मोदी के फैसले के खिलाफ उतरे चंद्रबाबू नायडू! भाजपा से हुआ मोह भंग?
देश की राजनीति में उठते ये सवाल सिर्फ कयास नहीं हैं, बल्कि मोदी सरकार के एक ऐसे फैसले से जुड़े हैं, जिसने विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष के भीतर भी हलचल मचा दी है।

4पीएम न्यूज नेटवर्क: देश की राजनीति में उठते ये सवाल सिर्फ कयास नहीं हैं, बल्कि मोदी सरकार के एक ऐसे फैसले से जुड़े हैं, जिसने विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष के भीतर भी हलचल मचा दी है।
भारतीय राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है कि पक्ष और विपक्ष आमने-सामने हों, लेकिन जब सत्ता के सहयोगी दल ही सरकार के फैसलों पर उंगलियां उठाने लगें, तब समझ लेना चाहिए कि मामला साधारण नहीं है। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है। फर्क बस इतना है कि इस बार विरोध किसी छोटे सहयोगी दल की तरफ से नहीं, बल्कि एनडीए के सबसे अहम स्तंभ माने जाने वाले चंद्रबाबू नायडू और उनकी पार्टी टीडीपी की ओर से आया है। अब तक टीडीपी को मोदी सरकार की हर नीति, हर फैसले और हर एजेंडे के साथ खड़ा देखा गया है। लेकिन अब तस्वीर बदलती दिख रही है।
मोदी सरकार के एक बड़े और संवेदनशील फैसले पर टीडीपी ने न सिर्फ आपत्ति जताई है, बल्कि विपक्ष की लाइन में खड़ी होती भी नजर आ रही है जिससे मोदी-शाह के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। चंद्रबाबू नायडू को मनाना मोदी-शाह के लिए लोहे के चने चबाने जैसा हो गया है। तो मोदी सरकार का ऐसा कौन सा वो फैसला है जिसको लेकर विपक्ष तो विपक्ष बल्कि खुद एनडीए के सबसे मजबू़त अलायंस पार्टनर भी मोदी का खुलकर विरोध कर रहे हैं .
साल 2004 में जब देश में राजनीतिक बदलाव हुआ और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, तब सत्ता से बाहर रहकर सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद यानी एनएसी की कमान संभाली। उसी दौर में देश के गांवों में फैली बेरोजगारी और गरीबी से निपटने के लिए एक ऐतिहासिक योजना की नींव रखी गई। यह योजना थी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा।
इस कानून का उद्देश्य साफ था, गांवों में रहने वाले गरीब परिवारों को साल में कम से कम सौ दिन का गारंटीड रोजगार देना। यह सिर्फ एक योजना नहीं थी, बल्कि कानून के तहत मिलने वाला अधिकार था। रोजगार की गारंटी, मजदूरी की गारंटी और समय पर भुगतान की गारंटी। मनरेगा को मनमोहन सिंह सरकार की योजना कहा गया, लेकिन इसे सोनिया गांधी की ब्रेन चाइल्ड माना गया। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में, तमाम राजनीतिक अस्थिरताओं और गठबंधन की मजबूरियों के बावजूद, मनरेगा गांवों में उम्मीद की किरण बनकर उभरा।
