की दवा अर्थव्यवस्था को भी अनिश्चितता के भंवर में डाल दिया है।
ट्रंप का दावा है कि अब अमेरिकी नागरिक दुनिया में कहीं भी मिलने वाली सबसे कम कीमत से ज्यादा दाम दवाओं के लिए नहीं चुकाएंगे। पहली नजर में यह फैसला अमेरिकी जनता के लिए राहत भरा दिखता है लेकिन इसके दूरगामी असर वैश्विक दवा बाजार खासकर भारत के जेनेरिक दवा निर्यात पर पडऩे तय माने जा रहे हैं।
कितना बड़ा है यह बाजार
वैश्विक फार्मा बाजार का आकार लगभग 1.5 ट्रिलियन डालर का है। अकेले अमेरिका इसमें करीब 550-600 बिलियन डालर का हिस्सा रखता है यानी दुनिया का सबसे बड़ा दवा बाजार। भारत का फार्मा उद्योग लगभग 50 बिलियन डालर का है जिसमें से बड़ा हिस्सा निर्यात का है। अमेरिका भारत के कुल दवा निर्यात का लगभग 30-35 प्रतिशत आयात करता है। ऐसे में अमेरिकी नीति में जरा-सी सख्ती भी भारतीय दवा कंपनियों के लिए बड़ा झटका बन सकती है।
भारत की कंपनियों पर पड़ेगा निगेटिव असर
ट्रंप के फैसले का सबसे पहला और सीधा असर भारतीय दवा कंपनियों के मुनाफे पर पड़ेगा। अमेरिका पहले से ही दवाओं की कीमतें घटाने का दबाव बना रहा है। अब सरकार खुद कीमत तय करने या अंतरराष्ट्रीय तुलना के आधार पर दाम कम करने की बात कर रही है। इससे भारतीय कंपनियों को और सस्ते दाम पर दवाइयां सप्लाई करनी पड़ सकती हैं। सन फार्मा, डा. रेडडी, सिपला, लयूपिन जैसी कंपनियां अमेरिकी बाजार पर अत्यधिक निर्भर हैं। कई कंपनियों की आधी से ज्यादा कमाई अमेरिका से आती है। कीमतों में कटौती का मतलब है कि मार्जिन और पतले होंगे। इसके साथ ही एफडीए की सख्ती निरीक्षण और संभावित चेतावनी पत्रों का जोखिम भी बढ़ सकता है। छोटी और मझोली भारतीय कंपनियों के लिए यह स्थिति और कठिन हो सकती है, क्योंकि उनके पास न तो बड़े पैमाने की ताकत है और न ही लंबे समय तक नुकसान झेलने की क्षमता। शेयर बाजार में भी इस घोषणा के बाद फार्मा सेक्टर में अस्थिरता देखी जा सकती है।
दवाइयों का अर्थशास्त्र
दवाइयों का अर्थशास्त्र सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं से बिल्कुल अलग होता है। यहां कीमतें लागत से नहीं बल्कि पेटेंट, रिसर्च, ब्रांड वैल्यू और रेगुलेटरी ताकत से तय होती हैं। अमेरिका में दवाइयों की कीमतें इसलिए ऊंची हैं क्योंकि वहां पेटेंट संरक्षण मजबूत है और सरकार को दवा कंपनियों से सीधे मोलभाव का अधिकार लंबे समय तक नहीं मिला। इसके उलट भारत में पेटेंट कानून अपेक्षाकृत लचीले हैं जिससे जेनेरिक दवाओं का उत्पादन संभव हुआ। यही कारण है कि भारत की वही दवाएं अमेरिका की तुलना में 80-90 प्रतिशत सस्ती होती हैं। ट्रंप इसी अंतर को खत्म करना चाहते हैं लेकिन यह अंतर मिटाने की कोशिश वैश्विक दवा व्यापार के संतुलन को बिगाड़ सकती है।
मोदी-ट्रंप के बीच बढ़ती तनातनी
मोदी और ट्रंप के रिश्ते सार्वजनिक मंचों पर भले ही दोस्ताना दिखतें हो लेकिन व्यापार के मोर्चे पर दोनों देशों के बीच तनाव लगातार बढ़ा है। अमेरिका पहले ही भारत को व्यापार में टैरिफ किंग कह चुका है। स्टील, एल्युमिनियम, आईटी सर्विसेज और अब दवाइयां हर मोर्चे पर अमेरिका भारत से रियायत चाहता है। दवाओं का मुद्दा इसलिए भी संवेदनशील है क्योंकि भारत की सस्ती दवाइयां अमेरिकी कंपनियों के मुनाफे को चुनौती देती हैं। ट्रंप का यह फैसला संकेत देता है कि वे अब सिर्फ चीन ही नहीं बल्कि भारत जैसी उभरती आर्थिक ताकतों को भी दबाव में लाना चाहते हैं। यह नीति मोदी सरकार के लिए कूटनीतिक रूप से असहज स्थिति पैदा कर रही है।
700 परसेंट तक सस्ती होंगी दवाइयां
ट्रंप ने यह घोषणा स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े शीर्ष अधिकारियों और दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में की। उन्होंने कहा कि दशकों से अमेरिकी नागरिकों को दुनिया की सबसे महंगी दवाएं खरीदने को मजबूर किया गया और अब इस लूट को खत्म किया जाएगा। ट्रंप का दावा है कि कई दवा कंपनियां कीमतों में 300 से 700 प्रतिशत तक की कटौती पर सहमत हो चुकी हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि अगर विदेशी सरकारें दवाओं की कीमतें कम नहीं करतीं है तो अमेरिका टैरिफ जैसे हथियारों का इस्तेमाल करेगा।
दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है भारत
यहीं से भारत की चिंता शुरू होती है। भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा जेनेरिक दवा उत्पादक और निर्यातक है। अमेरिका भारत के लिए सबसे बड़ा दवा निर्यात बाजार है, जहां भारत की सस्ती जेनेरिक दवाओं ने अमेरिकी स्वास्थ्य व्यवस्था को लंबे समय तक संभाला है। लेकिन ट्रंप का नया फार्मूला मोस्ट फेवरेट नेशन प्राइस भारत की इसी ताकत को उसके लिए कमजोरी में बदल सकता है। सवाल यह है कि क्या ट्रंप का यह कदम सिर्फ अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए है या फिर यह भारत जैसी उभरती दवा ताकतों को नियंत्रित करने की रणनीति का हिस्सा है? क्या यह फैसला भारतीय दवा कंपनियों के मुनाफे पर सीधा हमला है? और क्या यह मोदी-ट्रंप रिश्तों में बढ़ती तल्खी का एक और संकेत है। इन सवालों के जवाब केवल दवाओं की कीमतों में नहीं बल्कि दवाओं के वैश्विक अर्थशास्त्र, व्यापार युद्ध, कूटनीति और मुद्रा बाजार में छिपे हैं। ट्रंप का यह फैसला आने वाले समय में यह तय करेगा कि भारत दुनिया की फार्मेसी उद्योग में लीड करता रहेगा या नहीं । अमेरिकी नीति के सामने उसे अपने माडल पर दोबारा विचार करना पड़ेगा।




