ओवैसी 2024 में कर सकते हैं उलटफेर!

मुस्लिमों के मुद्दे उठाकर सरकार को भी घेरेंगे

  • सभी पार्टियों पर करते हैं तीखा हमला
  • महागठबंधन को ओवैसी केआने से नुकसान

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
पटना। 2024 लोकसभा चुनाव को लेकर सभी राजनैतितिक दल अपने -अपने हिसाब से तैैैैैयारी में जुटे हैं। भाजपा, कांग्र्रेस से लेकर सभी क्षेत्रीय दल अपने नफे-नुकसान के आधार पर सियासी समीकरण बना रही है। किसी की हिंदू तो किसी की मुस्लिम वोट नजर है। बड़ी पार्टी हो या छोटे दल सबकी नजर मुस्लिमों के लगभग 20 प्रतिशत वोटों पर है। सारे दलों ने इसी को ध्यान में रखकर अपने यहां कुछ बड़े मुस्लिम चेहरों को पार्टी से जोडक़र रखा है। जैसे भाजपा में मुख्तार अब्बास नकवी , शहनवाज हुसैन मुस्लिम मामलों पार्टी का पक्ष रखते हैं तो आजम खान, शफीकुर्रर बर्क सपा की रायशुमारी करते हैं।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में सलमान खुर्शीद, राशिद अल्वी पार्टी का स्टैंड बयां करते हैं। पर इन सबसे असुद्दीन ओवैसी अलग विचार रखते हैं, उनका मानना है कि मुस्लिमों को किसी के पीछे चलने की जरूरत नहीं वो स्वयं अपना लीडरशीप तैैयार करे ताकि संसद में उनको ज्यादा ये ज्यादा प्रतिनिधित्व मिल सके। हालाकि ओवैसी की पार्टी को बहुत लोग वोट कटुआ पार्टी मानते है तो कुछ लोग इसको भाजपा की बी टीम भी बता देते हैं।
सीमांचल में,एएमएआईएफ के जनाधार का पहली बार पता तब चला, जब 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में इसके 5 एमएलए चुने गये थे। हालांकि दुर्भाग्य यह रहा कि उनमें 4 बाद में पाला बदल कर आरजेडी का हिस्सा बन गये। ओवैसी इस बात से भी आरजेडी के प्रति बेहद गुस्से में हैं। वे इसका बदला लेने की नीयत से ही सीमांचल में अपनी सक्रियता फिर से बढ़ाने पहुंचे हैं। अर्से तक मुस्लिम आरजेडी के समर्थक रहे। नीतीश के नेतृत्व में जब एनडीए की सरकार बनी तो मुस्लिमों का रुझान जेडीयू की तरफ बढ़ा। आरजेडी के आधार वोट को नीतीश ने अपने पाले में कर लिया। इसके लिए नीतीश ने बड़े कायदे से काम किये। सबसे पहले पिछड़े मुसलमानों की पसमांदा श्रेणी बना कर उन्होंने उनको अपनी ओर आकर्षित किया। बाद में वे अपने कुछ और कामों से मुसलमानों में लोकप्रिय होते गये। आरजेडी के समीकरण का रू (मुस्लिम) अब नीतीश का बन गया।

बिहार में धमाल करेंगे ओवैसी

एआईएममम सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद एक बार फिर धमाल मचाने बिहार पहुंचे हैं। मुस्लिम बहुल सीमांचल में उनकी सक्रियता से महागठबंधन के वोट बैंक में सेंध लगने का खतरा बढ़ गया है। यह भाजपा के लिए खुश करने वाली खबर है। बीजेपी को ओवैसी की सक्रियता से काफी फायदा होता है। बीजेपी का मानना है कि ओवैसी महागठबंधन के वोट बैंक तो अपनी ओर करने में सफल होते हैं। सीमांचल में सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी के पहुंचने के साथ ही सियासी सरगर्मी बढ़ गयी है। ओवैसी दो दिनों तक सीमांचल के मुस्लिम बहुल जिले किशनगंज के अलग-अलग क्षेत्रों में सभाएं करेंगे। इससे पहले केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और महागठबंधन के नेता भी इस इलाके में सभाएं कर चुके हैं। मुस्लिम बहुल होने के कारण महागठबंधन को अपना बड़ा वोट बैंक सीमांचल में दिखता है। इसलिए कि महागठबंधन के बड़े घटक आरजेडी के (मुस्लिम-यादव) समीकरण के एक हिस्से मुस्लिम यहां अधिक प्रभावकारी हैं। कहने को तो यह 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी है, लेकिन वास्तव में महागठबंधन और एनडीए सीमांचल में 2025 के विधानसभा चुनाव की तैयारी भी अभी से ही लग गए हैं। अब तो ओवैसी ने एंट्री मार ली है। ओवैसी का आना महागठबंधन के लिए जहां खतरे की घंटी है, वहीं बीजेपी खेमे में इससे खुशी की लहर है।

