कर्नाटक में बदली वोटरों की सोच

विकास के मुद्दे पर की वोटिंग 

  • भाजपा का धु्रवीकरण नहीं चला
  • कांग्रेस ने किया बोम्मई सरकार के भ्रष्टाचार पर करारा वार
  • भाजपा सरकार की भ्रष्ट छवि का असर
  • त्रिकोणीय मुकाबले का प्रभाव

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
बंगलुरु। कर्नाटक में कांग्रेस अपने सीएम को शपथ दिलवाने की कवायद में जुटी है तो इस बीच पूर्व सीएम बसवराज बोम्मई ने भाजपा के हार के लिए अपनी तैयारियों की कमी को कारण बताया और कहा कि कांग्रेस ने हमसे ज्यादा अच्छी रणनीति बनाई इसलिए वो सत्ता के शिखर पर पहुंंची। सियासी चिंतक के बीच बीजपी क्यों हारी, कांग्रेस क्यों जीती इस पर चर्चा जारी है। ज्ञात हो कर्नाटक विधानसभा के नतीजों को आए कुछ ही दिन हुए हैं। कांग्रेस के आंकड़े बढिय़ा हैं। उसने 224 में से 135 सीट जीतीं, वहीं भाजपा ने 66 पर जीत हासिल की। कांग्रेस ने दशकों में ऐसी बड़ी जीत देखी है। उसके लिए यह जश्न का मौका है। विशेषज्ञ कांग्रेस की जीत के कई कारण बता रहे हैं।
राज्य में पिछली भाजपा सरकार की भ्रष्ट छवि, जिसे रेखांकित करने में कांग्रेस कामयाब रही, कांग्रेस का मजबूत, एकजुट स्थानीय नेतृत्व बनाम भाजपा का बिखरा हुआ स्थानीय नेतृत्व, भाजपा इस स्थानीय चुनाव को राष्ट्रीय चुनाव की तरह लड़ी, जिसमें प्रधानमंत्री को मुख्य चेहरा बनाया, भाजपा का ध्यान साम्प्रदायिक मुद्दों पर रहा, जो कर्नाटक में काम नहीं आता है और कुछ जातिगत समीकरण जो भाजपा के खिलाफ गए। कुछ लोग कहते हैं कि इससे बदलाव की बयार दिख रही है, कांग्रेस का उदय और 2024 में भाजपा के लिए चुनौतियां दिख रही हैं। पहले कर्नाटक को समझते हैं। पहली नजर में भाजपा की हार के सभी कारण सही लग रहे हैं। हालांकि, वास्तविक मतदान के आंकड़ों को गहराई से समझें तो पाएंगे कि ऊपर दिए कारणों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। कर्नाटक के चुनाव का पहला पहलू यह है कि यह त्रिकोणीय है। तीन पार्टियां हैं- भाजपा, कांग्रेस और जेडी(एस), जो अलग-अलग संयोजनों में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ती रही हैं।
त्रिकोणीय मुकाबले में, वोट शेयर में मामूली अंतर से भी नतीजों में भारी बदलाव आ सकता है। 2018 से 2023 के बीच वोट शेयर में हुआ बदलाव देखें। भाजपा का वोट शेयर 36 प्रतिशत बना रहा, कांग्रेस का 38प्रतिशत से 43प्रतिशत हुआ और जेडीएस का 18प्रतिशत से 13प्रतिशत हो गया। लेकिन जीती सीटों में भारी अंतर आया। भाजपा 106 से 66 पर आ गई (40 की गिरावट), कांग्रेस 80 से 135 (55 की बढ़त) पर पहुंच गई और जेडीएस 37 से 19 (18 की गिरावट) सीटों पर आ गई। चुनाव नतीजों पर हो रही चर्चाएं असंगत रूप से आखिर में मिली सीटों की संख्या पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं, जो शायद ठीक भी है। अंतत: सीटें ही मायने रखती हैं। विजेताओं का फैसला करने और सरकार बनाने का यही तरीका है। हालांकि कर्नाटक में क्या हुआ, यह समझने के लिए वोट शेयर की गहराई में जाना होगा। भाजपा का वोट शेयर (36प्रतिशत) 2018 के बराबर रहा।
क्या इससे लोकप्रियता में कमी, भ्रष्ट छवि और सत्ता विरोधी लहर दिखती है? क्या इसका मतलब है कि कर्नाटक में पार्टी की विचारधारा को अस्वीकार कर दिया गया है? पिछली बार इसी वोट शेयर के साथ भाजपा सौ से ज्यादा सीटें हासिल करने में कामयाब रही थी। उसकी विजेता के रूप में सराहना की गई थी। उसी वोट शेयर के साथ इस बार सीटों की संख्या कम हो गई और ‘कर्नाटक में भाजपा को नकार दिया गया’ की थ्योरी के बीज फूट पड़े हैं! अगर वोट शेयर बरकरार है तो इतनी सीटें क्यों गंवानी पड़ीं? इसका जवाब है एकमात्र सबसे बड़ा कारण, जिसने चुनाव पर असर डाला। यह है जेडीएस का निरंतर पतन। जेडीएस का वोट शेयर 18 प्रतिशत से घटकर 13प्रतिशत हो गया, यानी 5प्रतिशत गिरावट। वहीं कांग्रेस का वोट शेयर 38 प्रतिशत से बढक़र, 43प्रतिशत पर पहुंच गया, यानी 5प्रतिशत की ही बढ़त!

हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण नहीं कर पाया कर्नाटक का हिंदुत्व

कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने से पहले राजनीति के ज्यादातर पंडित यह मानकर चल रहे थे कि बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने का वायदा करके कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। आईपीएल की भाषा में कहा जा रहा था कि कांग्रेस की इस लूज़ बॉल पर छक्के पर छक्के लगेंगे और जीती-जिताई बाजी सांसत में पड़ जाएगी। इस समीक्षा का मतलब यह था कि बजरंग दल और बजरंग बली में समानता स्थापित करके नरेंद्र मोदी कर्नाटक के वोटरों को हिंदू- ध्रुवीकरण की तरफ धकेल देंगे। इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहा जा रहा था कि इस तरह के धर्म-आधारित ध्रुवीकरणके लिए लव जिहाद और हिजाब जैसे मुद्दों का इस्तेमाल करके पहले से ही जमीन बन रही थी। कांग्रेस को सतर्क होकर कदम बढ़ाना था। इसमें शक नहीं कि कांग्रेस पुराने मैसूर के मुसलमान मतदाताओं को अपनी ओर खींंचने के लिए बजरंग दल पर प्रतिबंध के आश्वासन का इस्तेमाल करना चाहती थी, जो आम तौर पर उसके और जेडीएस के बीच बंट जाते थे। हुआ भी यही।
ये मुसलमान मतदाता पहले से ही देवेगौड़ा की पार्टी द्वारा भाजपा के साथ चुनाव-उपरांत गठजोड़ करने के अंदेशे को समझ रहे थे। कांग्रेस के वादे ने ट्रिगर पाइंट का काम किया और उनका तकरीबन 75 प्रतिशत हिस्सा हाथ पर बटन दबाने के लिए तैयार हो गया। इसका जवाब कन्नड़ समाज की संरचना और कर्नाटक के तटीय इलाकों में हिंदुत्ववादी विचारधारा के प्रसार में देखा जाना चाहिए। संघ के प्रयासों से तटवर्ती कर्नाटक भगवा जरूर हो गया, लेकिन उसकी राजनीतिक अभिव्यक्तियां कभी गुजरात या यूपी जैसे कट्टरपंथी हिंदुत्व में नहीं हुईं। येदियुरप्पा लिंगायत समाज के अभी तक के सबसे बड़े जननेता माने जाते हैं, पर वे भाजपा के अंदर सक्रिय कट्टरपंथी लॉबी से कभी सहमत नहीं रहे। इस चुनाव के शुरुआती दौर में भी अखबारों को एक इंटरव्यू देकर उन्होंने हिजाब जैसी मुहिमों के प्रति अपनी नापसंदगी जाहिर की थी। भाजपा छोड़ कर गए जगदीश शेट्टार भी इसी तरह के लिंगायत नेता रहे हैं। कट्टरपंथी लॉबी बी.एल. संतोष कुमार और टी.एस. रवि (जो बुरी तरह से चुनाव हार गए) के नेतृत्व में इन लिंगायत नेताओं को हमेशा परेशान करती रही। लिंगायतों के बीच हिंदुत्ववादी विचारधारा का असर कितना कमज़ोर था, इसका पता इस बात से लगाया जा सकता है कि जैसे भाजपा आलाकमान ने किसी लिंगायत को सीएम का चेहरा बनाने से इन्कार किया, वैसे ही उन्होंने अपनी मतदान- प्राथमिकताओं पर पुन: विचार करना शुरू कर दिया।

