जातीय जनगणना टालना सियासी दांव तो नहीं!

जाति और धर्म के नाम पर वोट बैंक को साधने की कवायद

  • जनगणना के अधिकृत और वैज्ञानिक आंकड़े जरूरी
  • विपक्ष और सत्ता पक्ष के कुछ नेता चाहते हैं जातिगत जनगणना हो   

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। जहां बिहार जातिगत जनगणना शुरू करवाकर सुर्खियों में बना हुआ है वही एक खबर और भी जिसे संज्ञान नहीं लिया गया वो भारत की जनगणना की तारीखों का टाला जाना। केंद्र सरकार 2021 से लगातार तारीखे बढ़ाती जा रही है। कभी कोविड के नाम पर तो कभी और किसी वजह से। इस बार फिर टाल दी गई है। दरअसल, पिछली जनगणना 2011 में हुई थी। तब देश की आबादी 121 करोड़ थी। अब अनुमान है कि हम जनसंख्या में चीन से आगे निकलने वाले हैं।
जानकारों की माने तो मोदी सरकार इन तारीखों को इसलिए बढ़ा रही है क्योंकि वह नहीं चाहती जातिगत व पिछड़ा वर्ग की संख्या सामने आए। अभी केवल अनुसूचित जाति और जनजाति की संख्या ही जनगणना में आती है। अब कई राज्य जातिगत गणना की मांग कर रहे हैं। खासकर, पिछड़ा वर्ग की गणना। केंद्र सरकार इस पचड़े में पडऩा नहीं चाहती, इसलिए तारीखें बढ़ाई जा रही हैं। पहली जनसंख्या भारत में 1881 में हुई थी। तब आबादी 25.38 करोड़ थी। सवाल ये उठता है कि किसी देश की बढ़ती आबादी उसके लिए फायदेमंद है या नुकसानदेह? क्योंकि हमेशा चर्चा होती है कि जनसंख्या वृद्धि एक विस्फोट की तरह है। इस पर काबू नहीं पाया गया तो देश गरीबी के गर्त में चला जाएगा। कई विशेषज्ञों का मानना है कि जनसंख्या ज्यादा होना किसी भी देश के लिए फायदेमंद ही होता है, नुकसानदेह नहीं। मान लीजिए कि एक व्यक्ति घर में कमाने वाला है। उसके चार बच्चे हैं। आगे चलकर चारों कमाने लगें तो यह उस परिवार के लिए फायदेमंद ही है। नुकसानदेह तब था जब घर में एक ही व्यक्ति कमाता था और खाने वाला पूरा परिवार होता था। अब ऐसा नहीं है। अब तो घर का हर व्यक्ति, चाहे वह महिला हो या पुरुष, सब नौकरी या बिजनेस में जुटे हैं। इसीलिए, जनसंख्या वृद्धि अब अभिशाप नहीं, बल्कि वरदान है।
वहीं बिहार में जातिगत गणना के खिलाफ पीआईएल पर सुप्रीम कोर्ट में अगले हफ्ते सुनवाई होगी। संविधान की सातवीं अनुसूची और 1948 के कानून के अनुसार जनगणना कराने का अधिकार केंद्र सरकार को ही है। लेकिन ओबीसी के बारे में आयोग बनाने के साथ सामाजिक-आर्थिक सर्वे कराने के बारे में राज्य सरकारों को हक हासिल है। बिहार से पहले कर्नाटक में 2014 में जातिगत जनगणना हो चुकी है। समान नागरिक संहिता पर कानून बनाने का केंद्र को हक है। लेकिन इस बारे में कई राज्यों में बनाई गई समितियों को सुप्रीम कोर्ट ने हरी झंडी दिखा दी है। हर 10 साल में कराई जाने वाली जनगणना को 2021 में पूरा करने में केंद्र सरकार विफल रही है। इसलिए बिहार की जातिगत गणना का राज्य के भाजपा नेता भी विरोध नहीं कर पा रहे।

देश में हो रही है वोट बैंक की राजनीति

ओबीसी की 52 फीसदी आबादी को 27 फीसदी आरक्षण का लाभ देने के लिए मंडल आयोग ने अविभाजित भारत की सन् 1931 की जनगणना को आधार माना था। उसके बाद से इस मामले पर तथ्यपरक काम के बजाय वोट बैंक की राजनीति और मुकदमेबाजी हो रही है। पिछली बार 2011 की जनगणना में ओबीसी की गणना के लिए जाति के कॉलम को शामिल करने पर तत्कालीन गृहमंत्री चिदम्बरम ने वीटो लगा दिया था। उसके बाद चलताऊ तरीके से ग्रामीण विकास और आवास मंत्रालयों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक सर्वे किया। आधार और वोटर लिस्ट अपडेट हो रही है। अदालतों से अनुच्छेद-15, 16 और 343 की व्याख्या से शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के नए वर्गीकरण हो रहे हैं। संविधान के 103वें संशोधन से ईडब्ल्यूएस के आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट की मान्यता के बाद 99 फीसदी आबादी आरक्षण के दायरे में आने से 50 फीसदी लिमिट पार होना तय है। जनसंख्या के आधार पर वित्त आयोग राज्यों के लिए संसाधन आवंटित करता है। खाद्य सुरक्षा कानून के तहत आबादी के अनुसार राज्यों को सस्ता अनाज मिलता है। नई जनगणना नहीं होने से लगभग 12 करोड़ गरीब पीडीएस के लाभ से वंचित हो सकते हैं। आम चुनावों के पहले सरकारी पदों में बम्पर भर्ती में आरक्षण लागू करने के लिए भी नवीनतम डाटा जरूरी है। चुनाव आयोग के रिमोट ईवीएम पर हो रही चर्चा के अनुसार देश में 45 करोड़ लोग प्रवासी हैं। दूसरे राज्यों में बसी इस प्रवासी आबादी को किस राज्य का माना जाए? इस सवाल के जवाब से संसद और राष्ट्रपति चुनावों में राज्यों का दबदबा बदल सकता है। फिलहाल 2001 की पुरानी जनगणना के अनुसार ही संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व है। 84वें संविधान संशोधन के अनुसार 2021 की जनगणना के अनुसार 2026 में विधानसभा और संसद की सीटों के परिसीमन का प्रावधान है। उस बड़ी संवैधानिक कवायद के बाद ही 2029 के आम चुनाव होने चाहिए। नए साल की शुरुआत में राम मंदिर के निर्माण की तारीख की घोषणा और बिहार में जातिगत जनगणना की शुरुआत से अगले आम चुनावों के लिए धर्म और जाति का एजेंडा सेट-सा लगता है। जाति और धर्म के नाम पर वोटबैंक और अफवाहों की सियासत को खत्म करने के लिए जनगणना के अधिकृत और वैज्ञानिक आंकड़े जरूरी हैं।

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