सीमांचल की छान रहें खाक

एआईएमआईएम की योजना के मुताबिक असदुद्दीन ओवैसी 18-19 मार्च को सीमांचल के कई विधानसभा क्षेत्रों में सभाएं करेंगे। उनके इस दौरे को लेकर एआईएमआईएम समर्थकों में जबरदस्त उत्साह है। ओवैसी पहले दिन पूर्णिया के बायसी और डगरुआ में कार्यकर्ता सम्मेलन करेंगे। अमौर प्रखंड के खाड़ी घाट में भी उनकी जनसभा रखी गयी है। देर शाम वे कोचाधामन प्रखंड के भट्टा हाट में सभा करेंगे। रविवार को ओवैसी बहादुरगंज विधानसभा क्षेत्र के अलग-अलग स्थानों पर कार्यकर्ता सम्मेलन करेंगे। पोठिया प्रखंड के भेड़भेरी से खरखड़ी घाट तक पद यात्रा भी करेंगे। स्थानीय मुद्दों को लेकर पार्टी ने 11 सूत्री मांग पत्र तैयार किया है। इसी मांग पत्र के साथ ओवैसी जनता के बीच जाएंगे। उनका फोकस उन विधानसभा क्षेत्रों पर अधिक है, जहां से उनके उम्मीदवार जीते थे। AIMIM के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान का कहना है कि उनके विधायकों को आरजेडी ने अपने पाले में कर लिया। उसका हिसाब लोकसभा चुनाव में पार्टी जरूर लेगी।

बीजेपी से अलग होकर नीतीश ने भरोसा जीता

अतीत में बिहार की सियासत में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिससे मुसलमानों का नीतीश पर भरोसा बढ़ा। पहली घटना तब की है, जब गुजरात का सीएम रहते नरेंद्र मोदी ने बिहार में बाढ़ राहत के लिए मदद भेजी। नीतीश ने मदद लेने से इनकार कर दिया। मदद का चेक वापस नरेंद्र मोदी के पास पहुंच गया। नीतीश ने अपने इस आचरण से यह दर्शाने की कोशिश की कि गुजरात दंगे के आरोपी सीएम से वह मदद नहीं ले सकते। इतना ही नहीं, वे बीजेपी के साथ रहते हुए भी उसके स्टार प्रचारक के रूप में नरेंद्र मोदी को बिहार आने से रोकते रहे। हद तो तब हो गयी, जब उन्होंने बीजेपी द्वारा नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट घोषित करते ही बीजेपी से कुट्टी कर ली। 2014 का लोकसभा चुनाव नीतीश की पार्टी जेडीयू ने पहली बार अलग लड़ा। फिर 2015 में आरजेडी और कांग्रेस के साथ बने महागठबंधन का हिस्सा जेडीयू बन गया। नरेंद्र मोदी से नीतीश की नफरत ऐसी रही कि एक बार पटना आने पर उन्होंने पहले से दिये भोज को अचानक रद्द कर दिया था। सीएए और एनआरसी के मसले पर भी नीतीश ने अपने विरोध के जरिये स्टैंड क्लीयर कर दिया। इन्हीं वजहों से आरजेडी से सटे मुसलमान नीतीश की पार्टी जेडीयू में अधिक अपनत्व देखने लगे।