जेडीएस की लोकप्रियता पर असर

जेडीएस का शेयर क्यों गिरा? यह एक वाजिब सवाल है, जिसका अलग से विश्लेषण करने की जरूरत है। हालांकि इसका राष्ट्रीय शैली में चुनाव लडऩे, स्थानीय नेतृत्व में खराब समन्वय होने या चुनाव विश्लेषण के नाम पर जो भी सूचियां बनाई जा रही हैं, उनसे बहुत कम लेना-देना है। जेडीएस की गिरावट का एक ट्रेंड रहा है। लोग पार्टी को राज्यव्यापी क्षेत्रीय पार्टी के विकल्प के रूप में नहीं देखते हैं। इसे अवसरवादी माना जाता है (इसने कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ सरकारें बनाईं, सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा न होने के बावजूद इसके नेता मुख्यमंत्री बने)। इसमें एक ही परिवार का ज्यादा प्रभाव है। इसे एक ही जाति, वोक्कालिगा का समर्थन ज्यादा मिला है। जेडीएस के साथ इन समस्याओं के कारण वोटों का कुछ हिस्सा आंशिक रूप से कांग्रेस के पक्ष में चला गया होगा। ऐसी संभावना है कि मुस्लिमों के वोट भी जेडीएस से कांग्रेस की ओर चले गए क्योंकि वे इस बार भाजपा को बाहर रखने के लिए एकजुट हुए। इस लिहाज से बेशक, भाजपा के बजरंग दल जैसे मुद्दों पर ध्यान देने से हो सकता है कि मुस्लिम वोट कांग्रेस के पक्ष में चले गए हों।

पहले से तैयार थी कांग्रेस : बोम्मई

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में इस बार कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई, जिन्होंने विधानसभा चुनावों में भाजपा के अभियान का नेतृत्व किया, कांग्रेस ने अपना प्रचार अभियान जल्दी शुरू कर दिया और राज्य में भाजपा का संदेश गड़बड़ा गया। यह पूछे जाने पर कि नतीजों से क्या सीख मिली, बोम्मई ने कांग्रेस की जीत के तीन कारण बताए. उन्होंने कहा, लोग मुफ्त उपहारों के बहकावे में आ गए, फिर, व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है कि कांग्रेस अधिक संगठित थी, कांग्रेस ने अपनी तैयारी काफी पहले से शुरू कर दी थी, जैसा आमतौर पर भाजपा करती थी। हमने अपने फैसले थोड़ी देर से लिए, देर से काम किया। अंत में, हालांकि भाजपा सरकार ने बहुत सारे कार्यक्रम आयोजित किए, लेकिन सही संदेश लोगों तक नहीं गया (सरकार के) बड़े फैसले लोगों तक नहीं पहुंचे । बोम्मई ने कहा कि भाजपा खेमे में स्थिति में सुधार होने में कुछ महीने लगेंगे। मैं कर्नाटक में भाजपा की हार की जिम्मेदारी लेता हूं, एक नेता को जिम्मेदारी लेनी चाहिए,तभी चीजें आगे बढ़ सकती हैं,बड़ी बात यह है कि हमें पार्टी को लोकसभा चुनाव के लिए काफी पहले तैयार करना होगा।

