आखिर मैडम ने क्यों कर रखा किनारा
लखनऊ। एक ओर जहां संसद से लेकर सडक़ तक मोदी सरकार को घेरने के लिए विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशें तेज हो गई हैं। तो वहीं दूसरी ओर बसपा ने इस विपक्षी एकता से खुद को कर रखा है। जहां पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल ही में दिल्ली दौरे पर सोनिया गांधी और शरद पवार समेत सभी विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाकात की और उनसे मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होने का आग्रह किया। वहीं इसके साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी इन दिनों मोदी के खिलाफ विपक्षी दल के नेताओं को एक मंच पर लाने में व्यस्त हैं। भाजपा विरोधी ज्यादातर दल भी इसमें ममता और राहुल के साथ खड़े नजर आ रहे हैं, लेकिन बसपा प्रमुख मायावती इस विपक्षी एकजुटता से दूरी बनाए हुए हैं। आखिर क्या वजह है कि जब पूरा विपक्ष एक साथ आकर मोदी को घेरने की कोशिश कर रहा है मैडम ने इस पूरे प्रक्रिया से खुद को अलग कर रखा है। इस मुद्दे पर पड़ताल करती ये रिपोर्ट….
हाल ही के दिनों में राहुल गांधी ने दिल्ली के संविधान क्लब में विपक्षी दलों को नाश्ते के लिए आमंत्रित किया है। पेगासस जासूसी मामले और कृषि कानूनों के मुद्दे पर विपक्षी दलों को एकजुट करने की राहुल की कोशिश तौर पर इसे देखा जा रहा है। टीएमसी, एनसीपी, एसपी, आरजेडी, लेफ्ट पार्टियों, इंडियन मुस्लिम लीग, आरएसपी समेत 15 दलों के नेताओं ने इसमें हिस्सा लिया। इससे पहले राहुल गांधी ने 14 विपक्षी दलों के नेताओं के साथ प्रेस को संबोधित करते हुए मोदी सरकार पर हमला किया।
इससे पहले पश्चिम बंगाल की तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने वाली ममता बनर्जी भी दिल्ली आईं और अपने पांच दिवसीय दौरे पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी समेत तमाम विपक्षी नेताओं से लेकर शरद पवार, अरविंद केजरीवाल, संजय राउत तक से मुलाकात की।
ममता ने कहा था कि बीमारी का इलाज जल्दी शुरू करना होगा, नहीं तो बहुत देर हो जाएगी। बीजेपी बहुत मजबूत पार्टी है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों पर भरोसा करना होगा। हालांकि दिलचस्प बात यह है कि मायावती विपक्ष के इन दोनों नेताओं की कवायद से दूरी बनाए हुए हैं।
बताते चलें कि 2018 में कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन सरकार के शपथ समारोह में शामिल होने के बाद से बसपा प्रमुख मायावती को विपक्षी एकजुटता के किसी मंच पर नहीं देखा गया है। भले ही कांग्रेस की ओर से विपक्षी एकता की कवायद हुई हो, या फिर किसी अन्य क्षेत्रीय दल की ओर से मायावती के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर कांग्रेस ने विपक्षी दलों के साथ बैठक की थी, जिसमें बसपा ने भाग लेने से इनकार कर दिया था।
माना जा रहा है कि विपक्षी दलों के साथ खड़े होकर मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए अपने ही दावे को पीछे नहीं धकेलना चाहती हैं। मायावती अपनी राजनीति को पुनर्जीवित करने की प्रक्रिया में हैं। वह देश की पहली दलित प्रधानमंत्री और दूसरी महिला प्रधानमंत्री के सपने को पूरा करना चाहती हैं, लेकिन उससे पहले वह यूपी में अपना खोया राजनीतिक आधार वापस पाने की कोशिश कर रही हैं । यही वजह है कि यूपी से लेकर पंजाब तक उन्होंने राजनीतिक बिसात बिछा रखी है।
यह बात सभी को अच्छी तरह से पता है कि दिल्ली की सत्ता के लिए सडक़ केवल यूपी से होकर जाती है। अगले साल फरवरी में यूपी, पंजाब, उत्तराखंड समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसी स्थिति में मायावती इन दिनों यूपी चुनाव की तैयारियों में व्यस्त हैं और लखनऊ में डेरा डाल दिया है। मायावती ने साफ कर दिया है कि वह यूपी में किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन बनाकर चुनावी मैदान में नहीं उतरेंगी, बल्कि अपने दम पर चुनाव लड़ेंगी। बसपा ने ब्राह्मण समागम के जरिए चुनावी बिगुल बजा दिया है और पंजाब में कांग्रेस के खिलाफ अकाली दल से हाथ मिला लिया है।
मायावती पेगासस और किसान दोनों मुद्दों पर बीजेपी को घेर रही हैं, लेकिन वह विपक्षी दलों के साथ खड़े होकर कोई राजनीतिक संदेश देने से बच रही हैं। ऐसी स्थिति में न तो मायावती खुद किसी विपक्षी दल की बैठक में शामिल हो रही हैं और न ही पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र, जिन्हें उनका मजबूत सिपहसालार माना जाता है। मायावती के निशाने पर भाजपा और कांग्रेस दोनों हैं।
भले ही विपक्षी एकता को राहुल और ममता की शह मिल रही हो, लेकिन मायावती बड़ी सावधानी से अपनी राजनीति को आगे बढ़ा रही हैं। विपक्ष के तमाम नेता एकता के साथ धीरे-धीरे अपने दावे को आगे बढ़ाने और खुद को सबसे बड़ा नेता साबित करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, लेकिन मायावती को चतुर राजनेता भी माना जाता है। ऐसी स्थिति में वह किसी विपक्षी दल के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करना चाहती।
मायावती और कांग्रेस के बीच राजनीतिक दूरी बढ़ाने में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव की अहम भूमिका है। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस से बीएसपी के साथ गठबंधन की खबर सामने आने के बाद यह महसूस किया गया कि यूपी के अलावा दोनों पार्टियां एक साथ आ सकती हैं। लेकिन बसपा की ज्यादा सीटों की मांग ने गठबंधन को नहीं होने दिया। इतना ही नहीं मायावती राजस्थान में बसपा विधायकों के कांग्रेस में विलय से भी काफी नाराज हैं, जिसके लिए वह कोर्ट भी गई थीं।
बसपा की राजनीति को बारीकी से मानने वाले वरिष्ठ पत्रकार सैयद कासिम का कहना है कि कांग्रेस के साथ खुलकर न आने के अपने राजनीतिक कारण मायावती के हैं। उत्तर प्रदेश बसपा का गढ़ है। दलित समुदाय एक बार कांग्रेस का परंपरागत मतदाता रहा है, लेकिन बसपा के राजनीतिक उदय के बाद दलित मतदाता कांग्रेस से दूर हो गए। ऐसी स्थिति में मायावती को लगता है कि अगर वह कांग्रेस के साथ खड़ी होती हैं तो उनका दलित मतदाता बिखरा जाएगा। यही वजह है कि मायावती अक्सर अपने भाषणों में कहती हैं कि बीजेपी-कांग्रेस की नीतियां और विचारधारा वंचितों के खिलाफ हैं। इस तरह मायावती न सिर्फ कांग्रेस बल्कि बीजेपी से भी दूरी बनाए रखती हैं।