कर्नाटक में इस बार भाषा नहीं है मुद्दा

अन्य दक्षिणी राज्यों में हिंदी विरोध तेज

  • 26 में होगा परिसीमन घटेंगे सांसद
  • भाजपा व कांग्रेस भी नहीं मानती मुद्दा

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
कर्नाटक। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बस अब 15-20 दिन रह गए हैं। दूध, भ्रष्टाचार, आरक्षण से लेकर सब मुद्दे उठाए जा रहे हैं। पर एक मुद्दा गायब है वो है ङ्क्षहदी भाषा के विरोध का मुद्दा। चुनाव प्रचार में अक्सर दक्षिण भारतीय राज्यों के चुनावों में इसकी चर्चा होती है। पिछले ही साल केद्रीय विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में अंग्रेजी के बजाय हिंदी के इस्तेमाल की संसदीय समिति की सिफारिश के बाद पूरे दक्षिण भारत में विरोध के स्वर उठने लगे थे। इसके बाद अमूल दही के पैकेट पर हिंदी में लिखा ‘दही’ भी विरोध का की एक वजह बना।
विरोध को शांत करने के लिए ही कर्नाटक की भाजपा सरकार आनन-फानन कन्नड़ लैंग्वेज कॉम्प्रिहेंसिव बिल भी पारित कर दिया। अब भाजपा नेता इस मुद्दे पर पूरी तरह खामोश हैं, हिंदी का विरोध खुलकर यहां चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया है और राष्ट्रीय मीडिया में भी इसे चुनावी मुद्दा नहीं माना जाता। मगर विशेषज्ञ मानते हैं कि उत्तर और दक्षिण के टकराव का ये मुद्दा अभी भले ही राष्ट्रीय स्तर पर किसी को बढ़ता न दिखे 2026 में ये विस्फोटक रूप ले सकता है। 2026 में लोकसभा सीटों का परिसीमन होना है। दक्षिण भारतीय राज्यों को आशंका है कि आबादी के हिसाब से सीटें तय होने की वजह से संसद में उनका प्रतिनिधित्व घटना तय है। उनकी शिकायत ये है कि डेमोग्राफिक से लेकर इंडस्ट्रियल तक विकास के हर पैमाने पर बेहतर स्थिति में होने के बावजूद नहीं बल्कि बेहतर होने की वजह से उनका प्रतिनिधित्व घटा दिया जाएगा और ये किसी को मंजूर नहीं। जानिए, क्यों दक्षिण भारत को है हिंदी से शिकायत और क्या वाकई में नॉर्थ इंडिया से बेहतर होने की वजह से उन्हें नुकसान होने वाला है।

हिंदी भाषी राज्य मतलब नॉर्थ इंडिया

नॉर्थ इंडिया यानी उत्तर भारत की जियोग्राफिकल परिभाषा और पब्लिक परसेप्शन में खासा अंतर दिखता है।भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से लद्दाख से लेकर मध्य भारत में झारखंड तक का पूरा इलाका नॉर्थ इंडिया में आता है। लेकिन आम धारणा यही है कि हिंदी भाषी राज्यों को उत्तर भारत में गिना जाता है। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली, उत्तराखंड और हरियाणा शामिल हैं। राजस्थान का काफी इलाका भारत की पश्चिमी सीमा का बड़ा हिस्सा बनाता है, मगर फिर भी आम धारणा में इसे पश्चिमी राज्य के बजाय उत्तर भारत में गिना जाता है। पंजाब, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर भाषाई अंतर के कारण उत्तर भारत में तो अलग देखे जाते हैं, लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों के जनमानस में ये भी उत्तर भारत का ही हिस्सा है।

भारत के नक्शे पर प्रायद्वीपीय इलाका है दक्षिण भारत

भारत के नक्शे पर प्रायद्वीपीय इलाका यानी अरब सागर, हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से घिरे भारतीय भूभाग को साउथ इंडिया यानी दक्षिण भारत माना जाता है। इसमें आज 5 राज्य आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल शामिल हैं। ब्रिटिश इंडिया में इन्हीं राज्यों और ओडिशा के कुछ हिस्से को मिलाकर ही मद्रास प्रेसिडेंसी बनाई गई थी। भाषाई आधार पर देखा जाए तो भारत की 6 क्लासिकल भाषाओं में से 4 यानी तमिल, तेलगु, कन्नड़ और मलयालम इन्हीं राज्यों में बोली जाती हैं। इसके अलावा दो क्लासिकल भाषाएं संस्कृत और उडिय़ा हैं।

