70 फीसद वोट बटोरे विपक्ष, तो होगा चमत्कार
कांग्रेस व क्षेत्रीय दलों की है जिम्मेदारी
- 24 में भाजपा को रोकना है दिखानी होगी एकजुटता
4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। यदि सारे विपक्षी दल एक हो जाएं तो वे 70 प्रतिशत वोटों से अपनी सरकार आसानी से बना सकते हैं। विपक्षी दलों की एकता के लिए प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले भी कई पहल कर चुकी हैं। आजकल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इस दिशा में काफी सक्रिय हैं। लेकिन असली सवाल यही है कि कांग्रेस इन प्रांतीय नेताओं को अपना नेता मानने के लिए तैयार हो सकेगी? और क्या प्रादेशिक पार्टियों के ये नेता- जो केंद्र में भी मंत्री आदि रह चुके हैं- वे राहुल गांधी को अपना नेता मान लेंगे? इधर रायपुर में कांग्रेस का महाधिवेशन हो रहा है और उधर नीतीश विपक्षी दलों का सम्मेलन पटना में कर रहे हैं। विपक्ष के कुछ प्रमुख नेता राहुल के जन्म के पहले से भारत की राजनीति में सक्रिय रहे हैं, वे उन्हें अपना नेता कैसे मान लेंगे? इस समय नरेंद्र मोदी की सरकार के विरुद्ध विपक्षी मोर्चा खड़ा करना आसान नहीं है। देश में जब-जब केंद्र की कांग्रेस सरकार के विरुद्ध कोई विपक्षी मोर्चा खड़ा हुआ है, तब-तब उसका विशेष कारण रहा है। ऐसा कोई विशेष कारण आज दिखाई नहीं पड़ रहा है।
कांग्रेस का 85वां महाधिवेशन रायपुर में हो रहा है। अधिवेशन का कांग्रेस के लिए विशेष महत्व है, क्योंकि एक तो यह राहुल गांधी की भारत-यात्रा के तुरंत बाद हो रहा है और दूसरा, इस अधिवेशन में 2024 के आम चुनाव की रणनीति पर मुहर लगेगी। उससे पहले छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के कई नेताओं पर प्रवर्तन निदेशालय ने छापे मार दिए। इसमें 1800 पदाधिकारी और 15 हजार प्रतिनिधि भाग ले रहे है। अधिवेशन के सारे इंतजाम और खर्च का जिम्मा भूपेश बघेल की सरकार पर ही है। रायपुर के कांग्रेसियों पर पड़े छापों का असर क्या हो रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है। इस अधिवेशन के प्रति कार्यकर्ताओं में विशेष उत्साह है, क्योंकि राहुल की भारत-जोड़ो यात्रा को अच्छा प्रचार मिला है। इसका पहला लक्ष्य यह है कि विपक्षी दलों को एक गठबंधन में कैसे बांधा जाए? कांग्रेस का गणित यह है कि 2019 के चुनाव में भाजपा को कुल पड़ेे हुए वोटों के 37.36 प्रतिशत वोट मिले थे यानी एक-तिहाई से भी कम।
लोहिया और जयप्रकाश जैसे जन नेता की जरूरत
डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, वीपी सिंह, चंद्रशेखर और अटलजी जैसे नेता क्या आज कहीं दिखाई पड़ रहे हैं? भारत के विपक्ष के पास कोई सक्षम नेता आज नहीं है तो कोई बात नहीं लेकिन उसके पास कोई सक्षम नीति तो हो! हमारे विपक्षी दलों के पास सक्षम नेता और नीति, दोनों का अभाव है। उनका आजकल सिर्फ एक काम है- छिद्रान्वेषण! यानी मोदी के लोटे में छेद ढूंढना। सरकार की हर पहल में से कोई न कोई बुराई निकालना। यह गलत नहीं है। विपक्ष को सरकार की आलोचना खुलकर करने का अधिकार है लेकिन वैसा कोई ठोस मुद्दा तो उसके हाथ लगना चाहिए। लोहिया के पास ‘गूंगी गुडिय़ा’, जयप्रकाश के पास आपातकाल और वीपी सिंह के पास बोफोर्स की तोप थी लेकिन वर्तमान विरोधियों के पास क्या है? भाजपा के विरोधियों के पास आज साम्प्रदायिकता का मुद्दा है लेकिन इससे उसका वोट बढ़ता नहीं है बल्कि कटता है। हमारे विपक्ष के पास न तो कोई ठोस तथ्य हैं और न ही तर्क! विपक्ष के मुकाबले मोदी सरकार आज भारत में और उससे भी ज्यादा विदेशों में इतनी लोकप्रिय है कि पिछली श्रेष्ठतम सरकारों से उसकी तुलना की जा सकती है। यह ठीक है कि भारत को महाशक्ति और महासम्पन्न बनाने के लिए शिक्षा, चिकित्सा और न्याय के क्षेत्रों में जो क्रांतिकारी और बुनियादी काम होने चाहिए थे, वे अभी बाकी हैं लेकिन क्या हमारे विपक्ष के पास कोई ठोस नीतिगत विकल्प हैं? ठोस विकल्प रहने दें, उसके पास ‘गरीबी हटाओ’ जैसा नारा भी नहीं है।
इंदिरा गांधी के खिलाफ सब एकजुट थे
1967 में इंदिरा गांधी की सरकार के विरुद्ध डॉ. राममनोहर लोहिया के अभियान में न तो विचारधाराएं आड़े आईं और न ही नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं। लेकिन वह तात्कालिक एकता अल्पजीवी रही और वे सरकारें बीच में ही गिर गईं।
1977 में आपातकाल के बाद भी वैसा ही कारुणिक दृश्य देखा गया। मोरारजी देसाई और चौधरी चरणसिंह की गठबंधन सरकारें कुछ माह ही चलीं और आपसी झगड़ों ने उन्हें ढेर कर दिया। यही दृश्य विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर के अल्पकालिक प्रधानमंत्री कालों में देश ने देखा।
यहां सोचना यह है कि क्या इसी तरह का कोई टेढ़ा-मढ़ा गठबंधन मोदी सरकार को गिरा सकता है? क्या देश के लगभग 90 करोड़ मतदाता किसी ऐसे गठबंधन पर भरोसा कर सकेंगे?