विचाराधीन कैदियों को वोट का अधिकार- क्या कानून बदलेंगे?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विचाराधीन कैदियों को मतदान का अधिकार देने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई के लिए केंद्र सरकार और संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किया गया है...

4पीएम न्यूज नेटवर्कः भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विचाराधीन कैदियों को मतदान का अधिकार देने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई के लिए केंद्र सरकार और संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किया गया है…यह याचिक देश में मौजूदा प्रतिनिधित्व कानून की धारा 62(5) को चुनौती देती है, जो जेल में बंद व्यक्तियों पर मतदान से वंचित करती है, भले ही उन्हें अभी दोषी करार न दिए गए हो.
इसे कानून की विसंगतियां कहें या फिर जेल में बंद विचाराधीन कैदियों के साथ भेदभाव, जो कारागार से चुनाव तो लड़ सकता है पर मतदान के अधिकार से वंचित रह जाता है. सर्वोच्च अदालत इस जटिल सवाल पर 1997 में फैसला दे चुका है, लेकिन एक बार फिर भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बीआर गवई ने विचाराधीन कैदियों को मताधिकार की मांग वाली याचिका पर नोटिस जारी कर दिया.
देश की जेलों में बंद पांच लाख से ज्यादा कैदी वोट डालने से मरहूम रह जाते हैं. उनके अधिकार पर जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 62(5) प्रतिबंध लगाती है. ढाई दशक पहले सुप्रीम कोर्ट ने इसी धारा को अनुकूल चंद्र प्रधान बनाम भारत सरकार (1997) मामले में बरकरार रखा था. तब बहस तीन मुख्य पहलुओं पर हुई थी, पर 28 साल के अंतराल में कुछ पहलुओं पर सुप्रीम कोर्ट की राय ही बदली है.
चूंकि नागरिकों को मिला मतदान का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है. यह अनुच्छेद 326 के तहत संविधान से मिला एक अधिकार है और यही सबसे बड़ा पेंच है, जिसके चलते कानून के तहत विचाराधीन कैदियों को मताधिकार से वंचित किया गया है.
साल 2023 में अनूप बरनवाल बनाम भारत सरकार मामले में 2023 में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के भाग-3 के तहत मतदान के अधिकार को भी मौलिक अधिकार माना था. दूसरा पहलू यह कि दोषी करार दिए जाने तक किसी व्यक्ति का संविधान से मिला अधिकार छीना जाना कितना मुनासिब है या फिर मनमाना है. तीसरा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 62 (5) में स्पष्ट, सटीक और उचित है या फिर नहीं. अब देखना ये है कि सरकार इस मामले में क्या जवाब देती है, क्योंकि चुनाव आयोग की भूमिका कानून बनाने में नहीं है और ना ही मताधिकार से किसी नागरिक को वंचित करने के पहलू से उसका लेना देना है.
तथ्यों पर गौर करें तो 1.40 अरब की जनसंख्या वाले देश में सवा पांच लाख से ज्यादा लोग जेलों में बंद है. प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया 2023 के अनुसार, जो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की ओर से प्रकाशित की गई है, कुल कैदियों में से 73.5% विचाराधीन हैं. इसका मतलब है कि 5.3 लाख कैदियों में से 3.9 लाख ऐसे हैं जिन पर अभी मुकदमा चल रहा है और उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया है. याचिकाकर्ता सुनीता शर्मा की दलील है कि इन विचाराधीन कैदियों को वोट देने के अधिकार से वंचित रखना अनुचित है.
याचिका में मांग की गई है कि चुनाव आयोग जेल में बंद विचाराधीन कैदियों के मतदान के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए दिशानिर्देश तैयार करे. साथ ही, जेलों के अंदर मतदान केंद्र स्थापित करने या यदि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र या राज्य से बाहर की जेलों में हैं तो डाक मतपत्र का उपयोग करने की सुविधा प्रदान करने की मांग की गई है.