2004 से 2009 तक की सरकार के बाद जब 2009 में कांग्रेस दोबारा सत्ता में लौटी, तो इसके पीछे कई कारण थे, लेकिन गांवों में रोजगार और आजीविका की समस्या पर मनरेगा के जरिए लगाए गए लगाम को सबसे बड़ा फैक्टर माना गया। लाखों-करोड़ों ग्रामीण परिवारों के लिए मनरेगा जीवन रेखा बन चुका था। लेकिन जब 2014 में सत्ता बदली। या कहें कि जब संघियों को देश में आजादी मिली। तब यूपीए को करारी हार मिली और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सत्ता में आई। उस वक्त पीएम मोदी ने संसद के अंदर मनरेगा का मजाक उड़ाते हुए इसे कांग्रेस की विफलताओं का स्मारक बताया था।
उन्होंने तंज कसते हुए कहा था कि यह योजना गरीबी की याद दिलाती है। लेकिन साहेब का कमाल तो देखिए, तमाम आलोचनाओं के बाद भी मोदी सरकार ने मनरेगा को खत्म नहीं किया। बल्कि यह माना गया कि गांवों में इसकी मजबूरी और जरूरत इतनी गहरी है कि इसे अचानक खत्म करना राजनीतिक आत्महत्या जैसा होगा। इसलिए मोदी सरकार ने मनरेगा को लागू रखा, हालांकि बजट कटौती, भुगतान में देरी और प्रशासनिक सख्ती के आरोप लगातार लगते रहे।
लेकिन करीब 11 साल बीतने के बाद अब जब मोदी नींद से जागे हैं तो साहब को फिर से वही पुराने माल पर नई पन्नी चढ़ाने का आइडिया सूझा है। और इस बार साहब के निशाने पर मनरेगा है। अपने तीसरे टर्म में आकर मोदी ने मनरेगा को छेड़ने का फैसला किया है। अब इसे सिर्फ बदलाव नहीं, बल्कि रीब्रांडिंग कहा जा रहा है।
सरकार मनरेगा को नए नाम और नए ढांचे में पेश करने की तैयारी कर रही है। लेकिन जैसे की हर चीज का नाम बदलने की भाजपा की रीत रही है इस योजना का नाम बदलने को लेकर सरकार ने योजना बनाई है जिसको लेकर पिछले कुछ दिनों से संसद में हंगामा मचा हुआ है। महात्मा गांधी का नाम हटाने को लेकर विपक्ष हमलावर है और इसे महज प्रशासनिक बदलाव नहीं, बल्कि वैचारिक हमला बताया जा रहा है।
नया नाम बताया जा रहा है विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन-ग्रामीण, जिसे संक्षेप में VB-G RAM G कहा जा रहा है। लेकिन इस बार सरकार नाम बदलने के साथ-साथ योजना की आत्मा में भी बदलाव की तैयारी कर रही है। अब तक मनरेगा के तहत गारंटीड रोजगार के लिए पूरा पैसा केंद्र सरकार देती रही है। मजदूरी की राशि केंद्र से आती थी, जबकि राज्यों में मजदूरी की दरें अलग-अलग तय होती थीं। लेकिन अब इस पूरी व्यवस्था को बदलने का प्लान है।
मोदी सरकार का नया प्रस्ताव यह है कि मनरेगा या उसके नए अवतार के तहत मजदूरी का पूरा बोझ सिर्फ केंद्र सरकार नहीं उठाएगी। अब राज्यों को भी अपनी जेब से पैसा लगाना होगा। यानी रोजगार की गारंटी तो दी जाएगी, लेकिन उसकी कीमत राज्यों को भी चुकानी पड़ेगी। यहीं से विवाद की असली शुरुआत होती है। चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी शासित आंध्र प्रदेश सरकार ने इस प्रस्ताव पर कड़ा ऐतराज जताया है।
इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में आंध्र प्रदेश के वित्त मंत्री पय्यावुला केशव ने साफ कहा कि फंड शेयर करने की शर्त बेहद चिंताजनक है। उन्होंने कहा कि अगर राज्य सरकारों को अपने हिस्से के तौर पर बड़ी रकम खर्च करनी पड़ी, तो इससे राज्य की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ेगा। खासकर आंध्र प्रदेश जैसे राज्य के लिए, जो पहले से आर्थिक तंगी से जूझ रहा है, यह एक गंभीर चिंता का विषय है।