46 प्रतिशत से ज्यादा लोग बोलते हैं हिन्दी

आजादी के बाद भाषा के नाम पर दूरी और जब भारतीय संविधान बन रहा था, उस समय एक बड़ा समूह चाहता था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए। मगर उस समय भारत में कुल 1652 भाषाएं बोली और लिखी जा रही थीं। 91प्रतिशत जनसंख्या को 14 से 18 भाषाओं (आज बढक़र 22 भाषाएं हो गई हैं) में विभाजित किया जा सकता था। लिहाजा ये भाषाएं संविधान के 8वें शेड्यूल में संलग्न कर दी गईं। उर्दू और हिंदुस्तानी को हिंदी से जोड़ देने के बाद पता चला कि देश के 46 प्रतिशत लोग इस एक भाषा शैली का इस्तेमाल करते थे। इसे आधार बनाते हुए हिंदी को देश की आधिकारिक भाषा बनाया गया। लेकिन इसका विरोध न हो इसके लिए अंग्रेजी को भी विकल्प के तौर पर रखा गया। उस वक्त ये तय किया गया था कि अंग्रेजी को विकल्प के तौर पर 15 साल तक ही रखा जाएगा। राज्यों को मिला था अपनी आधिकारिक भाषा चुनने का अधिकार संविधान निर्माण के समय राज्यों को भी स्वतंत्रता दी गई की वे अपने राजकाज के लिए अपनी भाषा चुन लें। संविधान के अनुसार संसद को छूट थी कि भाषा आयोग बनाए जो ये तय करे कि 15 साल के बाद आधिकारिक भाषा क्या होगी और अंग्रेजी उपयोग में रहेगी या नहीं।

मेट्रो में हिंदी साइनबोर्ड्स पर लोग भडक़े

कर्नाटक में भले हिंदी मुद्दा न हो बाकी दक्षिण भारतीय राज्यों में मामला गरम कर्नाटक में 2017-18 में हिंदी के विरोध में आंदोलन भडक़ा था। मुद्दा था बेंगलुरू मेट्रो में हिंदी साइनबोर्ड्स के इस्तेमाल का। समय-समय पर वहां विरोध तेज होता रहा है, लेकिन चुनाव के दौरान भाजपा इस मुद्दे को गरम नहीं होने देना चाहती। कन्नड़ लैंग्वैज कॉम्प्रिहेंसिव डेवलपमेंट बिल के जरिये जहां राज्य सरकार कन्नड़ सेंटीमेंट को शांत करना चाहती है, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिल्ली में कन्नड़ फेस्टिवल में दो घंटे बिताने को भी इसी से जोडक़र देखा जा रहा है। हालांकि कर्नाटक के अलावा बाकी राज्यों में संसदीय समिति की हालिया सिफारिशों का काफी विरोध हो रहा है। इस विरोध में सबसे आगे तमिलनाडु है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने पिछले साल 16 अक्टूबर को केंद्र को लिखे पत्र में अपनी आपत्ति दर्ज की थी। स्टालिन ने हाल ही में सीआरपीएफ भर्तियों में हिंदी कॉम्प्रिहेन्शन के अनिवार्य पेपर के विरोध में भी पीएम नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है। उनका कहना है कि तमिल अभ्यर्थियों से हिंदी कॉम्प्रिहेन्शन की उम्मीद करना गलत है।