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में की गई ये मांग
यह कदम विचाराधीन कैदियों के लिए मतदान को सुलभ बनाने में मदद करेगा. याचिका में यह भी कहा गया है कि दोषी ठहराए गए कैदियों या भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार किए गए लोगों को वोट देने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए. याचिकाकर्ता का मानना है कि यह अंतर उन लोगों के लिए उचित है जिन पर अभी मुकदमा चल रहा है और जिन्हें अभी दोषी नहीं ठहराया गया है. याचिका में यह भी बताया गया है कि पाकिस्तान सहित अधिकांश देशों में विचाराधीन कैदियों को वोट देने का अधिकार प्राप्त है. यह तुलना भारत में मौजूदा स्थिति पर सवाल उठाती है.
याचिका में कहा गया है कि भारत में, 75% से अधिक कैदी मुकदमे से पहले या विचाराधीन हैं. इनमें से कई दशकों से जेल में हैं. ऐसे मामलों में 80-90% व्यक्तियों को अंततः बरी कर दिया जाता है. फिर भी, उन्हें दशकों तक वोट देने के मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित रखा जाता है. यह स्थिति न्याय प्रणाली की प्रभावशीलता पर भी सवाल उठाती है.
याचिकाकर्ता के नजरिए से देखें तो जेल के कैदियों को मताधिकार से वंचित करने से ऐसा संदेश पहुंचने की अधिक संभावना है जो उन मूल्यों को बढ़ाने वाले संदेशों की तुलना में कानून और लोकतंत्र के प्रति सम्मान को कमजोर करते हैं. वोट देने के अधिकार से वंचित रखना दंड के वैद्य मापदंडों का अनुपालन नहीं करता है.
यदि एक दोषी व्यक्ति जमानत पर बाहर होने पर मतदान कर सकता है, तो एक विचाराधीन व्यक्ति को उसी अधिकार से वंचित क्यों किया जाता है, जिसे अभी तक कानून की अदालत द्वारा अपराध का दोषी नहीं पाया गया है.यहां तक कि एक देनदार (एक व्यक्ति जिसने अदालत के फैसले के बावजूद अपने कर्ज का भुगतान नहीं किया है) जिसे एक नागरिक के रूप में गिरफ्तार किया गया है, उसे वोट देने के अधिकार से वंचित किया जाता है.
सिविल जेलों में नजरबंदी अपराधों के लिये कारावास के विपरीत है. दक्षिण अफ्रीका, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, कनाडा, आदि देशों के विपरीत यह प्रतिबंध उचित वर्गीकरण का अभाव है. वर्गीकरण का यह अभाव अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) के तहत समानता के मौलिक अधिकार के लिये अभिशाप है.
संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत मतदान का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62(5) के तहत यह प्रावधान है कि जो व्यक्ति पुलिस की कानूनी हिरासत हैं एवं दोषी ठहराए जाने के बाद जेल की सजा काटने वाला शख्स मतदान नहीं कर सकता. विचाराधीन कैदियों को भी चुनाव में भाग लेने से बाहर रखा जाता है, भले ही उनके नाम मतदाता सूची में हों.
याचिका में यह भी स्वीकार किया है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 62 (5) की वैधता को पहले अनुकूल चंद्र प्रधान बनाम भारत संघ (1997) के मामले में बरकरार रखा गया था. हालांकि यह कहा गया है कि उस समय सर्वोच्च अदालत ने मतदान के अधिकार को संविधान के तहत एक वैधानिक अधिकार माना था, ना कि मौलिक अधिकार. याचिका में अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ (2023) के फैसले का हवाला देते हुए कहा गया है कि तब से, मतदान के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय का रुख बदल गया है. न्यायालय ने कहा था कि मतदान का अधिकार केवल एक संवैधानिक अधिकार नहीं है, बल्कि संविधान के भाग III के अंतर्गत आता है, जिसका अर्थ है कि इसे मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है.
सुप्रीम कोर्ट से याचिकाकर्ता ने की ये मांग
इसलिए, याचिकाकर्ता ने अब सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह किया है कि वह विचाराधीन कैदियों (चुनाव कानूनों के तहत भ्रष्ट आचरण के लिए दोषी ठहराए गए लोगों को छोड़कर) को मतदान का अधिकार प्रदान करने के लिए दिशानिर्देश जारी करे, चाहे इसके लिए अधिकारियों को जेलों में मतदान केंद्र स्थापित करने का आदेश दिया जाए या डाक मतपत्रों की अनुमति दी जाए.