मतलब साफ है कि टीडीपी के लिए ना बाप बड़ा न भइया सबसे बड़ा रुपया। चंद्रबाबू नायडू देते होंगे केंद्र को समर्थन लेकिन अब नायडू सरकार पैसा भी दे ये उनकी पार्टी को मंजूर नहीं है। आंध्र प्रदेश के वित्त मंत्री केशव ने यह जरूर कहा कि अभी योजना की पूरी जानकारी सामने नहीं आई है और राज्य सरकार पहले इसका अध्ययन करेगी। उन्होंने यह भी साफ किया कि फिलहाल वह सीधे विरोध की बात नहीं कर रहे, लेकिन चिंता जाहिर करना जरूरी है।
दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने नए प्रस्ताव के दो प्रावधानों की तारीफ भी की। लेकिन इन तारीफों के बावजूद, फंड शेयरिंग वाला मुद्दा इतना बड़ा है कि उसने टीडीपी को मोदी सरकार के खिलाफ खड़ा कर दिया है।अब सोचिए यह वही टीडीपी है, जिसने केंद्र में सरकार बनाने से लेकर संसद में हर बड़े बिल तक, बीजेपी का साथ दिया है। यह वही चंद्रबाबू नायडू हैं, जिनके समर्थन से आज मोदी जी सत्ता की कुर्सी पर बैठ पा रहे हैं। ऐसे में अगर वही नायडू इस फैसले पर सवाल उठा रहे हैं, तो यह सिर्फ एक राज्य की चिंता नहीं, बल्कि संघीय ढांचे पर चोट का मामला बन जाता है।
मनरेगा एक कानून के तहत लागू योजना थी। अब मोदी सरकार इसे बदलने के लिए नया कानून लाने की तैयारी कर रही है। इसके लिए संसद में नया बिल पेश किया गया। सरकार का कहना है कि यह नया कानून विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन-ग्रामीण के नाम से आएगा। हालांकि अभी तक यह पूरी तरह साफ नहीं किया गया है कि मनरेगा पूरी तरह खत्म होगा या नए कानून के साथ उसका अस्तित्व बना रहेगा। लेकिन इतना तय है कि नए बिल में महात्मा गांधी का नाम नहीं होगा। यही वजह है कि कांग्रेस और विपक्ष हमलावर हैं।
विपक्ष का आरोप है कि मोदी सरकार सुनियोजित तरीके से महात्मा गांधी के नाम और विचारधारा को सरकारी योजनाओं से मिटा रही है। कांग्रेस का कहना है कि यह सिर्फ नाम बदलने का मामला नहीं, बल्कि गांधी के नाम से जुड़ी उस सोच को खत्म करने की कोशिश है, जो गरीब, मजदूर और हाशिए पर खड़े लोगों के अधिकारों की बात करती है। प्रियंका गांधी ने इस विरोध की अगुवाई की है और सरकार पर महात्मा गांधी का अपमान करने का आरोप लगाया है। उन्होंने तो सरकार के इस फैसले को सरकार की सनक तक करार दिया
अब सवाल यह है कि क्या चंद्रबाबू नायडू का यह विरोध सिर्फ एक तकनीकी आपत्ति है, या इसके पीछे कोई गहरी राजनीतिक नाराजगी छिपी है। क्या यह संकेत है कि मोदी सरकार के फैसले अब एनडीए के भीतर भी बिना सवाल के स्वीकार नहीं किए जाएंगे। और क्या यह वही मोड़ है,
जहां से चंद्रबाबू नायडू को कांग्रेस की पुरानी यादें सताने लगी हैं। क्योंकि राजनीति में स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होते, सिर्फ हित होते हैं। अगर मोदी सरकार के फैसले राज्यों पर बोझ डालते हैं और सहयोगियों की अनदेखी करते हैं, तो यह तय है कि सवाल सिर्फ विपक्ष नहीं, बल्कि सत्ता के भीतर से भी उठेंगे। और मनरेगा का यह विवाद उसी बदलती राजनीति का सबसे बड़ा संकेत बनकर सामने खड़ा है।



