24 तक चलेगा आने-जाने का दौर

भाजपा-कांग्रेस में पाला बदल रहे नेता

  • अपने-अपने हिसाब से ठौर की तलाश
  • कुनबा बढ़ाने में भी जुटे सियासी दल
  • अभी से सियासी पार्टियों की तैयारी

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। जैसे-जैसे 24 के चुनाव नजदीक आने की आहट सुनाई दे रही है। सियासी दलों व नेताओं की आवाजाही शुरू हो गई। अपने-अपने आंकलन के हिसाब से नेता दल बदल रहे हैं। जिस दल में नेता पहुंच रहे वो कह रही इसका लाभ मिलेगा तो जिसकी पार्टी से गया है वह उसको नाकारा बता रही है। ये दलबदल वाले कितना फायदेमंद रहे वो तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे पर इसमें कोई संदेह नहीं कि चुनाव आते-आते कई सियासी पुजारी अपना मठ बदलते नजर आएंगे। ऐसी नहीं कि दलो में भगदड़ होगी। गठबंधनों से भी लोग भाग रहे हैं। ताजा मामला जीतन राम मांझी का जिन्होंने बिहार में गठबंधन से नाता तोड़ दिया हैं वहीं मध्य प्रदेश में पूर्व सीएम कैलाश जोशी के पुत्र ने भी भाजपा को त्यागकर कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। अभी सियासत का ऊंट कई करवटें लेगा क्योंकि विधान सभा के चुनाव भी आने वाले हैं। विपक्षी दल किसी भी तरह से भाजपा को सत्ता से बाहर करने में जुटे हैं, इसके लिये विपक्षी दलों में एकजुटता के प्रयास हो रहे हैं। उधर भाजपा एवं उसके सहयोगी दल भी अपनी स्थिति को मजबूती देते हुए पुन: सत्ता में आने के तमाम प्रयास कर रहे हैं।
भारत के सभी राजनीतिक दल अब पूरी तरह चुनावी मोड में आ गये हैं और प्रत्येक प्रमुख राजनैतिक दल इसी के अनुरूप अपनी गोटियां सजाने में लगे दिखाई पड़ रहे हैं। 2024 लोकसभा एवं इसी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए सभी राजनीतिक दलों ने कमर कस ली है, वह पहली बार देखने को मिल रहा है की चुनाव के इतने लम्बे समय पूर्व ही चुनाव जैसी तैयारियां होती हुई दिख रही है। टुकड़े-टुकड़े बिखरे कुछ दल एक हो रहे हैं। विरोधी विचारधारा के दलों के साथ ग्रुप फोटो खिंचा रहे हैं। सत्ता तक पहुँचने के लिए कुछ दल परिवर्तन को आकर्षण व आवश्यकता बता रहे हैं। कुछ प्रमुख दलों के नेता स्वयं को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देख रहे हैं। सियासी दलों के वादे में भी मतदाता भी उलझा हुआ प्रतीत करेगा। चुुनाव में अभी समय है पर सियासी बयानबाजी में जनता को लुभाने वाले वादे उछलने लगे हैं। कोई मुफ्तखोरी की राजनीति का सहारा लेकर चुनाव जीतने की कोशिश करने में जुटा है तो कोई गठबंधन को आधार बनाकर चुनाव जीतने के सपने देख रहा है।

बीजेपी की ताकत घटी, अन्य दलों को भी जोड़ने में जुटी

विपक्षी दलों में एकजुटता के प्रयास हो रहे हैं। वहीं भाजपा एवं उसके सहयोगी दल भी अपनी स्थिति को मजबूती देते हुए पुन: सत्ता में आने के तमाम प्रयास करने में लग गए हैं। इसके लिये एनडीए ने भी नए साथियों की तलाश तेज कर दी है। केंद्रीय गृहमंत्री और पूर्व बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की हाल में हुई तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की यात्रा से इसके संकेत मिले। भाजपा लंबे समय से दक्षिण भारत में अपनी जमीन मजबूत करने की कोशिश कर रही है। 2024 लोकसभा चुनाव के लिए भी उसने इस सिलसिले में तैयारियां शुरू कर दी हैं। उत्तर भारत में वह पिछले लोकसभा चुनाव में जितना चमत्कारी प्रदर्शन किया गया कि इस बार उसे दोहराना उसके लिये जटिल प्रतीत हो रहा है। इसलिए अगर उसे फिर से बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आना है तो दक्षिण में सीटें बढ़ानी होंगी। इससे उत्तर भारत में सीटों की संख्या में संभावित कमी की भरपाई हो जाएगी। भाजपा इस योजना पर पूर्ण आत्मविश्वास एवं प्रखरता के साथ बढ़ भी रही थी, लेकिन कर्नाटक विधानसभा चुनावों से उसे झटका लगा। इसके बाद से कहा जा रहा है कि भाजपा पहले जितनी ताकतवर नहीं रही।