भाजपा के नए प्रशंसक नहीं बढ़े

इससे भाजपा के नए प्रशंसक नहीं बढ़ पाए यानी कि उसका वोट शेयर नहीं बढ़ा। उधर वोक्कालिगा और मुस्लिम वोट के कांग्रेस के पक्ष में जाने से वोट शेयर में जो थोड़ा भी बदलाव आया, वह इस त्रिकोणीय चुनाव के नतीजों को प्रभावित करने के लिए काफी था।क्या इसका मतलब यह है कि इन नतीजों का संबंध भाजपा और कांग्रेस, और उनके स्थानीय/राष्ट्रीय नेताओं से बिल्कुल नहीं है? ऐसा नहीं है, सबकी अपनी भूमिका होती है। वोट शेयर को बरकरार रखना भी आसान नहीं होता। हालांकि कोई तर्क दे सकता है कि भाजपा सत्ता में होने के बावजूद इस बार एक गैर-गठबंधन जीत सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम नहीं उठा सकी। वहीं कांग्रेस ने खुद को एक ऐसे असली विकल्प के रूप में पेश किया, जिसे पूर्ण बहुमत मिल सकता है। हो सकता है, इस वजह से भी जेडीएस के वोट कांग्रेस के हिस्से मे आए हों।

कांग्रेस ने भी 40 से ज्यादा लिंगायत उम्मीदवार उतारे

कांग्रेस ने भी 40 से ज्यादा लिंगायत उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इसका परिणाम यह निकला कि लिंगायत मतदाताओं के वोट अच्छी-खासी संख्या में कांग्रेस के खाते में चले गए। इसने भाजपा के मुख्य जनाधार को तोड़ दिया। संघ ने कर्नाटक के विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों में अपना दबदबा कायम करके हिंदुत्व की राजनीतिक सफलता की शुरुआत की थी। लेकिन अगर आज इन्हीं विश्वविद्यालय के परिसरों में जाकर भाजपा समर्थक छात्राओं से पूछा जाए तो वे कहेंगी कि मुसलमान छात्राओं को भी शिक्षा प्राप्त करने का हक है, और अगर वे हिजाब पहनकर आना चाहती हैं तो इसमें कोई बुरी बात नहीं है। भाजपा ने ओल्ड मैसूर के इलाके में यह प्रचार करने की पूरी कोशिश की कि टीपू सुल्तान की मृत्यु किसी अंग्रेज की तलवार से नहीं बल्कि एक वोक्कालिगा की तलवार से हुई थी। लेकिन उसकी एक न चली। वोक्कालिगा और मुसलमान मतदाताओं के बीच के सामाजिक संबंध खराब नहीं हुए। वे जानते थे कि अंग्रेजों ने जो नरसंहार किया था, उसमें मुसलमानों के साथ वोक्कालिगाओं का खून भी बहा था। कर्नाटक के हिंदू मुसलमान-विरोधी ध्रुवीकरण के लिए तैयार नहीं थे। उल्टे भाजपा के रणनीतिकारों को डर था कि कहीं हिंदू समुदायों में लिंगायत विरोधी ध्रुवीकरण न हो जाए। इसी डर से अमित शाह ने कहा था कि अगर भाजपा ने किसी लिंगायत को सीएम का चेहरा घोषित कर दिया तो उसके खिलाफ गैर-लिंगायत एकजुट हो जाएंगे।प्रधानमंत्री ने मंच से जय बजरंगबाली के नारे खूब लगाए। भाजपा नेता आखिरी दिन तक हनुमान चालीसा का पाठ करके हिंदू गोलबंदी की कोशिश करते रहे। पर जिन मुद्दों की चली- वे महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और कुशासन के थे। कर्नाटक के चुनाव नतीजों ने बता दिया कि महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और कुशासन के मुद्दे महज स्थानीय नहीं हैं। इन्हीं मुद्दों पर भाजपा हिमाचल और दिल्ली की महानगरपालिका में हार चुकी है। इससे यह भी साफ हुआ कि भाजपा हर चुनाव प्रधानमंत्री के भाषणों और अमित शाह के प्रबंधन के दम पर नहीं जीत सकती।

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