ओवैसी के आने से बीजेपी को मिलेगा लाभा

बिहार के मुस्लिम बहुल इलाके ओवैसी को सूट करते हैं। यही वजह है कि 2020 में उन्होंने सीमांचल से अपने उम्मीदवार उतारने का पहला प्रयोग किया। इसमें उन्हें अप्रत्याशित कामयाबी भी मिली। बाद में विधानसभा की दो सीटों- कुढऩी और गोपालगंज के लिए हुए उपचुनावों में भी ओवैसी के उम्मीदवारों का असर दिखा। गोपालगंज में अगर ओवैसी के उम्मीदवार ने वोट नहीं काटे होते तो आरजेडी के उम्मीदवार का जीतना तय था। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि ओवैसी की पार्टी अगर चुनाव मैदान में उतरती है तो उसके उम्मीदवार भले न जीतें, पर महागठबंधन के कैंडिडेट के जीतने में बाधा तो बन ही सकते हैं। बीजेपी तो यही चाहती भी है। महागठबंधन के वोट कट जाएं और हिन्दुत्व के नाम पर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण बीजेपी की सफलता के लिए आवश्यक हैं।

वोट कटुवा पार्टियों से बचना जरू री

मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में इस साल चुनाव होने हैं। छोटी पार्टियां भी इनमें दावं लगाएंगी। हालांकि ये दल कुछ खास हासिल नही कर पाते पर बड़े सियासी दलों को नुसकान जरूर पहुंचा देते हैं। आजकल राजस्थान में इनकी सक्रियता कुछ ज़्यादा ही है। आप और ओवेसी ने अभी से ताल ठोक दी है। ओवेसी बीस-तीस सीटों पर और आप पार्टी राजस्थान की सभी सीटों पर चुनाव लडने की योजना बना चुकी है। दरअसल, ये दोनों ही पार्टी राजनीति में वोट कटुवा का काम करती हैं। इन्हें खुद को ज़्यादा कुछ नहीं मिलता। दूसरी बड़ी पार्टियों को ये अच्छा- ख़ासा नुक़सान और फ़ायदा करवाती हैं। अगर आप को याद हो तो गुजरात में यही हुआ था। ज़ोर- शोर से आप पार्टी गुजरात के चुनाव मैदान में उतरी थी। खूब हल्ला मचाया। खूब पब्लिसिटी पाई। आप पार्टी को आखिऱकार ज़्यादा कुछ नहीं मिला लेकिन कांग्रेस की खाट खड़ी हो गई और भाजपा की पौ बारह। इतिहास में गुजरात की किसी पार्टी को जितनी सीटें नहीं मिलीं, उतनी पर भाजपा की विजय हुई। भोपाल के भेल दशहरा मैदान पर आम आदमी पार्टी ने मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव का शंखनाद किया था। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने सभा करके कहा था- मध्यप्रदेश में सरकारें बेची और खरीदी जाती हैं। यहां एमएलए की खरीदी-बिक्री पर डिस्काउंट भी मिलता है। भोपाल के भेल दशहरा मैदान पर आम आदमी पार्टी ने मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव का शंखनाद किया था। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने सभा करके कहा था- मध्यप्रदेश में सरकारें बेची और खरीदी जाती हैं। यहां एमएलए की खरीदी-बिक्री पर डिस्काउंट भी मिलता है। ये गुजरात वाला कॉम्बिनेशन शायद भारतीय राजनीति में लम्बा चलने वाला है। आप पार्टी अब लगता है हर प्रदेश के चुनाव में आ धमकेगी और कांग्रेस की बची- खुची सीटों को भी खा जाने का काम करेगी। दरअसल, आप पार्टी के आ जाने से चुनाव पेचीदा होता नहीं है, बनाया जाता है। बताया जाता है। हवा इस तरह बनाई जाती है जैसे सरकार अब आप पार्टी की ही बनने वाली है। नजीजे जब आते हैं तो पता चलता है ज़्यादातर सीटों पर आप पार्टी के प्रत्याशियों की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई है। तो फिर सवाल ये उठता है कि आप के होने से किसी का भारी नुक़सान या किसी का भारी फ़ायदा कैसे होता है?वहीं राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के गृह जिले जोधपुर में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन-एआईएमआईएम के राष्ट्रीय अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी पहुंचे थे। उन्होंने कहा था- राजस्थान में मुस्लिमों के हालात पर सर्वे करवा रहे हैं। जब चुनाव आते हैं तो कहते हैं सेकुलरिज्म को जिंदा रखो।

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