पुतिन का भारत दौरा बना मन की बात का कार्यक्रम!

  • विपक्षी नेताओं से पुतिन को क्यों नहीं मिलने दे रही सरकार
  • कांग्रेस का बड़ा आरोप असुरक्षा और आलोचना से बचना चाहती है सरकार
  • सभी सरकारों में विदेशी नेताओं से मिलता था विपक्ष
  • पुतिन का दौरा भारत के लिए है या भाजपा के राजनीतिक विमर्श के लिए

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के भारत दौरे का आज दूसरा दिन है। उनके स्वागत की तस्वीरे चमक रही है और कार डिप्लोमेसी के दृश्य सुर्खियां बन चुके हैं। लेकिन इस चमक धमक के बीच व्लादिमीर पुतिन का किसी विपक्षी नेता के साथ मीटिंग, मुलाकात की किसी तस्वीर का बाहर न आना अपने आप में कई सवालों को जन्म दे रहा है। कांग्रेस और विपक्षी नेताओं के मुताबिक यह विदेशी नेता का यह सरकारी दौरा तो हो सकता है लेकिन लोकतांत्रिक दौरा नहीं। अभी तक जब भी किसी विदेशी मेहमान ने भारत में कदम रखा है तो उसकी मुलाकात विपक्ष नेताओं से होती आ रही है। चाहे अटल बिहारी वाजपेई की सरकार हो या फिर मनमोहन सिंह की सरकार। लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि इस पूरे दौरे से विपक्ष को दूर रखा गया हो और यह पीएम मोदी के मन की बात कार्यक्रम हो।

लिखित प्रोटोकाल में हिस्सा नहीं विपक्ष

इस मुददे पर सरकार का तर्क है कि कोई लिखित प्रोटोकाल नहीं है कि विदेशी अतिथि को विपक्षी नेताओं से मिलना ही होगा। यह सरकार और अतिथि के पारस्परिक निर्णय पर निर्भर करता है। बात कागज पर सही दिखती है लेकिन वास्तविक प्रश्न औपचारिकताओं का नहीं इरादे का है। क्या यह निर्धारण का विवेक है या राजनीतिक संतुलन हटाकर कूटनीति को पूरी तरह केंद्रीय नियंत्रण में रखने की रणनीति? यहीं से विवाद और गहरा हो जाता है। यह वही दौर है जब कूटनीति की हर तस्वीर हर मुलाकात हर हस्ताक्षर को सरकार राजनीतिक उपलब्धि के रूप में भुनाती है और विपक्ष उस पर सवाल उठाता है कि जनता के नाम पर होने वाले निर्णयों से जनता के प्रतिनिधियों को दूर क्यों रखा जा रहा है। इसलिए चर्चाओं के बीच असली सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या पुतिन का दौरा भारत के लिए है या भाजपा नेतृत्व वाले राजनीतिक विमर्श के लिए?

जरूरी है लोकतांत्रिक संतुलन

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने सवाल दागा है कि क्या भारत में अब विदेशी अतिथि सिर्फ सरकार के मेहमान माने जाएंगे या लोकतंत्र के भी? कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के समय विदेशी राष्ट्राध्यक्ष विपक्षी नेताओं से भी मिलते थे। ऐसा सिर्फ औपचारिकता के तौर पर नहीं बल्कि लोकतांत्रिक संतुलन को दर्शाने के लिए किया जाता था। यानी प्रोटोकाल में ताकत की नहीं परंपरा की भाषा होती थी। लेकिन इस बार तस्वीर बदली हुई है और कांग्रेस के अनुसार इसकी वजह है सरकार की असुरक्षा और आलोचना से बचने की प्रवृत्ति। कांग्रेस के महासचिव केसी वेणूगोपाल ने कहा है कि विदेशी नेता भारत से मिलते हैं तो उनका मतलब सिर्फ सत्ताधारी दल से नहीं होता बल्कि संपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व से होता है। विपक्ष की गैर मौजूदगी उस लोकतंत्र की छवि को कमजोर करती है जिसका गुणगान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सरकार खुद करती है।

क्या लेकर लौटेंगे पुतिन

अब सवाल सिर्फ इस बात का नहीं रह गया कि पुतिन किससे मिलते हैं और किससे नहीं। बड़ा सवाल यह है कि वे किस सौदे के साथ लौटेंगे और भारत किस जोखिम के साथ आगे बढ़ेगा। रूस भारत रिश्तों के इतिहास में यह सबसे नाज़ुक समय है। यूक्रेन युद्ध के बाद दुनिया दो खेमों में बंट चुकी है। अमेरिका और पश्चिमी देशों का गठबंधन एक तरफ रूस चीन ब्लॉक दूसरी तरफ और इन दोनों के बीच भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता का झंडा उठाए अकेला खड़ा है। यही अकेलापन ताकत भी है और दबाव भी। रूस के साथ परमाणु ऊर्जा, रक्षा निर्माण, तेल आयात और व्यापारिक सहयोग पर बातचीत तय है। लेकिन इसे लेकर भी दो धाराएं साफ हैं एक जो इसे भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता का प्रदर्शन मानती है दूसरी जो कहती है कि यह अमेरिका को चिढ़ाने की कीमत पर किया जा रहा है। क्योंकि हकीकत यह भी है कि पुतिन जैसे ही दिल्ली में उतरे वाशिंगटन से बयान आया कि देशों को ध्यान रखना चाहिए कि रूस के साथ रक्षा संबंधों का विस्तार वैश्विक सुरक्षा स्थिति को जटिल कर सकता है।

सिर्फ सरकार से क्यों मिलना?

संसद के भीतर और बाहर अब बहस दो मोर्चों पर चल रही है। एक रूस के साथ ऐतिहासिक मित्रता और रणनीतिक सौदों का महत्व। और दूसरा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विपक्ष की भूमिका को कम करने की प्रवृत्ति। दोनों अलग अलग नहीं हैं क्योंकि अंतरराष्ट्रीय गठबंधन अंदरूनी राजनीतिक फायदों से मुक्त नहीं होते। जब विदेशी नेता सिर्फ सरकार से मिलते हैं तो उपलब्धियां भी सिर्फ सरकार की उपलब्धियां दिखाई देती हैं। विपक्ष का आरोप है कि इसी आप्टिक्स को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें दरकिनार किया जा रहा है। इसीलिए राहुल गांधी का सवाल अब महज शिष्टाचार का नहीं रहा यह संकेत बन गया है कि कूटनीति में भी सरकार-विपक्ष के बीच दूरी को संस्थागत रूप देने की कोशिश हो रही है। और अगर यह नई परंपरा बनती गई तो लोकतंत्र के लिए समस्या सिर्फ विपक्ष के न मिलने की नहीं होगी बल्कि उस राष्ट्रीय निर्णय प्रक्रिया की होगी जो सहमति और संतुलन से चलने के बजाय केंद्रीय अधिकार और एकतरफा निर्णय के रास्ते पर जाती दिखाई देगी। यह विवाद वहीं से शुरू हुआ है और शायद यहीं खत्म नहीं होगा।

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