कर्नाटक के फार्मूले को आगे बढ़ाएगी कांग्रेस

आम चुनाव की सरगर्मियां उग्रता पर है, इस बार का चुनाव काफी दिलचस्प एवं चुनौतीपूर्ण होने वाला है। कांग्रेस ने कर्नाटक की जीत को आम चुनाव की जीत से जोडऩे की जल्दबाजी दिखाना शुरु कर दिया है। जिस तरह हिमाचल एवं कर्नाटक में उसने मुफ्त में जनता को कुछ न कुछ देने की राजनीति का सहारा लिया, उसे वह इसी वर्ष होने वाले विभिन्न राज्यों के विधानसभा एवं वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में दोहराने को तत्पर है। इसका ताजा प्रमाण है जबलपुर में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की यह घोषणा कि यदि राज्य में उनकी सरकार बनी तो सौ यूनिट बिजली मुफ्त दी जाएगी, रसोई गैस सिलेंडर पांच सौ रुपये में दिया जाएगा और महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये दिए जाएंगे। इसके अलावा उन्होंने किसानों का कर्ज माफ करने और पुरानी पेंशन योजना लागू करने का भी वादा किया। उन्होंने इसे पांच गारंटी की संज्ञा दी। कुछ इसी तरह की गारंटियां कर्नाटक एवं हिमाचल में दी गयी थी, उन्हें पूरा करने के लिए दोनों ही प्रांतों की चुनी सरकारों को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है, क्योंकि राज्य की वित्तीय स्थिति उन्हें पूरा करने की अनुमति नहीं देती।

जाति-धर्म नहीं जनता के मुद्दों पर होगा चुनाव

लोकसभा चुनाव केवल सियासी दलों के भाग्य का ही निर्णय नहीं करेगा, बल्कि उद्योग, व्यापार, रक्षा आदि राष्ट्रीय नीतियों, एकता, स्व-संस्कृति, स्व-पहचान तथा राष्ट्र की पूरी जीवन शैली व भाईचारे की संस्कृति को प्रभावित करेगा। वैसे तो हर चुनाव में वर्ग जाति का आधार रहता है, पर इस बार वर्ग, जाति, धर्म व क्षेत्रीयता व्यापक रूप से उभर कर आती हुई दिखाई दे रही है। और दलों के आधार पर गठबंधन भी एक प्रदेश में और दूसरे प्रदेश में बदले हुए हैं। एक प्रांत में सहयोगी वही दूसरे प्रांत में विरोधी है। कुर्सी ने सिद्धांत और स्वार्थ के बीच की भेद-रेखा को मिटा दिया गया है। चुनावों का नतीजा अभी लोगों के दिमागों में है। मतपेटियां क्या राज खोलेंगी, यह समय के गर्भ में है। पर एक संदेश इस चुनाव से मिलेगा कि अधिकार प्राप्त एक ही व्यक्ति अगर ठान ले तो अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी आदि समस्याओं पर नकेल डाली जा सकती है।

लोकलुभावन वादों की तैयारी

किसी भी राष्ट्र के जीवन में चुनाव सबसे महत्वपूर्ण होता है। यह एक यज्ञ होता है। लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत स्तंभ होता है। राष्ट्र के प्रत्येक वयस्क के संविधान प्रदत्त पवित्र मताधिकार प्रयोग का एक दिन। सत्ता के सिंहासन पर जनता द्वारा चुना व्यक्ति बैठता है। जिसे वह अपने हाथों से तिलक लगाकर नायक चुनती है। हर राजनीतिक दल अपने लोकलुभावन वायदों एवं घोषणाओं को सबसे बढिय़ा बता रहे हैं। हालांकि अभी देश में समस्याएं बनी हुईं हैं। देश गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य समस्याओं से नहीं जुझता दिखाई देता। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर आंख मूंदकर मत देगा तो वह अपने को ही नुकसान पहुंचाएगा।कई बार तो ऐसी घोषणाएं भी कर दी जाती हैं, जिन्हें पूरा करना संभव नहीं होता। उन्हें या तो आधे-अधूरे ढंग से पूरा किया जाता है या देर से अथवा उनके लिए धन का प्रबंध जनता के पैसों से ही किया जाता है। उदाहरणस्वरूप कर्नाटक सरकार ने दो सौ यूनिट बिजली मुफ्त देने के वादे को पूरा करने के लिए बिजली महंगी कर दी। इसी तरह पंजाब सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर वैट बढ़ा दिया। चुनाव जीतने के लिए वित्तीय स्थिति की अनदेखी कर लोकलुभावन वादे करना अर्थव्यवस्था के साथ खुला खिलवाड़ है। इस पर रोक नहीं लगी तो इसके दुष्परिणाम जनता को ही भुगतने पड़ंगे। जो चुनाव सशक्त एवं आदर्श शासक नायक के चयन का माध्यम होता है, उससे अगर नकारा, ठग एवं अलोकतांत्रिक नेताओं का चयन होता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं देश की विडम्बना है।

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