भाषा आयोग की सलाह पर निणर्य

1955 में बना था आधिकारिक भाषा आयोग ने सलाह दी- अभी कोई एक भाषा चुनने के लिए सही समय नहीं 1955 में आधिकारिक भाषा कमीशन का गठन हुआ और बी.जी. खेर की अध्यक्षता में कमीशन ने एक साल बाद रिपोर्ट संसद में पेश की। इसका परीक्षण कर संयुक्त संसदीय समिति ने अपनी सलाह में कहा कि केंद्र के लिए एक आधिकारिक भाषा की आवश्यकता तो है लेकिन इसके लिए कोई तारीख तय करना उचित नहीं होगा। उस वक्त तक इंतजार करना चाहिए जब तक एक भाषा बिना किसी दिक्कत के आसानी से इस्तेमाल की जा सके। 1987 में संविधान संशोधन के जरिये अंग्रेजी जारी रखना तय हुआ। मगर संसदीय समिति का पेंच नहीं हटा 1987 में संविधान में 58वें संशोधन से ये तय किया गया कि संसद और केंद्र सरकार के कामकाज में अंग्रेजी का इस्तेमाल हिंदी के साथ जारी रहेगा। हर विधेयक को अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी उपलब्ध किया जाएगा। जो राज्य हिंदी में काम नहीं करते उनके क्रियाकलापों को हिंदी और अंग्रेजी में भी अनुवाद के रूप में उपलब्ध किया जाएगा। ऐसे राज्यों और केंद्र के बीच संवाद की भाषा अंग्रेजी बनी रहेगी। लेकिन इसके साथ ही केंद्र को संवेदनशील तरीके से हिंदी के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी निभाते रहनी होगी। दरअसल, ऑफिशियल लैंग्वैज एक्ट के तहत 1976 में ही एक संसदीय समिति का गठन किया जा चुका था। इसका काम आधिकारिक भाषा के इस्तेमाल पर रिपोर्ट देना है। समिति में 30 सदस्य होते हैं जिनमें से 20 लोकसभा और 10 राज्यसभा से आते हैं। यह समिति हर 5 वर्ष में एक रिपोर्ट देती रही है जबकि अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में मौजूदा समिति 3 साल में ही दो रिपोर्ट प्रस्तुत कर चुकी है।

2026 के लोकसभा परिसीमन का मुद्दा गरमाएगा

मगर इस विरोध की असली वजह कुछ और 2026 में हो सकता है विस्फोट स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से पड़ेे डेटा वैज्ञानिक नीलकंतन आर.एस. भारत के भाषा समेत सामाजिक और आर्थिक मुद्दों की बारीकियों का डेटा अनालिसिस के माध्यम से अध्ययन करते हैं। सितंबर, 2022 में ही उनकी किताब ‘साउथ वर्सेज नॉर्थ-इंडियाज ग्रेट डिवाइड’ इसी विषय को खंगालती है। भास्कर से बातचीत में नीलकंतन कहते हैं कि अभी राजनीतिक विरोध भले ही हिंदी पर फोकस्ड दिखता हो, मगर ये मुद्दा सिर्फ भाषा का नहीं है। वो बताते हैं कि दक्षिण के राज्य और राजनीतिक दल इस बात से ज्यादा चिंतित हैं कि 2026 के लोकसभा परिसीमन का नतीजा क्या होगा। लोकसभा सीटों का आबादी के आधार पर आखिरी बार परिसीमन 1976 में हुआ था। अब 2026 में दोबारा ये प्रक्रिया शुरू होगी। मौजूदा परिस्थिति में ही दक्षिण भारत से कुल 129 सांसद चुनकर दिल्ली जाते हैं। जबकि केवल क्क, बिहार और झारखंड से ही 134 सांसद संसद में बैठते हैं। इतने सालों में हिंदी बेल्ट में आबादी बढ़ी है, जबकि दक्षिण भारतीय राज्यों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं और जागरूकता की वजह से हेल्थ इंडिकेटर्स ही नहीं सुधरे हैं, आबादी भी नियंत्रित हो गई है। अब आबादी के आधार पर परिसीमन होता है तो दक्षिण भारतीय राज्यों में लोकसभा सीटें घट जाएंगी और हिंदी बेल्ट के सांसद और बढ़ जाएंगे। यानी हेल्थ, इंडस्ट्री और रोजगार के आंकड़ेे सुधारने के बावजूद दक्षिण के राज्यों का प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा।

 

 

 

 

 

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